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क्या किसान नेता मुद्दे का हल ही नहीं चाहते है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

नये कृषि कानून के विरोध में आंदोलन कर रहे किसान नेताओं का, मोदी सरकार के सख्त रवैये के कारण दम फूलने लगा है। वहीं धरना स्थल पर किसानों की लगतार कम होती संख्या ने आंदोलनकारी किसानों की नींद उड़ा रखी है। एक समय था जब मोदी सरकार किसानों से बातचीत के जरिये समस्या सुलझाने के लिए बुलावे पर बुलावा भेज रही थी, तब तो किसान नेता अड़ियल रवैया अपनाए हुए थे और अब जबकि आंदोलनकारी किसान नेता चाहते हैं कि केन्द्र सरकार उन्हें वार्ता के लिए बुलाए तो सरकार बातचीत के मूड में नजर नहीं आ रही है। ऐसा क्यों हो रहा है। यह बात आम मानुष भले नहीं समझ पाए, लेकिन संभवतः सरकार को इस बात का अहसास हो गया है कि आंदोलनकारी किसान समस्या का समाधान करना ही नहीं चाहते हैं, इसीलिए किसान नेताओं द्वारा सरकार से बातचीत के लिए कोई नया प्रस्ताव भी नहीं भेजा गया है। मतलब साफ है कि अभी भी किसान नेता नये कृषि कानून की पूरी तरह से वापसी से कम पर सहमत नहीं हैं और सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह नया कृषि कानून किसी भी हालत में वापस नहीं लेगी।

दरअसल, आंदोलनकारी सरकार के पास बातचीत का प्रस्ताव भेजकर सिर्फ अपने आंदोलन को जिंदा रखने और इसे टूट से बचाने की कोशिश में लगे हैं। क्योंकि तमाम किसान अपने नेताओं से पूछ भी रहे हैं कि यदि सरकार से बातचीत नहीं होगी तो रास्ता कैसे निकलेगा। कब तक आंदोलन को खींचा जा सकता है। कोरोना महामारी के समय आंदोलन को जारी रखने पर भी किसान नेता बंटे हुए हैं। खासकर कोरोना को लेकर भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत जिस तरह की बेसिर-पैर की बातें कर रहे हैं, उससे किसानों में कुछ ज्यादा ही गुस्सा है।

कई किसान नेता तो खुलकर कह रहे हैं कि यह किसान नहीं सियासी आंदोलन बन गया है। किसान आंदोलन को लेकर मोदी सरकार की सोच की बात की जाए तो ऐसा लगता है कि सरकार नये कृषि कानून के माध्यम से बिना बिचैलियों के किसानों से अधिक से अधिक गेहूं-चावल खरीद कर किसानों के बीच यह संदेश पहुंचाना चाहती है कि दरअसल, कथित किसान आंदोलन, किसानों का नहीं बिचौलियों का आंदोलन है। नये कृषि कानून से इन बिचौलियों को ही नुकसान हो रहा है, जबकि किसान फायदे मे हैं। किसान फायदे में हैं, यह बात साबित करने के लिए सरकार द्वारा अनाज की खुल कर खरीद की जा रही है। पंजाब जहां किसान आंदोलन सबसे अधिक उग्र हुआ था, वहां अबकी से सरकारी गेहूं-चावल की रिकॉर्ड खरीददारी हुई है, जिससे किसान गद्गद हैं। बिचौलियों को दरकिनार कर किसान के खाते में सीधे पैसा आ रहा है, जिस वजह से पंजाब में आंदोलन की धार कुंद पड़ती जा रही है। उत्तर प्रदेश में भी यही हाल है। यहां भी सरकारी गेहूं-चावल की खरीद में योगी सरकार पूरी ताकत लगाए हुए है। इसी वजह से गाजीपुर बॉर्डर पर बैठे किसान नेताओं के तंबू उखड़ने लगे हैं।

