“आपना खेत आपना दाना , पेट काटकर नहीं देंगे खजाना”~चानकु महतो
पुण्यतिथि पर विशेष
श्रीनारद मीडिया -आलेख :- Gunjan इस्लामपुर, नालंदा
चानकु महतो का जन्म 9 फरवरी 1816 ई. को कुड़मी कृषक परिवार में गोड्डा के रंगमटिया गाँव में हुआ था। वे अपने पिता कारु महतो एवं माता बड़की महतो के दो पुत्रों में सबसे बड़े थे। लोक कथानुसार वे जिद्दी व न्यायप्रिय इंसान थे और जो काम ठान लेते तो पूरा करके ही छोड़ते थे। न्यायप्रिय विचार के होने के कारण इन्हें रंगमटिया गाँव का परगनैत बनाया गया। उस समय किसानों पर अंग्रेज तरह-तरह के जुल्म बरसाते थे, जो चानकु महतो को स्वीकार्य नहीं था। परगनैत होने के कारण इनके ऊपर खजाना या मालगुजारी के रुप में भूमि कर वृद्धि का लगातार बोझ बढ़ता जा रहा था और कर न दे पाने की स्थिति में संथाल परगना के बाहर से नये रैयतों को जमीन छीन कर दे देना आम बात हो गई थी। आदिवासियों के स्वशासन व्यवस्था को भी आहत किया जा रहा था। ब्रिटिश अधिकारियों, ठीकेदार एवं उनके सागिर्दों द्वारा महिलाओं, बुजुर्गों के साथ अमानवीय बर्ताव से काफी आक्रोश एवं असंतोष फैलता जा रहा था। पूरा जन मानस किसी न किसी रुप में दमनकारी व्यवस्था से मुक्ति चाह रहा थे।
अंग्रेजो के अत्याचार से त्रस्त लोगों को चानकु महतो संगठित करना शुरु कर दिए। इसी दौरान राजमहल के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय लोगो को संगठित कर रहे सिद्धू और कान्हु से संपर्क कर एक सुनियोजित विद्रोह की योजना बनाई, जिसे देश “संथाल विद्रोह” के नाम से जाना।
एक स्थानीय साहुकार वहाँ के आदिवासी बैजल सोरेन के पिता को वसुली को लेकर तंग कर रहा था। बैजल सोरेन ने अपनी पीड़ा चानकु महतो को बताई, और बैजल सोरेन और चानकु महतो ने मिलकर उक्त महाजन की गर्दन काट दी। बैजल सोरेन पकड़ा गया और आजीवन कारावास की सजा मिली। पर चानकु महतो को पकड़ना अंग्रेज पुलिस के लिए आसान नहीं था। अंग्रेज पुलिस ने चानकु महतो को बागी घोषित कर दिया।
चानकु महताे ने अपने नेतृत्व में 1855 में गाेड्डा के साेनारचक में एक बड़ी सभा आयोजित किये थे। उस सभा में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ हजारों की संख्या में कुड़मी, खेतोरी, भुइयां, घटवाल, संथाल आदि जनजाति एवं स्थानीय अन्य समुदाय के लोग तीर-धनुष, भाला, लाठी, डंडा, फरसा आदि हथियार के साथ एकजुट होकर आए थे। इसमें खेताेरी जाति के नेता राजवीर सिंह समेत कई प्रमुख लोग शामिल हुए थे। साहूकार के हत्या करके चानकु महतो तब फरार चल रहे थे लेकिन सभा में उपस्थित हुए थे। जिसका फायदा उठाकर गाेड्डा के नायब ‘प्रताप नारायण’ ने इसकी सूचना अंग्रेज अधिकारियों को दे दी।
