“जय”, “श्री” और “राम” सबके हैं, किसी की जागीर नहीं”-पुष्पम प्रिया
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
आज ये लिखते हुए मेरे चेहरे पर एक मुस्कुराहट है। आज़ादी की, गर्व की और धर्म की मुस्कुराहट। आज़ादी इसलिए क्योंकि आज के भारत में ख़ासकर राजनीति में राम का नाम लेने का मतलब बस ये है कि पहला आप एक ख़ास राजनीतिक दल से हैं और दूसरा कि आप दूसरे धर्मों से नफ़रत करते हैं। ये बोझ परतंत्रता है और सभी धर्मों का आदर करने वाले व्यक्ति को दुविधा में डाल देता है।
क्योंकि धर्म की राजनीति के ख़िलाफ़ वो पार्टियाँ हैं जो सेक्युलरिज़म के नाम पर एक बहुत ख़राब उदाहरण प्रस्तुत करती आयी हैं – आस्थाओं को नकारने का। फलस्वरूप देश में आस्था ने एक दुर्भाग्यपूर्ण सतही रूप ले लिया है जिससे आस्था वाले राम के असली भक्त असमंजस और परतंत्रता के अलावा शायद ही कुछ और महसूस करते हैं। मैं मिथिला से हूँ, जहां बचपन से लोगों को एक दूसरे को नमस्कार की जगह जय सिया राम कहते हुए सुना है। पर आज यह महज़ प्रेम का अभिवादन नहीं रह गया है।
दुर्भाग्य। गर्व की मुस्कुराहट इसलिए क्योंकि मेरे राम पर मुझे बहुत गर्व है। गर्व किसी धर्म का होने की वजह से नहीं है परंतु उनके असाधारण गुणों का गर्व है जो उन्हें दैव एवं अविस्मरणीय बनाते हैं। और धर्म की मुस्कुराहट हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई वाली नहीं पर इन सभी धर्मों के पीछे जो मूल्य हैं – सही और ग़लत की, उसकी।
चुनाव प्रचार के दौरान बिस्फी में एक वृद्ध बुजुर्ग महिला ने मुझे जाने वक्त जय श्री राम कहा। जब मैंने इसका जवाब जय श्री राम कह कर दिया तो मुझे असमंजस हुआ। हमारी पार्टी में मेरे बहुत से साथी दूसरे धर्म को मानने वाले भी हैं और मुझे लगा उन्हें ऐसा तो नहीं लगा होगा ना कि वो मेरे अपने नहीं। नहीं, उन्हें ऐसा नहीं लगा था पर मेरे मन में ऐसा आना ही परतंत्रता थी। और आज अपने मित्रों पर शंका की इस परतंत्रता से मैं खुद को आज़ाद करना चाहती हूँ, आज से बेहतर शायद ही कोई दिन हो- आज राम का दिन जो है, धर्म की अधर्म पर जीत का दिन।
जय, श्री, राम तीनों शब्द खुद में बहुत बड़े हैं और एक दूसरे से जुड़ कर राम को परिभाषित करते हैं। आप सोचेंगे मैं ये क्यों लिख रही? क्योंकि भारत की मेरी परिकल्पना राम जैसी है। पर राम का मतलब मात्र एक मूर्ति या मंदिर नहीं उस से कहीं ज़्यादा है। राम के बारे में सोचने पर मुझे मेरी दादी याद आती हैं। जब हम गाँव जाते थे तो रास्ते में जितने भी मंदिर आते थे वो सब के सामने हाथ जोड़ती थीं और मुझे भी जोड़ने को कहती थीं।
मैं बिना कुछ सोचे समझे बस वैसा ही करती थी जो वो कहती थीं। अब मैं हर मंदिर के सामने हाथ तो नहीं जोड़ती पर अब मैं महज़ तोता भी नहीं, मैं राम को बेहतर जानती हूँ। मेरी ग़ज़ब की पूजा करने वाली दादी भी सिर्फ़ राम का नाम नहीं लेती थीं पर राम के गुण भी उनमें थे। मेरे बाबा के मिल्लत कॉलेज के प्रोफ़ेसर मित्र आते थे तो वो घर के भीतर से ही उन्हें आदाब कहती थीं। दुर्भाग्यवश आज के बहुत से लोग राम का नाम तो लेते हैं लेकिन राम का मतलब नहीं समझते।
राम ‘जय’ हैं। अधर्म पर, अधर्मियों पर और ग़लत पर जय। मानवता की जय, एक दूसरे के प्रति प्रेम की जय। राम सबकी इज्जत करते थे। उनसे ज़्यादा प्लुरल शायद ही कोई और हो। उनके साथ भालू, पक्षी, वानर, हर प्रजाति, और जाति के मानव सभी सुरक्षित महसूस करते थे। वो सबके थे और सब उनके थे। राम को रावण ने आहत किया था फिर भी जब रावण तीर से घायल अपनी मरणशय्या पर थे तो उन्होंने लक्ष्मण को उनसे ज्ञान प्राप्त करने को भेजा। राम रक्षक हैं, भक्षकों के अधर्म से प्राणियों की रक्षा करते हैं। ‘श्री’ राम मर्यादा के पर्यायवाची हैं।