उधर, मोदी सरकार का किसानों को फायदा पहुंचाने के किए जा रहे प्रयासों और योजनाओं का किसानों के बीच धीरे-धीरे असर दिखने लगा है। यही सब जानते-समझते हुए आंदोलनकारी हड़बड़ाए हुए हैं। इसीलिए नये कृषि कानूनों के खिलाफ सड़कों पर उतरे किसान नेता अब अपने आंदोलन की वापसी के लिए नई राह तलाशने में जुट गए हैं। भले ही किसान नेताओं ने केंद्र सरकार से नए सिरे से बातचीत शुरू करने की चिट्ठी लिखी हो, लेकिन लगता नहीं कि ऐसा हो पाएगा, क्योंकि बातचीत की पेशकश करने वाले किसान नेताओं ने यह स्पष्ट नहीं किया कि वे सरकार के उस प्रस्ताव पर सहमत हैं या नहीं, जो 11 दौर की बातचीत टूटने के बाद केंद्र ने उनके समक्ष रखे थे। यह बातचीत टूटी ही इसलिए थी, क्योंकि केंद्र की तमाम नरमी के बाद भी किसान नेता हठ पर अड़े थे। वे न केवल केंद्र सरकार को आदेश देने की मुद्रा अपनाए हुए थे, बल्कि तीनों कृषि कानूनों की वापसी से कम कुछ मंजूर करने को भी तैयार नहीं थे।

इतना ही नहीं नया कृषि कानून वापस लेने की मांग को लेकर आंदोलनरत किसान नेताओं ने मोदी सरकार को सियासी मोर्चे पर पटखनी देने के लिए विपक्षी दलों के नेताओं से भी गलबहियां शुरू कर दी थीं, जिसकी वजह से भी आंदोलन भटक गया था। आंदोलन के नाम पर हिंसा की गई। बीजेपी को हराने के लिए चुनावी राज्यों मे किसान आंदोलन के नेता पहुंच गए। इसी वजह से लगने लगा था कि किसान नेताओं का मकसद किसानों की समस्याओं का समाधान कराना नहीं, बल्कि केंद्र सरकार को झुकाना है। इसी वजह से आम किसानों ने आंदोलन से दूरी बना ली।

सबसे दुख की बात यह है किसान नेता कोरोना महामारी की भी खिल्ली उड़ा रहे हैं। कभी कहते हैं टीका नहीं लगवायेंगे, तो कभी कहते हैं आधे टीके धरना स्थल पर ड्यूटी दे रहे पुलिस वालों को लगाये जाएं ताकि हमें विश्वास हो जाए कि सरकार हमारे साथ कुछ गलत नहीं कर रही है। किसान नेताओं की जिद के अलावा और कुछ नहीं कि वे कोरोना संक्रमण के भीषण खतरे के बाद भी धरना देने में लगे हुए हैं। इस धरने को तत्काल प्रभाव से खत्म करने की जरूरत है। यह एक खौफनाक तथ्य है कि किसान संगठनों के जमावड़े के कारण ही पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ ग्रामीण इलाकों में कोरोना का संक्रमण फैला है।

समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों हमारी अदालतें, किसान संगठनों की हिमायत करने वाले समाजसेवी संगठन और राजनीतिक दल किसान नेताओं पर इसके लिए दबाव क्यों बनाते कि वे अपना धरना खत्म करें? जिन लोगों का कुंभ की भीड़ से कोरोना फैलता दिखता है, उन्हें किसान आंदोलन स्थल पर जुटी भीड़ से कोरोना महमामारी फैलने का खतरा क्यों नहीं दिखता है। सवाल यह भी है कि नये कृषि कानूनों पर विशेषज्ञ समिति की समीक्षा रपट पर सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला क्यों नहीं सुना रहा है ताकि ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ हो जाए। एक तरफ तो सुप्रीम कोर्ट कोरोना संकट से जुड़ी समस्याओं का स्वतः संज्ञान लेकर मोदी सरकार को खरी-खोटी सुना रहा है, वहीं संक्रमण फैलने का कारण बने किसान आंदोलन पर ध्यान देने की उसे जरूरत नहीं महसूस हो रही है।

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