आखिर म्हारी छोरियां छोरों से कम कहां हैं?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
साल 2002 या 2003 की बात है। तब हम बहनों ने कुश्ती की बस शुरुआत ही की थी। पहलवानी में लड़कियां न के बराबर थीं, इसलिए हम पुरुषों के साथ लड़ा करती थीं। एक दिन हमारे पिता दंगल लड़वाने के लिए हम भाई-बहनों को राजस्थान ले गए। मुकाबले को लेकर हमारे अंदर एक अलग रोमांच था। मगर हमारा सारा उत्साह अचानक से फीका पड़ गया, जब आयोजक ने कहा, ‘आखिर किस ग्रंथ में लिखा है कि लड़कियां कुश्ती लड़ सकती हैं?’ मैं भौंचक रह गई। लिखा तो यह भी नहीं है कि लड़कियां दंगल नहीं कर सकतीं!
मगर उस दिन उन्हें जवाब देने की हमारी हैसियत नहीं थी। मैंने कहा भी कि हम लड़कों से लड़ लेंगी, मगर वह टस से मस नहीं हुए। नतीजतन, हमें निराश वापस लौट जाना पड़ा। हालांकि, मेरे भाई को लड़ने की अनुमति मिल गई थी। उस दिन हमें सिर्फ यही मलाल था कि काश, हम लड़की न होते! काश, हमें भी मुकाबला करने देते! यह वह समय था, जब हरियाणा के हमारे समाज में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले नाममात्र के मौके मिलते थे। महिलाएं तो खेल का नाम लेने तक से घबराती थीं। लेकिन कहते हैं न कि हर बच्चे की सफलता के पीछे उसके मां-बाप का हाथ होता है। हम ‘फोगाट सिस्टर्स’ के लिए भी यही सच है। अपने मां-बाप की उंगलियां पकड़कर ही हमने यह मुश्किल यात्रा तय की है। उन दिनों तो लोग बस ताना मारा करते थे।
कहा करते, देखो, ये लड़कियां दंगल खेलती हैं! मगर अब वही समाज हमें सिर आंखों पर बिठाता है। मेरे भाई को तो अब भी कहा जाता है कि पहले मेहनत करो, बहनों जैसी सफलता पाओ, तब कोई मांग करो। अब नजीर के तौर पर हम बहनों को पेश किया जाता है। पहले कहा जाता था, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब। मगर अब महिला खिलाड़ियों ने साबित कर दिया है, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे लाजवाब।
आज महिला दिवस को मैं इन्हीं दो पहलुओं से देखती हूं। पहले हमारा मजाक उड़ाया जाता था, लेकिन आज खूब शाबाशी दी जाती है।
अब पुरुषों में यह सोच नहीं रही कि महिलाएं चूल्हे-चौके के लिए ही बनी हैं। अब वे समझ गए हैं कि औरतें हर क्षेत्र में उनसे आगे निकल सकती हैं। देखा जाए, तो देश-समाज की सोच बदलने के लिए खिलाड़ियों ने ही नहीं, पूरी महिला बिरादरी ने लड़ाई लड़ी है। किसी का योगदान कम नहीं है। फिर चाहे वह मिस वल्र्ड मानुषी छिल्लर हों, मिस इंडिया रनरअप मान्या सिंह हों, अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला हों, आईपीएस किरण बेदी हों या फिर पीवी सिंधु, साक्षी मलिक या फोगाट सिस्टर्स। हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपना मुकाम हासिल किया और समाज में आदर्श बनकर उभरीं।
इसका काफी असर पड़ा है। पहले खुद औरतों के मन में यह बात पैबंद होती थी कि उनकी जिम्मेदारी घर-परिवार तक ही सीमित है। मगर आज न सिर्फ सुदूर गांव की लड़कियां भी आसमान छूने की चाहत रखती हैं, बल्कि सफलता हासिल करके अपने समाज की सोच बदलने में भी सफल होती हैं। आज अपने दम पर आगे बढ़ने वाली तमाम महिलाओं की यही कोशिश है कि वे इसी तरह देश-दुनिया पर असरंदाज होती रहें। जाहिर है, आने वाले दिनों में महिलाएं और ज्यादा प्रभावशाली भूमिका में आ सकती हैं। इसके लिए उन्हें अधिक से अधिक जागरूक करना होगा। उनको हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी निभाने के लिए प्रेरित करना होगा, क्योंकि जब वे खुद कदम बढ़ाएंगी, तो कुछ न कुछ नया करके ही दिखाएंगी।
महिलाओं को मौका मिले, तो वे काफी कुछ कर सकती हैं। अपनी काबिलियत और मेहनत के दम पर नया इतिहास रच सकती हैं। कई योग्य महिलाएं तो आज भी मनमाफिक काम करने का अवसर ढूंढ़ रही हैं। उनकी मदद की जानी चाहिए। हमारे समाज में घूंघट प्रथा बंद होनी चाहिए, क्योंकि यह भी महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकती है।
एक प्रयास सुरक्षा के मोर्चे पर भी करना होगा। महिलाओं की सुरक्षा आज भी एक बड़ा मसला है। इसे यह तर्क देकर नहीं बचा जा सकता कि शुरू से ही महिलाओं को निशाना बनाया जाता रहा है। हां, यह जरूर है कि पहले वे इतनी जागरूक नहीं थीं। उनके साथ होने वाली ज्यादतियां उजागर नहीं हो पाती थीं। मगर अब मीडिया के सहयोग से महिला-उत्पीड़न की घटनाएं लगातार उजागर हो रही हैं। जब ऐसी घटनाएं सुर्खियां बनती हैं और देश-समाज के सामने आती हैं, तो महिलाओं को न्याय दिलाना आसान हो जाता है।
सत्ता-प्रतिष्ठान भी इस कोशिश में है कि ऐसे कानून बनें, जिनसे महिलाओं का उत्पीड़न बंद हो। उन्हें ‘सेल्फ डिफेंस’ का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। तब भी, महिलाओं की सुरक्षा के लिए अभी और कदम उठाए जाने की जरूरत है। मौजूदा कानूनों को और सख्त किया जाए, ताकि महिलाओं के खिलाफ कुछ भी करने से पहले अपराधी सौ बार सोचें। कानून यदि मजबूत होगा, तो अपराधियों पर लगाम लग सकेगा। हमारे नीति-नियंता चाहें, तो आज के दिन इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। हालांकि, कुछ कोशिश महिलाओं की तरफ से भी होनी चाहिए। मिसाल के तौर पर, औरतों को जिद्दी बनना चाहिए।
अगर उन्हें कुछ करना है, तो मंजिल पाने की ललक उनके अंदर होनी ही चाहिए। उनमें यह जिद होनी चाहिए कि उन्हें हर हाल में सफल होना है। यह बात उन्हें गांठ बांध लेनी चाहिए कि पुरुषों से वे किसी मामले में पीछे नहीं हैं, बल्कि कई क्षेत्रों में तो उनसे आगे निकल चुकी हैं। पिछले ओलंपिक (2016 रियो ओलंपिक) खेलों में तो पीवी सिंधु और साक्षी मलिक ने ही पदक जीतकर देश की लाज बचाई थी। वैश्विक मंचों पर आज महिलाएं देश का कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व करने लगी हैं। इसीलिए कोई समाज अपनी लड़कियों को यदि कहता है कि वे अमुक काम नहीं कर सकतीं, तो लड़कियों को जिद पालकर वह काम जरूर करना चाहिए। संकीर्ण सोच वाले लोगों के मुंह तभी बंद होंगे। आखिर म्हारी छोरियां छोरों से कम कहां हैं?