असम में भाजपा की वापसी क्यों हुई?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
पांच राज्यों के चुनाव के दौरान सबसे ज्यादा जिस चीज की चर्चा हुई, वह थी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण. भाजपा ने सभी राज्यों में अपना अभियान इसी के इर्द-गिर्द चलाया. चूंकि केरल और तमिलनाडु में उसके लिए बहुत उम्मीदें नहीं थीं, इसलिए वहां यह कम दिखा, मगर असम और बंगाल में उसने इसे ही आधार बनाया. असम में यह रणनीति पूरी तरह से कामयाब होती दिख रही है.
चुनाव नतीजे बताते है कि ऊपरी असम में तो यह ध्रुवीकरण हुआ ही है, निचले और मध्य असम में जहां भी मुस्लिम मतदाताओं की संख्या निर्णायक नहीं है, भाजपा और उसकी सहयोगी असम गण परिषद तथा यूपीपीएल-लिबरल को इसका लाभ मिला है.
ऊपरी असम हिंदू बहुल क्षेत्र है और यहीं नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन चला था. यह एक बड़ा सवाल था कि क्या भाजपा यहां पिछली बार की तरह अच्छा प्रदर्शन कर पायेगी. हालांकि कोरोना महामारी की वज़ह से एक साल में आक्रोश कमजोर पड़ गया था, मगर खतरा तो फिर भी था. खास तौर पर कांग्रेस ने जिस तरह से घोषणा कर दी थी कि वह सीएए लागू नहीं होने देगी, उसके बाद अगर असमिया मतदाता उसके पास खिसक जाते, तो भाजपा को भारी नुकसान हो सकता था.
कांग्रेस ने इसीलिए अपने चुनावी अभियान का केंद्र भी ऊपरी असम को बनाया था. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल दो-ढाई सौ लोगों के साथ वहां डेरा डालकर पार्टी की मदद करते रहे. इसके बावजूद नतीजे बताते हैं कि भाजपा हिंदुत्व के बल पर उसे संभालने में कामयाब रही. उसने बदरुद्दीन अजमल का इतना बड़ा हौवा खड़ा किया और कांग्रेस को उससे जोड़ दिया कि हिंदू असमिया मतदाता उससे छिटका नहीं.
भाजपा को इस चीज का भी लाभ मिला कि सीएए के सवाल पर बने दो नये राजनीतिक दल असम जातीय परिषद और राइजोर दल ने कांग्रेस को मिलनेवाले वोट उसे नहीं मिलने दिये. इसी तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल बोडो इलाकों में भी हुआ. बोडो पीपुल्स फ्रंट यहां की मजबूत पार्टी थी. पिछली बार उसने यहां की सभी 12 सीटें जीत ली थीं. माना जा रहा था कि एआइडीयूएफ के साथ आने से उसकी जीत और पक्की हो गयी है, क्योंकि बोडो इलाकों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या अच्छी-खासी है.
मगर हुआ उलटा. बदरुद्दीन की पार्टी से हाथ मिलाने से हिंदुओं और बोडो मतदाताओं का ध्रुवीकरण भाजपा और यूपीपीएल-लिबरल की तरफ हो गया और एक तरह से दोनों ने मिलकर झाड़ू फेर दिया. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ असमिया मतदाताओं की मदद से असम गण परिषद भी अपना वजूद बचाने में कामयाब हो गयी है. माना जा रहा था कि वह पांच-सात सीटों में ही सिमट जायेगी, मगर उसने दहाई का आंकड़ा पार कर लिया.
भाजपा की अपने दम पर बहुमत हासिल करने की हसरत पूरी नहीं हुई, बल्कि पिछली बार के मुकाबले सीटें और कम ही हुई हैं, इसलिए वह असम गण परिषद पर निर्भर रहेगी. यूपीपीएल की सीटें उसे बहुमत के करीब भर ले जा सकती हैं और उसके बल पर वह स्थिर सरकार नहीं बना सकती है. दरअसल, बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआइयूडीएफ के साथ कांग्रेस के गठबंधन को बीजेपी ने हिंदू-असमिया विरोधी प्रचारित किया, जिससे हिंदुत्व के नाम पर तो ध्रुवीकरण हुआ ही, असमिया-बंगाली के नाम पर भी मतदाता बंट गये.
कांग्रेस के गठबंधन को बहुत शक्तिशाली माना जा रहा था, लेकिन हिंदू-मुस्लिम की राजनीति ने उसे कमजोर कर दिया. ऊपरी असम में भाजपा के खिलाफ जो माहौल बना था, उसका फायदा भी कांग्रेस को नहीं मिल सका, क्योंकि असमिया के नाम पर दो और पार्टियां मैदान में आ गयीं.
जहां तक बंगाल का सवाल है, तो ऐसा लगता है कि वहां सांप्रदायिक से ज्यादा राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ है. तृणमूल कांग्रेस से नाराज मतदाता संयुक्त मोर्चा के बजाय भाजपा के साथ चले गये हैं. मुस्लिम ध्रुवीकरण के जवाब में भाजपा ने जैसे हिंदू ध्रुवीकरण की उम्मीद की थी, वैसा भी नहीं हुआ. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भाजपा का सांप्रदायिक चुनाव प्रचार बेकार गया होगा.
अगर उसने सीटों के मामले में लंबी छलांग लगायी है, तो जाहिर है कि बहुत सारी सीटें ऐसी भी होंगी, जहां उसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ मिला होगा, खास तौर पर सीमांत क्षेत्रों में. यह जरूर संभव है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की धार को शायद महिलाओं के ममता प्रेम और अल्पसंख्यकों के उन पर भरोसे ने कमजोर कर दिया, वरना यह लहर थोड़ा और मजबूत होती.
एक महत्वपूर्ण बात इस चुनाव की यह रही है कि इसने साबित कर दिया कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता एक भ्रम है, मिथ है, जिसे मीडिया ने गढ़ा है और लोगों के दिमाग में बैठाने की कोशिश करता रहता है. पश्चिम बंगाल जीतने के लिए उन्होंने देश की प्राथमिकताओं को दरकिनार कर सारे साधन-संसाधन झोंक दिया था.
प्रधानमंत्री पद की गरिमा और मर्यादा तक को दांव पर लगा दिया था, मगर उन्हें चोटिल ममता बनर्जी ने धराशायी कर दिया. वैसे भी राज्यों के स्तर पर मोदी का जादू चल नहीं रहा, यह बात बार-बार सिद्ध हो चुकी है. असम और बंगाल के पहले ऐसे दस-ग्यारह राज्य हैं, जहां मोदी के जबर्दस्त प्रचार के बावजूद भाजपा हारी या हारते-हारते बची.
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