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कोरोना के बाद देश में मानसिक रोगों से पीड़ितों की संख्या क्यों बढ़ी?

कोरोना के बाद देश में मानसिक रोगों से पीड़ितों की संख्या क्यों बढ़ी?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कोविड महामारी सारी दुनिया के लिए एक ऐसी चुनौती बनकर उभरी, जिसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी। आरंभ में कोरोना के यकायक फैलाव ने सभी को बदहवास कर दिया था। कोई समझ ही नहीं पाया कि इसका मुकाबला कैसे किया जाए, पर शीघ्र ही इसके कारण और निवारण के मार्गों को खोज निकाला गया। लिहाजा आज शनै: शनै: महामारी ढलान की ओर है, फिर भी दुनिया का एक बड़ा वर्ग कोरोना की नई लहर के आने की आशंका से डरा हुआ है। कोरोना से मुकाबला करना इसलिए संभव हो सका, क्योंकि निर्विवादित रूप से इसे बीमारी माना गया, परंतु उस महामारी का क्या जिससे विश्व के अधिकांश लोग परिचित ही नहीं हैं और जो परिचित भी हैं वे इसके अस्तित्व को ही नकार देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन जिस महामारी से समय-समय पर दुनिया को आगाह करता आया है वह है अवसाद।

अवसाद नकारात्मक विचारों और कृत्यों को उत्पन्न करता है

अमेरिकन साइकेट्रिक एसोसिएशन के अनुसार, ‘अवसाद एक सामान्य, किंतु गंभीर मनोविकार है, जो हमारे भीतर नकारात्मक विचारों और कृत्यों को उत्पन्न करता है।’ कोरोना की चपेट में आने से पूर्व दुनिया भर में 26 करोड़ से ज्यादा लोग अवसाद से पीड़ित थे। इसके चलते विश्व अर्थव्यवस्था को लगभग एक ट्रिलियन (लाख करोड़) डॉलर का नुकसान हो रहा था। यह सहज कल्पनीय है कि जब कोविड महामारी से पूर्व यह स्थिति थी तो अब कैसे हालात होंगे?

ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा जैसे देशों में अवसादग्रस्त लोगों की मदद करने वाली सर्विस क्राइसिस टेक्स्ट लाइन पर 80 प्रतिशत टेक्स्ट (संदेश) कोरोना संबंधी बैचेनी और घबराहट से जुड़े हुए थे। आशंका है कि अगर उन्हें समय रहते सही परामर्श और इलाज नहीं मिला तो ये परेशानियां अवसाद का रूप ले सकती हैं। अगर भारत की बात की जाए तो देश में मनोचिकित्सकों के सबसे बड़े संगठन इंडियन साइकेट्रिक सोसायटी के सर्वेक्षण के मुताबिक कोरोना आने के बाद से देश में मानसिक रोगों से पीड़ित मरीजों की संख्या में 15 से 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

भारत में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों को लेकर जागरूकता की कमी

यह विभिन्न शोधों से प्रमाणित हो चुका है कि संक्रामक रोगों का सभी पर एक गहरा मानसिक प्रभाव पड़ता है-उन पर भी जो वायरस से प्रभावित नहीं हैं। इसमें अवसाद, तनाव और मनोविकृति शामिल हैं। चिंता की बात यह है कि पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों के उलट भारत में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों को लेकर जागरूकता और चेतावनी की व्यवस्थाओं में कमी है। देश में पागलपन और अवसाद के बीच लकीर नहीं खींची गई है, जिसके चलते लोग मानसिक परेशानियों के लिए पेशेवर मदद हासिल करने से बचते हैं, क्योंकि उनको समाज से अलग-थलग होने की चिंता होती है।

यही कारण है कि भारत के लिए इस बीमारी से लड़ाई एक बहुत बड़ी चुनौती है। इसी सत्यता को स्वीकारते हुए अप्रैल 2017 में लोकसभा में मानसिक स्वास्थ्य संरक्षण कानून पारित किया गया था। इसका उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों को लेकर उत्पन्न भ्रांतियों को खत्म करना था, जिसके संबंध में 1987 में बना मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कानून नाकाम रहा था।

