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बोलने की आजादी और राजद्रोह कानून के बीच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हाल में भारत के उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह के कानून के विषय पर केंद्र सरकार से प्रश्न किया है कि इस कानून को अब तक निरस्त क्यों नहीं किया गया है जब अधिकांश ऐसे औपनिवेशिक कानूनों को निरस्त करने की प्रक्रिया चलाई जा रही है। ज्ञात हो कि राजद्रोह कानून भी औपनिवेशिक काल में बनाया गया था। आज देश में उसके व्यापक स्तर पर दुरुपयोग की बातें सामने आ रही हैं।

राजद्रोह के कानून के दुरुपयोग को लेकर लंबे समय से देश के संविधान और विधि विशेषज्ञों के बीच विवाद रहा है। उल्लेखनीय है कि इस विषय पर संविधान सभा में भी विवाद हुआ था। और तब सदस्यों ने वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को र्निबधित करने के लिए इसे एक आधार के रूप में शामिल नहीं करने का निर्णय लिया था।

ध्यातव्य हो कि इस विषय पर संविधान सभा में एक प्रस्ताव प्रस्तुत कर इस अधिकार को र्निबधित करने के लिए कुछ आधारों जैसे परिवाद, बदनामी, मानहानि, सदाचार या नैतिकता के विरुद्ध अपराध, राजद्रोह या राज्य की सुरक्षा पर आघात करने वाले अन्य कार्यो को शामिल करने की बात कही गई थी, लेकिन सदस्यों ने राजद्रोह के विषय पर उसकी दमनकारी प्रकृति के कारण उपेक्षा का दृष्टिकोण अपनाया और अंतत: इसे संविधान में शामिल नहीं किया गया। इसे शामिल नहीं किए जाने वाले कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि इसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े बड़े नेताओं विशेषकर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी के विचारों का दमन करने के लिए प्रयोग किया गया था।

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि राजद्रोह की संकल्पना भारतीय दंड संहिता, 1860 के मूल दस्तावेज में नहीं रखी गई थी। इसे एक संशोधन के जरिये 1870 में धारा 124ए में शामिल किया गया। धारा 124ए के अनुसार, ‘जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों के द्वारा या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, असंतोष उत्पन्न करेगा या करने का प्रयत्न करेगा, उसे आजीवन कारावास या तीन वर्ष तक की कैद और जुर्माना अथवा सभी से दंडित किया जाएगा।’

राजद्रोह का मतलब: इस प्रविधान से यह स्पष्ट है कि राजद्रोह एक जघन्य अपराध है। यहां राजद्रोह का अर्थ समझना अनिवार्य है। इसे राष्ट्र द्रोह या देश द्रोह नहीं कहा जाना चाहिए। राजद्रोह का संबंध सरकार से है। राष्ट्र एक राजनीतिक और सांस्कृतिक संकल्पना है जिसमें राज्य के अनिवार्य तत्वों के अलावा वहां निवास करने वाली जनसंख्या में एकता की भावना शामिल है। दूसरी ओर, देश शब्द का प्रयोग भौगोलिक संदर्भ में किया जाता है।

अत: राजद्रोह इन दोनों ही संकल्पनाओं से भिन्न है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य, 1950 और रमेश थापर बनाम मद्रास राज्य, 1950 मामलों में कहा था कि दंड संहिता की धारा 124ए संविधान के प्रविधानों से संगत नहीं है, लेकिन बाद में न्यायालय ने केदार नाथ यादव बनाम बिहार राज्य, 1962 मामले में धारा 124ए की संवैधानिक वैधता को स्वीकार कर लिया था।

संविधान के पहले संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा लोक व्यवस्था शब्दावली को राज्य की सुरक्षा के उद्देश्य से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर र्निबधन लगाने वाले एक आधार के रूप में अनुच्छेद 19(2) में शामिल किया गया, लेकिन संविधान में इसे परिभाषित नहीं किया गया है। उच्चतम न्यायालय ने किशोरी मोहन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 1972 मामले में लोक व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा के बीच अंतर की व्याख्या की है।

न्यायालय के अनुसार ऐसा कुछ भी जो लोक शांति और लोक शांत चित्तता को भंग करता है वह लोक व्यवस्था को भंग करता है, लेकिन महज सरकार की आलोचना से लोक व्यवस्था भंग नहीं होती। दूसरी ओर राज्य की सुरक्षा के अर्थ में राज्य को अपदस्थ करने के इरादे से किए गए हिंसा के अपराधों, सरकार के खिलाफ युद्ध और विद्रोह या बाहरी आक्रमण या युद्ध से राज्य की सुरक्षा को खतरे में डालने के इरादे से दिए गए सभी बयान शामिल हैं।

ऐसी व्याख्या से यह स्पष्ट है कि सरकारी कार्यो, नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना पर रोक लगाने के उद्देश्य से असहमति पर अंकुश लगाने या वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को प्रतिबंधित करने के लिए राजद्रोह के कानून को लागू करना संवैधानिक जनादेश के गंभीर उल्लंघन के रूप में देखा जा सकता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व : यहां यह उल्लेख करना भी समीचीन है कि लोकतांत्रिक मूल्यों का आधुनिकीकरण अधिकारों के प्रति निरंतर बढ़ती जागरूकता में स्पष्ट रूप से झलकता है। आज की विश्व व्यवस्था में वैश्वीकरण और आíथक उदारीकरण के प्रसार के बाद यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है कि राष्ट्रों के समक्ष विद्यमान समस्याओं का समाधान सहमति-आधारित निर्णयन के बिना संभव नहीं है।

