न्यूयॉर्क में जारी संयुक्त राष्ट्र महासभा में तालिबानी नेताओं को बोलने को मौका नहीं मिलेगा।
संयुक्त राष्ट्र के प्रवक्ता ने कहा कि अफगानिस्तान के मौजूदा मान्यता प्राप्त राजदूत गुलाम इसाकजई ही सोमवार के दिन महासभा को संबोधित करेंगे। वे अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार के प्रतिनिधि हैं।
बता दें कि इसी हफ्ते तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी ने संयुक्त राष्ट्र महासचिन एंटोनियो गुटरेस को पत्र लिखकर महासभा को संबोधित करने की अनुमति मांगी थी।
पत्र में इसाकजई की मान्यता को दी गई थी चुनौती
गुटरेस को भेजे पत्र में मुत्ताकी ने लिखा था कि उन्हें भी वैश्विक नेताओं को संबोधित करने दिया जाए। इसाकजई को लेकर मुत्ताकी ने कहा था कि उनका मिशन खत्म हो चुका है और अब वो अफगानिस्तान के प्रतिनिधि नहीं रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने इस पत्र को नौ सदस्यीय क्रेडेंशियल समिति के पास भेजा था, जो तालिबान को संयुक्त राष्ट्र में सीट देने या न देने का फैसला करेगी। अभी तक इस समिति की बैठक नहीं हुई है।
कब होगी बैठक?
संयुक्त राष्ट्र महासभा का मौजूदा सत्र सोमवार तक चलेगा और तब तक यह बैठक होने की कोई संभावना नहीं है।
नौ सदस्यीय समिति की प्रवक्ता मोनिका ग्रेलेय ने बताया कि समिति आमतौर पर नवंबर में बैठक करती है और तभी अपना फैसला देगी।
इसका मतलब यह हुआ कि महासभा के इस सत्र में तालिबान को संबोधन की अनुमति नहीं मिल पाएगी और इसाकजई ही अफगानिस्तान के प्रतिनिधि के तौर पर महासभा को संबोधित करेंगे।
तालिबान ने इसाकजई की जगह अपने प्रवक्ता सुहैल शाहीन को संयुक्त राष्ट्र में अफगानिस्तान का नया राजदूत नियुक्त करने का ऐलान किया है।
शाहीन ने कहा था, “हमारे पास सरकार की मान्यता के लिए जरूरी सभी चीजें हैं। इसलिए हमें उम्मीद है कि एक निष्पक्ष संस्था के तौर पर संयुक्त राष्ट्र अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार को मान्यता देगा।”
तालिबान का कहना है कि युद्धग्रस्त देश का दोबारा निर्माण करने के लिए उसे मान्यता और आर्थिक मदद की जरूरत है।
तालिबान के लिए फायदे का सौदा होगा मंजूरी मिलना
अगर संयुक्त राष्ट्र तालिबान के दूत को स्वीकार कर लेता है तो यह इस्लामिक कट्टरपंथी समूह को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलने की दिशा में बड़ा कदम साबित हो सकता है। इससे आर्थिक तंगी से जूझ रहे अफगानिस्तान के लिए मदद के रास्ते खुल सकते हैं।
इससे पहले गुटरेस ने कहा था कि अंतरराष्ट्रीय मान्यता ही ऐसा जरिया है जिसके जरिये तालिबान पर समावेशी सरकार और मानवाधिकारों, खासतौर पर महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करने का दबाव बनाया जा सकता है।
पिछली बार नहीं मिली थी तालिबान को मंजूरी
जानकारी के लिए बता दें कि 1996 से 2001 के बीच जब अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन था, तब क्रेडेंशियल समिति ने तालिबान सीट देने से इनकार कर दिया था और चुनी हुई सरकार के प्रतिनिधि ही एंबेसडर रहे थे।