डिक्सन का ‘ग्रैंडमदर्स क्लब’ अवसाद की चुनौती से निपटने में बहुत कारगर साबित हुआ

मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों से जूझ रहे लोगों को अस्पताल में भर्ती किए जाने पर जोर दिया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ऐसे विकल्पों को ढूंढने का निरंतर प्रयास कर रहा है जिन्हें बिना किसी दबाव के उपलब्ध कराया जाए। हमें ऐसे तरीके विकसित और मजबूत करने होंगे, जो अहिंसक, सदमे के प्रति जागरूक, सामुदायिक नेतृत्व में स्वास्थ्यप्रद और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील हों। अगर इस संपूर्ण संदर्भ में भारत जिंबाब्वे के मॉडल को अपनाए तो स्थितियां कहीं अधिक बेहतर हो सकती हैं। जिंबाब्वे में कितने लोग अवसाद के शिकार हैं, किसी को नहीं पता था।

यहां के मनोविज्ञानी डिक्सन चिबांदा ने अवसाद के शिकार लोगों की मदद के लिए 2006 में बुजुर्ग महिलाओं को प्रशिक्षण देना आरंभ किया। डिक्सन का ‘ग्रैंडमदर्स क्लब’ अवसाद की चुनौती से निपटने में बहुत कारगर साबित हुआ। ग्रैंडमदर्स क्लब बनाने के बाद डिक्सन के सामने दूसरी चुनौती थी अस्पतालों में जगह की भारी कमी की। इसका तोड़ डिक्सन ने निकाला फ्रेंडशिप बेंच की शक्ल में। सार्वजनिक पार्क और ठिकानों पर ऐसी बेंच लगाई गईं, जहां पर बुजुर्ग महिलाएं अवसादग्रस्त लोगों से संवाद स्थापित करती हैं।

जिंबाब्वे मॉडल को दुनिया के कई देशों ने सराहा

शोध यह सिद्ध कर चुके हैं कि तनाव की आरंभिक अवस्था में ही अगर भावनात्मक संरक्षण और संवाद स्थापित किया जाए तो व्यक्ति अवसाद में जाने से बच जाता है। जिंबाब्वे के इस मॉडल को दुनिया के कई देशों ने सराहा और कोरोना महामारी से पूर्व तक दादियों-नानियों की मदद से अवसाद के इलाज का यह कार्यक्रम कई देशों में चलाया जा रहा था। न्यूयार्क ने फ्रेंडशिप बेंच की शुरुआत 2016 में की और लगभग तीस हजार से ज्यादा लोगों ने इसकी मदद से अवसाद का मुकाबला किया। कोरोना महामारी कब संपूर्ण रूप से समाप्त होगी, यह घोषणा किसी के लिए भी संभव नहीं है, परंतु वैक्सीन लगने के पश्चात देश में सामाजिक संपर्क को लेकर सहजता का माहौल शीघ्र ही स्थापित होगा। फिर शहरों में फ्रेंडशिप बेंच और ग्रामीण क्षेत्रों में यह भूमिका वृद्ध और अनुभवी जन प्रशिक्षण प्राप्त कर निभा सकते हैं।

अवसाद से मुकाबला करने के लिए संवेदनशीलता और जन सहभागिता जरूरी

बहरहाल जब तक यह संभव नहीं है, तब तक अवसाद की पहचान और जन जागरूकता अभियान हेल्पलाइन के माध्यम से किया जा सकता है। जैसा कि जापान और विश्व के कई अन्य देशों ने किया है। अवसाद कब आत्महत्या जैसी घातक प्रवृत्ति का रूप धारण कर ले, इसका किसी को भान नहीं होता। आत्महत्या के कुल मामलों में 90 प्रतिशत लोग मानसिक विकारों के शिकार होते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि अवसाद से मुकाबला करने के लिए संवेदनशीलता और जन सहभागिता का मार्ग चुना जाए।

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