औरतों को गालियाँ, औरतों के साथ अभद्र बेशर्मी की भाषा का प्रयोग करने वालों के ख़िलाफ़ राम थे, उनके साथ नहीं। ‘राम’ राज्य का मतलब राम के न्याय और उनके आदर्शों को स्थापित करना है। ऐसा भारत तो सबके लिए होगा जहां हर धर्म के लोगों की रक्षा हर व्यक्ति का धर्म होगा- जाति से परे, धर्म से परे, लिंग से परे, सबका भारत।
आज इस देश में उर्दू में मेरे पोस्ट लिखने पर कुछ लोग अपनी मर्यादा तोड़ कर अश्लील बातें लिखते हैं और फिर अंत में लिखते हैं जय श्री राम। और ज़ाहिर है ऐसा ही होना था क्योंकि कोई भी हिंदू पॉलिटिशियन उर्दू में भारत में आज लिखने की हिम्मत नहीं करता, जबकि आज़ादी के दिनों में हर राजनेता उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी सभी भाषाओं में माहिर थे। भारत के प्रधानमंत्री तो मुसलमानों के त्यौहार पर शुभकामनाएँ भी नहीं देते कि कहीं उनके समर्थक नाराज़ न हो जाएँ जबकि गुजरात में उनके ही कई मुसलमान मित्र हैं। उधर कुछ मुसलमान भी हैं जो राम का नाम देखकर ही भड़क जाते हैं जैसे आज मेरे जय श्री राम लिख देने से कुछ लोगों ने किया। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि हम पढ़ना-लिखना भूल गए हैं।
राम का नाम लेने वाले दो सबसे बड़े राम भक्त थे – तुलसीदास और कबीर। एक ने साकार और दूसरे ने निराकार राम की परिकल्पना की। तुलसीदास ने कई उर्दू शब्दों का प्रयोग किया और राम को ‘गरीब नवाज़” बताया – “गई बहोर ग़रीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥” कबीर जो जाति से जुलाहा थे वो तो राम में ही समा जाना चाहते थे – “हम नाहीं तुम नाहीं रे भाई राम रहै भरपूरा रे।” दोनो से ज़्यादा बड़ा कौन होगा राम का भक्त? और दोनो के राम धर्म के सतही परम्परा से कहीं ज़्यादा विशाल थे। पर दूसरे धर्मों में भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें राम की जय नहीं पसंद। मैं वजह समझती हूँ, जब राम के नाम पर लोग मेरे बारे में मर्यादाहीन बातें लिखते हैं तो मुझे भी थोड़ी देर के लिए राम पर बेहद ग़ुस्सा आया था। पर ये नासमझी है।
रावण भी एक बहरूपिया बन कर साधु का वेश धारण करके आया था तो क्या सभी साधु स्वभाव वाले लोगों से नफ़रत करना सही होगा? राम एक आदर्श आचार संहिता हैं जिनके गुणों को अपने आदर्श आचरण का हिस्सा बनाएँ। उन्हें अपने बनाए हुए आज कल के अधूरे ज्ञान के पिंजरे से मुक्त करें। उन्हें कबीर और तुलसीदास का राम रहने दीजिए। और राम का पवित्र और पाक नाम लेने से पहले खुद राम बनिए। साथ ही साथ बहरूपियों और राम के बीच में अंतर करने के लिए राम के विवेक को अपनाते हैं।
राम पर तो एक किताब लिखी जा सकती है, सैकड़ों लिखी भी गई हैं, पर इतना ही रहने देती हूँ, आगे फिर कभी। अंत में फिर राम की जय हो, क्योंकि राम पर ना तो किसी ख़ास दल का कॉपीरायट है, ना ही वो किसी की पैटर्नल प्रॉपर्टी हैं, और ना ही वोट के लिए देश के धार्मिक आस्थाओं को नकारना सही और उचित है। भारत जैसे विविधता के देश में सभी आस्थाओं को नीति-निर्माण में उचित तरीक़े के सम्मिलित करना ही देश को सामाजिक और आर्थिक तौर पर आगे ले कर जाएगा। वैसे भी राम की जय नहीं होगी तो क्या बहरूपये रावणों की जय करें? कब तक?
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