वास्तव में सहमति निर्माण लोकतांत्रिक शासन के सबसे ठोस कार्यात्मक स्तंभों में से एक है। साथ ही यह लोकतांत्रिक निर्णयन के सवरेत्तम उदाहरणों में से भी एक है। यह तभी संभव हो सकता है जब विश्व भर में नागरिकों को जानने का अधिकार, सूचना का अधिकार, वैचारिक स्वतंत्रता का अधिकार और वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देकर उन्हें सशक्त बनाया जाए।

भारत के संविधान में अनुच्छेद 19(1)(ए) में प्रत्येक नागरिक को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है। इसके अर्थ में जानने का अधिकार, विचारों की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार अंतíनहित हैं। जहां तक सूचना के अधिकार का प्रश्न है, यह एक सांविधिक मूल अधिकार है और वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक प्रजाति के रूप में विकसित अधिकार है। इन सभी से भारत के लोकतांत्रिक शासन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व की पुष्टि होती है। इसे इस रूप में प्रमाणित भी किया जा सकता है कि भारत के पहले प्रेस आयोग ने यह कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी स्वतंत्रताओं की जननी है।

यह भी विदित है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरपेक्ष स्वतंत्रता के नैसíगक (प्राकृतिक) अधिकार की एक प्रजाति है। अत: इसे सभ्य समाज में निरपेक्ष नहीं छोड़ा जा सकता है। इस कारण इस पर ताíकक अथवा युक्तियुक्त र्निबधन लगाया जाना अनिवार्य है, ताकि व्यक्तिगत और सामाजिक हितों तथा राज्य के प्राधिकार और नागरिकों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाया जा सके।

ऐसी ही भावना से प्रेरित होकर संविधान के अनुच्छेद 19(2)-19(6) में स्वतंत्रता के अधिकारों पर र्निबधन लगाने के लिए आठ आधारों का उल्लेख है। इन आधारों में राजद्रोह शामिल नहीं है। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि इसे संविधान सभा में ही र्निबधन के आधार के रूप में स्वीकार नहीं किया था, क्योंकि औपनिवेशिक दमनकारी मनोवृत्ति वाला ऐसा आधार स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक शासन पद्धति के विरुद्ध होता।

भारत में लोकतांत्रिक शासन पद्धति की विशेषता: संविधान में लोकतंत्र के जिस स्वरूप को शामिल किया गया है वह अप्रतिम है। भारत में लोकतंत्र मुख्यत: चार रूपों में प्रचलित है। राजनीतिक लोकतंत्र सभी मूल अधिकारों में प्रतिबिंबित है, जबकि उदारवादी लोकतंत्र विशेषकर स्वतंत्रता के अधिकारों में अंतíनहित है। लोकतंत्र के इन दोनों स्वरूपों को भाग तीन में मूल अधिकारों (नागरिक एवं राजनीतिक) के रूप रखा गया है।

दूसरी ओर सामाजिक और आíथक लोकतंत्र की स्थापना के लिए राज्य को भाग चार में शामिल नीति निदेशक तत्वों के जरिये उत्तरदायी बनाया गया है। इसके लिए लोकतंत्र और समाजवाद का मिश्रण भी भारतीय शासन पद्धति का उत्कृष्ट पक्ष है। इसी आधार पर सभी मूल अधिकारों के संरक्षण के साथ लोकतांत्रिक समाजवाद के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए राज्य को उत्तरदायी बनाया गया है। ध्यातव्य हो कि यही संयुक्त राष्ट्र द्वारा क्रियान्वित विकास का अधिकार आधारित दृष्टिकोण भी है।

स्थिति में ऐसा कोई भी कानून जो अधिकारों का दमन करता हो वह न केवल भारत के संविधान, बल्कि संयुक्त राष्ट्र की नीतियों और अंतरराष्ट्रीय मानकों से भी असंगत होगा। ऐसे में इस पर समग्रता से विचार करना आवश्यक है।

यदि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए पर विचार करें तो हाल के वर्षो में व्यापक स्तर पर इसका दुरुपयोग गंभीर चिंता का विषय बन गया है। यही चिंता उच्चतम न्यायालय द्वारा हाल में की गई टिप्पणी से भी स्पष्ट होती है। विदित है कि उच्चतम न्यायालय न केवल संविधान का संरक्षक है, बल्कि वह अधिकारों के संरक्षण और प्रवर्तन के लिए भी सशक्त है।

न्यायालय की यह उत्कृष्ट भूमिका मेनका गांधी बनाम भारत संघ, 1978 मामले में दिए गए ऐतिहासिक निर्णय से स्पष्ट होती है जिसमें न्यायालय ने भारत के संविधान के ‘स्वर्णिम त्रिभुज’ की व्याख्या की है। इस त्रिभुज का निर्माण अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित अन्य मौलिक स्वतंत्रता) तथा अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) से हुआ है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जरिये इस त्रिभुज के संरक्षण के लिए न्यायालय ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ, 2015 मामले में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए को असंवैधानिक घोषित किया था।

तब उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि धारा 66ए पूरी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है, लेकिन दुख की बात है कि हाल तक इस धारा के तहत मामले दर्ज किए जाते रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि देशभर में 1307 केस दर्ज किए गए। सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख और केंद्रीय गृह मंत्रलय के स्पष्ट दिशानिर्देश के बाद अब उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसा नहीं होगा। अंत में यह कहना उपयुक्त होगा कि राजद्रोह कानून पर उच्चतम न्यायालय द्वारा हाल में की गई टिप्पणी भारत में परिपक्व हो रहे लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों के अनुकूल है और राज्य को इससे दिशा निर्देश लेते हुए प्रगतिशील होने की आवश्यकता है।

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