प्रभाकरन के LTTE तीन दशकों तक श्रीलंका के लिए कैसे बना रहा चुनौती?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

श्रीलंका में तमिलों के साथ कथित भेदभाव और नस्लीय सफाए के बीच स्थापित अलगाववादी संगठन एलटीटीई यानी लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम करीब तीन दशकों तक अपने आतंक और दहशत से श्रीलंका को दहलाता रहा। अपनी अलग राज्य की मांग को पूरा करने के लिए इस संगठन ने न केवल सबसे पहले आत्मघाती दस्ते की शुरुआत की बल्कि हजारों निर्दोष लोगों के साथ कई राजनीतिक हस्तियों को भी मौत के घाट उतार दिया। एक दौर में लिट्टे का उत्तरी श्रीलंका पर पूरा नियंत्रण था और वहां उसकी समांनतर सरकार चलती थी।

हालांकि श्रीलंका सरकार और सेना ने साल 2009 में लिट्टे के मुखिया वेणुपिल्लई प्रभाकरन समेत लिट्टे का श्रीलंका से सफाया कर दिया। लेकिन लिट्टे समर्थक और अलग ईलम राज्य को चाहने वाले अभी भी दुनियाभर में फैले हुए हैं, जो आज भी लिट्टे समर्थकों की मदद करते हैं। वेलुपिल्लई प्रभाकरन वेल्वेत्तिथूरै के उत्तरी तट पर 26 नवम्बर 1954 को, थिरुवेंकदम वेलुपिल्लई और वल्लिपुरम पार्वती के यहां पैदा हुए। वो अपने माता-पिता और चार बच्चों में सबसे छोटे थे। श्रीलंकाई सरकार द्वारा दिखाये गए तमिल लोगों के प्रति भेदभाव को देख, नाराज़ हो कर, वह छात्र संगठन टीआईपी में मानकीकरण बहस के दौरान शामिल हो गए।

1972 में प्रभाकरन ने तमिल न्यू टाइगर्स की स्थापना की, जो अनेक संगठनों के उत्तराधिकारी के रूप में सामने आया, जो देश में औपनिवेशिक राजनीतिक दिशा के खिलाफ जाने वालों का विरोध करता था, इनमें श्री लंकाई तमिलों को सिंहली लोगों से नीचा दिखाया जाता था। वर्ष 1975 में, तमिल आंदोलन में गंभीर रूप से शामिल होने के बाद वह एक तमिल आतंकवादी समूह द्वारा, एक ह्त्या में शरीक हुए, जाफना के मेयर, अल्फ्रेड दुरैअप्पा की उस समय गोली मार कर ह्त्या कर दी गई जब वे पोंनालाई में एक हिंदू मंदिर में प्रवेश करने वाले थे। 1976 में प्रभाकरन ने लिट्टे की स्थापना की जो सशस्त्र संगठन था। इस संगठन ने 1983 में जाफना के बाहर श्रीलंकाई सेना के एक गश्ती दल पर घात लगाकर हमला किया जिसमें 13 सैनिकों की मौत हो गई।

इस हमले के बाद श्रीलंका में भीषण नरसंहार हुआ जिसके परिणामस्वरूप हजारों तमिल नागरिकों की मौत हुई। यहीं से श्रीलंका में गृहयुद्ध की शुरुआत हो गई।  लिट्टे, जिसे तमिल टाइगर्स के रूप में भी जाना जाता था उसने प्रभाकरन के नेतृत्व में उत्तरी श्रीलंका में बड़े हिस्से को नियंत्रित कर लिया. इतना ही नहीं पूर्वी श्रीलंका में प्रभाकरन सरकार के खिलाफ अपना स्वतंत्र राज्य चलाने लगे. श्रीलंकाई सेना ने वार्ता असफल होने के बाद 2006 में लिट्टे को हराने के लिए एक सैन्य अभियान शुरू किया।

हर वक्त काले धागे से टंगा रहता साइनाइड कैप्सूल 

प्रभाकरन का आदेश था कि लिट्टे का हर लड़ाका अपने गले में साइनाइड कैप्सूल पहनकर चले और पकड़े जाने की स्थिति में उसे खाकर अपनी जान दे दे। प्रभाकरन के गर्दन में भी काले धागे से एक साइनाइड कैप्सूल टंगा रहता था, जिसे वो अक्सर अपनी कमीज की जेब में एक आईडी कार्ड की तरह डाल देते थे। इसके अलावा प्रभाकरन को खाना पकाने का भी शौक था और प्रिय भोजन चिकर करी था।

