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क्या किशोर और युवा मन की उलझनें बढ़ गई है? - श्रीनारद मीडिया

क्या किशोर और युवा मन की उलझनें बढ़ गई है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

तेज गति से भागती इस दुनिया में प्रतिस्पर्धा आज चरम पर है।हर मां और पिता अपने बच्चों को शीर्ष पर देखने की चाहत रखता है।अपने मन के भीतर पल रहे स्वप्नों को साकार करने का माध्यम वह बच्चों को ही बनाना चाहता है।वह अपनी बची हुई पूरी ऊर्जा उड़ेल देना चाहता है अपने भावी पीढ़ी में।अपनी दमित इच्छाओं को पुनः फलित होते देखना चाहता है वो।

इस के लिए अपनी संचित पूंजी के संग संग अपना सर्वस्व लूटाने को तैयार होता है।इस के लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहता।यह वह मनोविज्ञान है,जिस के प्रभाव में आकर अभी-अभी सयाने होते किशोर या युवा बच्चे उलझ कर रह जाते हैं और प्रतिफल में प्रतिशत: या तो वे असफल होकर रह जाते हैं या फिर आत्महत्या कर लेने तक की स्थिति में आ जाते हैं।यह भारत के ऐसे भावी पीढ़ी की नियति बनती जा रही है।

बात प्रवेशिका की परीक्षा में अभी-अभी उत्तीर्ण हुए बच्चों की है,जिसने अपनी पहली सीढ़ी की चढ़ाई पूरी की है।उसे भलीभांति यह भी पता नहीं होता कि उसे अब क्या करना है और कैसे करना है!इस के पूर्व कि वह कुछ सोच सके,अपने सुखद भविष्य की योजना बना सके,उस के समक्ष अपने जीवन में असफल रहे मां-बाप की कुंठित इच्छाएं नये रुप में अवतार लेती हैं।उन इच्छाओं के पार्श्व में बेटे का भविष्य तो होता है पर बच्चे का स्व गुम हो जाता है।

“जोर का झटका धीरे से” की तर्ज पर भावी पीढ़ी को यह पाठ पढ़ाया जाने लगता है कि तुम्हें इंजीनियर,डॉक्टर,प्रशासक बन कर दिखाना है समाज को,वरना हम मुंह दिखाने के लायक नहीं रहेंगें।यह, वो अवस्था होती है उस बच्चे की,जो अपने मन की बात को कह भी नहीं पाता।इस के पहले कि उसकी कल्पना परवान चढ़े,उस के इच्छाओं की भ्रूण हत्या उसके अभिभावक हीं कर डालते हैं।उस की बातें नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती है।वह छटपटा कर रह जाता है।

अब बात आती है कोचिंग संस्थानों की,जहां प्रारंभिक दिनों में भांति-भांति के लॉलीपॉप दिखाये जाते हैं।मृगतृष्णा की घुट्टी पिलाने में माहिर ये संस्थान वाले अभिभावकों की अनुभवहीनता का फायदा उठाकर अभिभावक के साथ साथ बच्चे को भी अपने मकड़जाल में फांस लेते हैं।ना चाहते हुए भी ये दोनों फंसते चले जाते हैं और जिसका खामियाजा भविष्य में इन किशोर-युवाओं को भुगतना पड़ता है।अखबारों में यह खबर छपती है कि फलां जगह,फलां के बेटे ने आत्महत्या कर ली।

क्या हमने विचार किया है कि वैसे बच्चों से एक बार उनकी राय ले लेनी चाहिए।उसे क्या करना है,वह क्या बनना चाहता है,उसे क्या पसंद होगा-ऐसी ढ़ेर सारी बातें हैं,जिसे उन से एक बार तो साझा करना ही चाहिए।आपसी वार्त्तालाप से एक- दूसरे की भावनाओं को समझने में सहुलियत होगी,फिर भविष्य के लिए एक सफल योजना की राह निकल आयेगी।

प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जितनी जिम्मेवारियां बच्चों की है,उस से कम अभिभावकों की भी नहीं है।कुशल अभिभावक इस मंझधार में बच्चों के लिए अनुभवी मांझी साबित हो सकते हैं,जो बच्चों के मनोविज्ञान को पढ़ते हुए उन्हें,उन की इच्छा के अनुरुप आगे बढ़ाने में सहयोग दे सकते हैं।ऐसे बच्चे हीं एक सफल विद्यार्थी बन कर अपनी पहचान को नई ऊंचाई दे सकते हैं.

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