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ममता बनर्जी नंदीग्राम हार गई और भाजपा बंगाल हार गई क्या है इसके मायने? - श्रीनारद मीडिया

ममता बनर्जी नंदीग्राम हार गई और भाजपा बंगाल हार गई क्या है इसके मायने?

ममता बनर्जी नंदीग्राम हार गई और भाजपा बंगाल हार गई क्या है इसके मायने?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

विवाद ममता बनर्जी का दामन कभी नहीं छोड़ते। क्या किसी ने सोचा था कि वे बंगाल जीत लेंगी पर नंदीग्राम का चुनाव फंस जाएगा, जहां से खुद उन्होंने ताल ठोक रखी है? सियासी घमासान के बीच चुनाव आयोग ने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक परिणाम रोक रखा है। ममता दोबारा मतगणना पर अड़ी हुई हैं। उनका आरोप है कि चुनाव आयोग निष्पक्ष रुख़ नहीं अपना रहा और वे उसके विरुद्ध राष्ट्र्व्यापी आंदोलन छेड़ेंगी। इससे पहले कहा गया था कि वे अपने पुराने सहयोगी शुभेंदु अधिकारी से मामूली मतों से हार गयी  हैं ।

बेमिसाल ममता भले ही नई मिसाल रच रही हों पर इस समूचे विवाद के बावजूद राइटर्स बिल्डिंग’ के दरवाजे उनके लिए खुले रहेंगे। वे अपनी पार्टी की सुप्रीम नेता हैं और बंगाल का चुनाव उन्हीं के नाम पर लड़ा और जीता गया है।  उन्हें तीसरी बार शपथ लेने से अगर कोई रोक सकता है तो वे खुद ममता बनर्जी हैं और कोई नहीं ।
नंदीग्राम के फ़साने को भुला दें तो तय है कि भारतीय जनता पार्टी तमाम कोशिशों के बावजूद यह साबित करने में नाकाम रही कि उसके पास ममता बनर्जी की सियासी कदकाठी का कोई ऐसा सूरमा है, जो बंगाल के सत्ता-रथ को हांक सकता हो। इस मिथक को तोड़ने के लिए  भाजपा ने  क्या – क्या नहीं किया ? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आकर्षण के भरपूर उपयोग के साथ संगठन के समूचे संसाधन झोंके और जन- धन और सत्ताबल का भरपूर उपयोग किया । कैलाश विजयवर्गीय की अगुवाई में तृणमूल के तमाम तेजतर्रार नेता अपने पाले में कर लिए। तृणमूल ने इस दांव की काट में जाने वालों को मीर जाफ़र करार दे दिया । यह बंगाली स्वाभिमान सहलाने की समझदार कोशिश थी । बंगाल के लोग आज भी सिराजुद्दौला की हार को अपने आत्माभिमान से जोड़ते हैं। क्लाइव ने मीर जाफ़र के ज़रिए भारत की ग़ुलामी का रास्ता प्रशस्त किया था ।

इस दांव से दीदी को भले ही न हराया जा सका हो पर इसी का नतीजा है कि कांग्रेस और वाम मोर्चा पूरी तरह साफ हो गया। अब यह तय  हो गया है कि आगे की लड़ाइयां ममता बनाम मोदी ही होंगी। 2024 के चुनाव में यह नया समीकरण खासा गुल खिला सकता है।  यहां एक बात और ध्यान रखनी होगी। तृणमूल की जीत और भाजपा की हार में मतदाताओं के खास वर्ग, महिलाओं, ने बड़ी भूमिका अदा की। ‘दीदी’ की रूपश्री , कन्याश्री  ‘सरकार आपके द्वार’ जैसी योजनाएं बंगाली महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में मदद करती आई हैं। इसके अलावा बंगाली महिलाएं उनके जरिए खुद को सत्ता के आइने में प्रतिबिंबित पाती हैं।