काले पैर वाला व्यक्ति

साल 1972 में जब वो एक पेड़ के नीचे कुछ लोगों को बम बनाते देख रहा था तो एक बम में विस्फोट हो गया था और प्रभाकरन बाल-बाल बच गया था। इस दुर्घटना में उसका दांया पैर जलकर काला पड़ गया था। तभी से उनका नाम ‘करिकलन’ पड़ गया था जिसका अर्थ होता है काले पैर वाला व्यक्ति। चॉकलेट और केकड़ों को उबाल कर खाने के शौकीन प्रभाकरन ने अपने अनुयायियों के सिगरेट और शराब पीने और यौन संबंध स्थापित करने पर पाबंदी लगा दी थी। उसके निजाम में एलटीटीई सैनिकों को प्रेम संबंध बनाने की मनाही थी। गद्दारी की सिर्फ एक ही सजा थी, मौत। उन्होंने अपने दो पुरुष और महिला अंगरक्षकों को सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतारने का आदेश दिया था क्योंकि उन्होंने संबंध बनाने की जुर्रत की थी। दिलचस्प बात ये है कि जब अपने ऊपर बात आई तो प्रभाकरन ने ये नियम तोड़ा और मतिवत्थनी इराम्बू से विवाह किया।

गृहयुद्ध की गंभीरता

वर्ष 1985- सरकार और तमिल विद्रोहियों के बीच शांति वार्ता की पहली कोशिश नाकाम हो गई।

वर्ष 1987- सरकारी सेनाओं ने उत्तरी शहर जाफना में तमिल विद्रोहियों को और पीछे हटा दिया। सरकार ने एक ऐसे समझौते पर दस्तखत किए जिनके तहत तमिल बाहुल्य इलाकों में नई परिषदों का गठन किया जाना था। भारत के साथ भी समझौता हुआ जिसके तहत वहां भारत की शांति सेना की तैनाती हुई।

वर्ष 1988 – वामपंथी धड़े और सिंहलों की राष्ट्रवादी पार्टी, जनता विमुक्ति पैरामुना (जेवीपी) ने भारत-श्रीलंका समझौते के खिलाफ अभियान शुरू किया।

वर्ष 1990- उत्तरी क्षेत्र में काफी लड़ाई को देखते हुए भारतीय सेना ने देश छोड़ दिया। श्रीलंका की सेना और पृथकतावादी तमिल विद्रोहियों के बीच हिंसा और बढ़ गई।

ऐसे हुई मौत 

वर्ष 2008 – श्रीलंका सरकार ने 2002 के शांति समझौते को बेमानी बताते हुए इससे अपने हाथ खींच लिए। जुलाई में सरकार ने दावा किया कि उन्होंने तमिल विद्रोहियों के देश के उत्तर में स्थित नौसेना बेस पर कब्जा कर लिया है। इसी वर्ष अक्टूबर में हुए आत्मघाती हमलों में एक पूर्व जनरल समेत 27 लोग मारे गए। इसका भी आरोप एलटीटीई पर लगा। यहां से खुली लड़ाई की बात शुरू हो गई।

श्रीलंका की सेना और एलटीटीई की ओर से एक दूसरे के लोगों को मारने की दावेदारियां शुरू हो गईं। साल 2009 के जनवरी में 10 वर्षों से एलटीटीई के कब्जे में रहे किलिनोच्चि शहर पर अपना कब्जा कर लिया। यह शहर एलटीटीई का प्रशासनिक मुख्यालय था। राष्ट्रपति ने तमिल विर्दोहियों से समर्पण करने को कहा। अप्रैल और मई में सेना का अभियान अपने चरम पर पहुंच गया। एलटीटीई का दायरा लगातार घटता गया। एक छोटे से इलाके में सिमटे तमिल विद्रोहियों के बीच फंसे हजारों लोगों को सुरक्षित बाहर निकालने का मुद्दा उठता रहा। हजारों लोग खुद युद्ध क्षेत्र में भागकर बाहर आए।

सैकड़ों मारे गए। अपनी अंतिम लड़ाई में प्रभाकरन मोलाएतुवू क्षेत्र में तीन तरफ़ से घिर गया और चौथी तरफ़ समुद्र था जहां श्रीलंका की सेना ने अपना जाल बिछा रखा था। श्रीलंकाई सेना रेडियो पर उनकी बातचीत सुन रही थी, इसलिए उन्हें प्रभाकरन की लोकेशन का अंदाज़ा था। 21 मई 2009 को लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई या लिट्टे) के संस्थापक वेलुपिल्लई प्रभाकरण को श्रीलंका की सेना ने मौत के घाट उतार दिया था। इसी के साथ श्रीलंका का जाफना क्षेत्र लिट्टे के आतंक से आजाद हो गया था। प्रभाकरण के मार जाने के बाद लिट्टे ने हार मानते हुए अपनी बंदूकें शांत करने की घोषणा की थी। एक गोली उनके माथे को चीरती चली गई थी,

जिसने उनके कपाल को क्षतविक्षत कर दिया था. इसके अलावा उनके शरीर पर चोट का एक भी निशान नहीं था। प्रभाकरन की मौत के बाद श्रीलंका के राष्ट्रपति राजपक्षे ने संसद में ऐलान किया था, “आज से श्रीलंका में कोई अल्पसंख्यक नहीं होगा. अब से यहां सिर्फ़ दो किस्म के लोग होंगे, एक जो अपने देश को प्यार करते है और दूसरे वो जिन्हें उस धरती से कोई प्यार नहीं है, जहां उनका जन्म हुआ है।”

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