अंग्रेज अधिकारियों ने सेना, घुड़सवार और नायब सिपाहियों के साथ सभास्थल को घेर लिया। इसके बाद ब्रिटिश सैनिकों ने सभा में मौजूद लोगों पर गाेली चलानी शुरू कर दी। वहां मौजूद आंदोलनकारियों ने भी ब्रिटिश सैनिकों पर तीर बरसाने लगे। इसमें दाेनाें तरफ से कई लाेग मारे गये। आंदाेलनकारियाें ने नायब प्रताप नारायण पर चढ़ाई कर दी, जिसमें वह मारा गया। सैकड़ों जानें गई, कई अंग्रेज सिपाही को भी जान से हाथ धोना पड़ा। राजवीर सिंह भी अंग्रेज सिपाही के द्वारा मारे गये।
अंग्रेज पुलिस भारी पड़ रही थी, लेकिन षड्यंत्रकारी मारा जा चुका था। चानकु महतो भी घायल हो चुके थे, जिसके चलते वे खुद सभास्थल से निकल जाने में ही भलाई समझे; पर वे सोनारचक से दो किलोमीटर दुर बाड़ीडिह नामक गाँव से घायल अवस्था में गिरफ्तार कर लिए गए। पूरे क्षेत्र में मिलिट्री शासन लगा दिया गया। सभी प्रमुख विद्रोहियों को चुन-चुन कर गिरफ्तार किया जाने लगा और एक-एक कर विद्रोहियों को उनके घर के ही इर्द गिर्द फांसी पर लटकाने का दौर शुरू हुआ। अंग्रेजी हुकूमत ने इसी क्रम में सन् 15 मई1856 ई. को गोड्डा (जिसे उस समय एजेंटी नाम से जाना जाता था) के राजकचहरी के बगल में कझिया नदी के निकट पेड़ से लटकाकर चानकु महतो को फांसी दे दिया!
नमन् है ऐसे वीर बलिदानी को…
15 मई 1856 का ये दिन भारतीय इतिहास में एक “काला दिन” के रूप मे दर्ज होनी चाहिए थी, पर नहीं हो सकी; बल्कि यूँ कहिए नहीं की गयी। ऐसा संयोगवश नहीं हुआ होगा, बल्कि ऐसा जानबुझकर एक साजिश के तहत किया गया होगा!
संथाल विद्रोह के नायक चानकु महतो के शाहदात और कारनामों का उल्लेख सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है; भारत सरकार के एंथ्रोपॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के द्वारा प्रकाशित दस्तावेज पीपुल्स ऑफ इंडिया में भी इस बात का प्रमाण मिलता है। लेकिन भारत के स्वघोषित इतिहासकारों ने भारत माता के इस विर सपुत के नाम का उल्लेख इतिहास की किताबों में करना जरूरी नहीं समझा!
आखिर क्यों?..
क्या ऐसा सिर्फ इसलिए किया गया क्योंकि विर चानकु महतो का जन्म एक साधारण गरीब कृषक कुड़मी(कुर्मी) परिवार में हुआ?
अगर यही चानकु महतो तथाकथित ऊँची जाति में पैदा हुए होते और ऐसे कारनामें किए रहते तो आज वे राष्ट्रीय हीरो होते! हर चौक-चौराहों पर उनकी मुर्तियाँ लगी होती! इतिहास की किताबें उनके कारनामों के यशोगान से भरी पड़ी होती!
आखिर निःस्वार्थ भाव से देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले अमर बलिदानियों की वीरगाथा को अपने लेखनी से वे कैसे उकेर पाते जिनके बाप-दादा ने अंग्रेजो के तलवे चाटने में अपनी जिन्दगी बिताई हो! अंग्रेजों और मुगलों की दलाली करने वालों की इतिहासकार संताने निश्वार्थ भाव से देश के लिए अपने प्राणों की आहुति चढ़ा डालने वालो वीरों की यशोगान करने से उत्पन्न होने वाली हिनभावना ने उनकी लेखनी को जकड़ जो रखी रखी थी!
एक बार फिर से नमन् है ऐसे वीर बलिदानी को…
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