एक बार फिर दक्षिण में चुनाव होने जा रहा है.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सुदूर दक्षिण की तीन विधानसभाओं, यानी दो राज्य और एक केंद्र शासित क्षेत्र का चुनाव रोमांचक बनता जा रहा है। यहां तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी की चुनावी फिजां अचानक से इसलिए बदलने लगी, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी ने एक के बाद दूसरे घटनाक्रमों को अंजाम दिया और कांग्रेस भी देर से ही सही, यह समझ सकी कि अगर वह इन चुनावों में सुर्खियां नहीं बटोर सकी, तो उसे अपना बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ सकता है। पुडुचेरी क्षेत्र तो बीते पखवाड़े में राजनीतिक सूनामी से जूझता रहा। उप-राज्यपाल किरण बेदी, जो इस केंद्रशासित क्षेत्र की मुखिया के तौर पर खुद को पेश कर रही थीं, अनौपचारिक ढंग से पद से हटा दी गईं। इसके चंद रोज बाद ही वी नारायणसामी, जो पिछले पांच वर्षों से उप-राज्यपाल से मोर्चा ले रहे थे, अपनी सरकार बचाने की असफल जद्दोजहद करते दिखे।

इस पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेश ने बीते वर्षों में न जाने कितनी ही प्राकृतिक आपदाओं का सामना किया है, पर पिछले पखवाड़े जब यहां राजनीतिक सूनामी आई, तो निस्संदेह इसका एक अलग अनुभव रहा। किसी भी अन्य तूफान की तरह, यहां पिछले दो महीनों से राजनीतिक संकट की भूमिका तैयार हो रही थी, और भूस्खलन की तरह हाहाकार तब मचा, जब एक-एक करके कांग्रेस के चार विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। इसे रोकने में नाकाम रहे मुख्यमंत्री वी नारायणसामी ने पूरा ठीकरा उप-राज्यपाल पर फोड़ा। उन्हें उम्मीद थी कि वह इस तूफान को थामने में सफल हो जाएंगे, क्योंकि चुनाव बस चंद हफ्ते दूर हैं।

तब उन्होंने शायद ही सोचा होगा कि उनकी सरकार विदा हो जाएगी। आरोपों से बचने के लिए केंद्र ने नारायणसामी को सत्ता से बेदखल करने से पहले विवादित उप-राज्यपाल की विदाई कर दी। 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 15 सीटें मिली थीं। उसने एक निर्दलीय और अपने गठबंधन सहयोगी द्रमुक के दो विधायकों की मदद से आसानी से सरकार बनाई। विपक्षी गठबंधन एनडीए को 12 सीटों (आठ एनआर कांग्रेस के विधायक और चार अन्नाद्रमुक के) से संतोष करना पड़ा। यहां की विधानसभा में 33 सीटें हैं, जिनमें से तीन को मनोनीत किया जाता है।

चुनाव में बेशक भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन निवर्तमान विधानसभा में तीनों मनोनीत सदस्य उसी के थे, हालांकि इसमें एक ट्वीस्ट था। दरअसल, सदस्यों के मनोनयन का अधिकार केंद्र शासित क्षेत्र को ही है, जो या तो नामचीन हस्ती होते हैं या फिर उन वर्गों अथवा समुदायों के प्रतिनिधि, जिन्हें विधानसभा में प्रतिनिधित्व नहीं मिला होता है। उप-राज्यपाल ने राज्य सरकार से सलाह-मशविरा किए बिना मनोनीत सदस्यों की सूची अनुमोदन के लिए केंद्र सरकार को भेज दी। नारायणसामी इसके विरोध में अदालत में गए, लेकिन मनमाफिक फैसला न पा सके। विधानसभा-अध्यक्ष ने इन मनोनीत सदस्यों को शपथ दिलाने से इनकार कर दिया, क्योंकि ये सभी भाजपा के सदस्य थे। मगर, असामान्य रुख अपनाते हुए उप-राज्यपाल ने तीनों नामित सदस्यों को शपथ दिला दी।