नरेन्द्र मोदी का भी सबसे बड़ा वोट बैंक महिलाएं ही रही हैं।  बिहार का चुनाव याद करें। वहां की महिला मतदाताओं ने ही सत्तारूढ़ गठबंधन की नैया डूबने से बचाई थी। उन्हें लालू यादव का सत्ताकाल अभी भी डराता है। क्या भारतीय जनता पार्टी का अति आक्रामक अभियान बंगाल की महिलाओं को वैसे ही नागवार गुजरा जैसे राजग कार्यकर्ताओं का उत्साह वे नहीं पचा पाई थीं? वजह कोई भी हो पर इसमें कोई दो राय नहीं कि यहां अगर ममता बनर्जी की जगह कोई और होता, तो नतीजे भिन्न होते।

इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया है कि भारतीय जनता पार्टी के विजयरथ को रोकने की क्षमता अब कांग्रेस में नहीं रह बची है। असम में सीधी लड़ाई भाजपा और कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चों की थी। नतीजे सामने हैं। इसी तथ्य का दोहराव पुद्दुचेरी में हुआ। कल तक कांग्रेस वहां हुकूमत में थी। चुनाव से ऐन पहले भाजपा ने नेपथ्य से उसकी कुर्सी खींच ली और अब वह अगले पांच साल के लिए औंधे मुंह पड़ी रहने को अभिशप्त है पर कांग्रेस की दुर्दशा की असली गवाही तो केरल देता है।

दशकों से इस सर्वाधिक पढ़े-लिखे लोगों वाले प्रदेश में हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन का दस्तूर रहा है। कांग्रेस को इसके अलावा इस वजह से भी ज्यादा उम्मीद थी, क्योंकि राहुल गांधी यहीं के वायनाड से लोकसभा के सदस्य हैं और पार्टी के संगठन मंत्री केसी वेणुगोपाल भी केरल के वासी हैं। राहुल गांधी ने यहां पर्याप्त समय लगाया, नौजवानों के बीच घूमे और नये वोटरों को यह जताने की पूरी कोशिश की कि उम्र के 80वें पड़ाव की ओर तेजी से सरक रहे मुख्यमंत्री पी विजयन गुजरे जमाने के नेता हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इनमें से कोई दांव काम न आया और वाम मोर्चा ने पहले से अधिक सीटों के साथ दमदार वापसी की । वाम मोर्चा भले ही इस विजय पर अपनी पीठ थपथपाए पर यह सच है कि यह साम्यवादी विचारों से कहीं अधिक मुख्यमंत्री पिनराई विजयन की व्यक्तिगत जीत है। उन्होंने यह चुनाव सिद्धांतों के लिए सजग कामरेड की बजाय किसी क्षेत्रीय नेता की तरह लड़ा।

इसके साथ एक बात और स्पष्ट  है कि कांग्रेस को अब सत्ता में आने के लिए भारतीय जनता पार्टी के विरोधी सूबाई दलों के ‘जूनियर पार्टनर’ की भूमिका से संतोष करना पड़ सकता है। झारखंड और महाराष्ट्र के बाद तमिलनाडु के नतीजे इसकी मुनादी करते हैं। वहां वह डीएमके के साथ पिछले चुनाव के मुकाबले लगभग आधी सीटों पर लड़ी क्योंकि स्टॉलिन बिहार जैसा जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। तय है कि इसका असर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति पर पड़ने जा रहा है। पहले से असंतोष की आवाज बुलंद कर रहे ‘जी-23’ को मुखरित होने का मौका मिल गया है। हो सकता है, उनका कोरस आने वाले दिनों में और जोर पकड़े। एक तरफ भाजपा जहां नई जमीन तैयार कर रही है, वहां कांग्रेस का इस तरह बिखरना राष्ट्रीय राजनीति के नये दिशा संकेतों का दीदार कराता है।

कांग्रेस का जो हो सो हो पर तय मानिए। आने वाले दिनों में केन्द्र और विपक्ष द्वारा संचालित राज्यों के बीच तू-तू, मैं-मैं और तेज होगी। कोरोना का प्रसार इस प्रवृत्ति को बल प्रदान करेगा। दिल्ली और महाराष्ट्र जैसी तकरार अगर कल बंगाल से भी मुखरित होने लगे, तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि विचार-विहीन चुनाव अभियान ने इस प्रदेश को कोरोना के क्रूर पंजों में धकेल दिया है। ममता बनर्जी की पहली परीक्षा भी यह महामारी ही लेने जा रही है।

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