अमेरीका का अफगानिस्तान से निकल जाना बेहतर है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी का अनुमान तो बहुत समय से था, लेकिन बाइडेन प्रशासन के आने के बाद से यह लगभग स्पष्ट हो गया था कि सेना अधिक देर तक नहीं रहेगी. यह निर्णय बहुत सोच-समझ कर लिया गया है कि अफगानिस्तान से निकल जाना बेहतर है क्योंकि वहां रहने का उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा था. उनके सामने यह बिल्कुल साफ था कि कुछ साल और रुकने से अफगानिस्तान की आंतरिक लड़ाई का कोई और नतीजा नहीं निकलेगा.

अगर कोई नतीजा निकालना होता, तो वह दस साल पहले ही सामने आ जाता. अब अमेरिका की कोशिश यही रहेगी कि कोई भी छोटा-मोटा, ऐसा-वैसा राजनीतिक समझौता हो जाए और उसके बाद वह निकल जायेगा. अगर कोई समझौता नहीं होता है, तो वे अगले कुछ सालों तक अफगानिस्तान सरकार की कुछ मदद करते रहेंगे, कुछ सैन्य और आर्थिक सहायता देते रहेंगे. ऐसा ही रुख अमेरिका के यूरोपीय सहयोगियों का होगा. यदि अफगानिस्तान में लड़ाई जारी रहती है, तो अमेरिका का उससे कोई सरोकार नहीं होगा.

बहरहाल, अमेरिका तो अफगानिस्तान से निकल जायेगा, लेकिन इस इलाके के देशों के लिए मामला उलझ सकता है. अगर वहां अस्थिरता बरकरार रहती है, उसका असर हमारे देश पर भी जरूर होगा. यह असर सीधे तौर पर नहीं होगा क्योंकि अफगानिस्तान से हमारी सीमा नहीं लगती है. हमारे ऊपर जो भी असर होगा, वह पाकिस्तान के जरिये ही होगा, चाहे वह नशीले पदार्थों की तस्करी हो, आतंकी गुट हों या अवैध रूप से हथियारों को भेजना हो. पाकिस्तान को अफगानिस्तान के रूप में ऐसी जगह फिर मिल जायेगी, जहां वह अपने लोगों को रख सकता है, उन्हें संरक्षण दे सकता है और खुद अपने हाथ पाक-साफ दिखा सकता है.

उस दौर के असर पंजाब पर पड़े, जो दुबारा अब फिर नजर आने लगे हैं. कश्मीर प्रभावित हुआ. एक असर यह इस्लामी कट्टरपंथ और आतंकवाद की बढ़त के रूप में हुआ. इससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई. इसकी जड़ें तो अफगानिस्तान में ही हैं. आज भी भारत समेत समूची दुनिया कट्टरपंथ और आतंकवाद की लहर की चपेट में है. वह लहर थमी नहीं है.अगर अफगानिस्तान में निकट भविष्य में तालिबान सत्ता पर काबिज होता है, तो हमें ऐसी कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि स्थितियां बेहतर होंगी.

यदि इस बात में सच्चाई है कि तालिबान पाकिस्तान के पिछलग्गू है और उसका एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के इशारों पर काम करता है, तो यह मानना बेवकूफी होगी कि वह पाकिस्तान की नीति और नीयत के खिलाफ कुछ करेगा और भारत से सहयोग बढ़ाने की कोशिश करेगा. जहां तक भारत की बात है, तो आगे के बारे में अभी कहना मुश्किल है.

भारत का रवैया अभी तक यही रहा है कि हम अफगानिस्तान के लोगों के साथ हैं और हमारी जो परियोजनाएं हैं, वे देश की भलाई के लिए हैं. हमारी सभी परियोजनाएं अफगानियों की जरूरत और उनकी मांग के अनुसार हैं. अन्य देश अभी तक खुद फैसला करते रहे हैं कि अफगानिस्तान के लिए क्या अच्छा है, क्या नहीं. भारत के इसी रवैये को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपने हालिया बयान में दुहराया है. जहां तक विदेश मंत्री के संयुक्त अरब अमीरात में पाकिस्तानी प्रतिनिधियों से मिलने या संवाद करने का सवाल है, तो इस बारे में अटकलें लगायी जा रही हैं.

कूटनीतिक परिदृश्य में अक्सर ऐसा होता है कि कोई देश दो देशों के बीच संदेश के आदान-प्रदान या बातचीत का माहौल बनाने में सहयोगी की भूमिका निभाता है. संयुक्त अरब अमीरात अधिक-से-अधिक यही योगदान कर सकता है. लेकिन उनके एक राजनयिक की टिप्पणी से यह भ्रम फैला है कि भारत और पाकिस्तान के बीच संयुक्त अरब अमीरात मध्यस्थता कर सकता है. भारत की नीति स्पष्ट रही है कि कश्मीर या किसी अन्य मसले पर पाकिस्तान से बातचीत द्विपक्षीय होगी, उसमें किसी देश की मध्यस्थता का सवाल ही पैदा नहीं होता.

यदि संयुक्त अरब अमीरात को मध्यस्थता का मौका दिया जाता है, तो यह इस नीति का घोर उल्लंघन होगा. मुझे नहीं लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार किसी भी हाल में ऐसा कोई भी कदम उठायेगी. अधिक-से-अधिक यह हो सकता है कि संयुक्त अरब अमीरात दोनों देशों को एक मेज पर बैठाने में योगदान करे.

दशकों से जारी युद्ध और आतंक से तबाह अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण संभव है, लेकिन अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद की परिस्थितियों के बारे में निश्चित तौर पर कुछ भी कह पाना संभव नहीं है. हमें कथित शांति प्रक्रिया और संभावित समझौते से भी अधिक उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. निकट भविष्य में अफगानिस्तान में चीन की भूमिका भी हो सकती है, संभवत: होगी भी. अभी एक खबर आयी है कि चीन अपने सैनिकों को वहां भेज सकता है, जो शांति सैनिक होंगे. पर इस खबर पर भी पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता है. यह भी देखना होगा कि चीनी सैनिकों को लेकर तालिबान का क्या रवैया होगा.

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