भाजपा ने भी एलान कर दिया कि ये सभी सदस्य विधानसभा की कार्यवाही में भाग लेंगे, यहां तक कि विश्वास मत में भी। 22 फरवरी को नारायणसामी ने इस्तीफा दे दिया, क्योंकि विश्वास मत से एक दिन पूर्व एक और विधायक ने पार्टी छोड़ दी थी। मगर मुख्यमंत्री को अभी और झटका लगना बाकी था। 28 फरवरी को विधानसभा अध्यक्ष ने भी पद छोड़ दिया, क्योंकि उनके भाई भाजपा में शामिल हो गए थे। भाजपा चुनाव के माध्यम से विधानसभा में अपना खाता खोलने को इच्छुक है, और उसे भरोसा है कि कांग्रेस से हुई नई आमद से वह अपने सपने पूरा कर लेगी। 28 फरवरी को एक रैली को संबोधित करते हुए अमित शाह ने भाजपा की अगुवाई में एनडीए सरकार बनने की उम्मीद जताई। उन्होंने ए नमशिवायम की जमकर तारीफ की, जो कांग्रेस सरकार में पीडब्ल्यूडी मंत्री थे और अब भाजपा में शामिल हो गए हैं। वह नारायणसामी कैबिनेट में नंबर दो की हैसियत रखते थे और 2016 में पार्टी की जीत के रणनीतिकार माने जाते थे।

भाजपा जहां नमशिवायम को धोखा देने और सोनिया-राहुल द्वारा नारायणसामी को राज्य पर थोपने का आरोप कांग्रेस आलाकमान पर लगा रही है, वहीं भाजपा भी एनडीए की जीत के मामलों में ऐसे ही आरोपों से दो-चार हो सकती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि एनडीए की सहयोगी और एनआर कांग्रेस के नेता एन रंगास्वामी दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और अगले कार्यकाल पर नजरें टिकाए हैं। नमशिवायम भाजपा में इसलिए शामिल हुए हैं, क्योंकि उन्हें मुख्यमंत्री पद नहीं दिया गया था! जाहिर है, भाजपा को इन दोनों में से किसी एक को चुनना होगा। हालांकि, खतरे की घंटी कांग्रेस मुख्यालय पर भी बजी है, क्योंकि पार्टी को एहसास हो गया है कि वह भाजपा के हाथों एक और सूबा गंवा सकती है।

इसीलिए राहुल गांधी ने चुनाव अभियान तेज कर दिए हैं। देखा जाए, तो तमिलनाडु और केरल में भी कांग्रेस की राह आसान नहीं दिख रही। तमिलनाडु में वह द्रमुक गठबंधन का हिस्सा है, पर द्रमुक उसे 20 से अधिक सीट देने के मूड में नहीं है। 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 40 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जबकि 2011 में 61 सीटों पर। 2016 की हार के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया गया था, जिस कारण द्रमुक गठबंधन अन्नाद्रमुक गठबंधन से एक प्रतिशत से भी कम वोट शेयर से हार गया। कांग्रेस और द्रमुक, दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। द्रमुक के लिए जहां तमिलनाडु और पुडुचेरी में एक-एक वोट कीमती है, वहीं भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस को द्रमुक के समर्थन की दरकार है।

रही बात केरल की, तो यहां के जनमत सर्वेक्षणों में वाम मोर्चे की वापसी की भविष्यवाणी की गई है। ऐसा हुआ, तो राज्य चुनावों में एक नई शुरुआत होगी, क्योंकि यहां एक बार यूडीएफ, तो दूसरी बार एलडीएफ गठबंधन सत्तासीन होता रहा है। यूडीएफ की अगुवाई कर रही कांग्रेस ने ओमान चांडी को चुनाव प्रभारी बनाकर अपने घोडे़ खोल दिए हैं। इससे दूसरे नेताओं की भवें तन सकती हैं। इस तरह का कोई भी विवाद भाजपा के लिए फायदेमंद हो सकता है, जिसने एक सधी शुरुआत की है। 2016 के चुनाव में लगभग 15 फीसदी वोट शेयर हासिल किए हैं। यहां अगर कांग्रेस हारती है, तो यह राहुल की व्यक्तिगत हानि मानी जाएगी, क्योंकि वह वायनाड से सांसद हैं और चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे हैं।

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