आखिर क्यों आसान नहीं है सामाजिक विसंगतियों का खात्मा?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कई राजनीतिक दलों की ओर से जातीय जनगणना कराने की मांग को फिलहाल केंद्र सरकार द्वारा खारिज किए जाने के बाद से कुछ नेता इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने में जुटे हुए हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में तो खास तौर पर इस मामले पर सक्रियता बढ़ गई है। बिहार में राजद ने इसे हाथों-हाथ लिया तथा जातीय जनगणना की मांग कर दी। नीतीश कुमार क्यों पीछे रहते। उन्होंने न केवल जातीय जनगणना के समर्थन में बयान दिया, बल्कि प्रधानमंत्री को पत्र भी लिख दिया। इसकी आग बढ़ती हुई दूसरे राज्यों तक पहुंची और उत्तर प्रदेश में भाजपा को छोड़कर हर दल इसकी मांग करने लगा। इस समय यह देश की राजनीति का एक प्रमुख मुद्दा बन गया है।

दरअसल जनगणना के साथ जातीय जनगणना कराने की मांग वर्षो से हो रही है, पर इसके पक्ष में अगर लोग खड़े होते हैं तो विपक्ष में भी उतना ही सशक्त तर्क दिया जाता है। नरेंद्र मोदी सरकार ने 2018 में घोषणा की थी कि आगामी जनगणना में वह पिछड़ी जातियों की गणना कराएगी। यह जानना रोचक होगा कि जो पार्टियां, नेता और एक्टिविस्ट इस समय जाति की गणना कराने की मांग कर रहे हैं, वे तब कई किंतु-परंतु के साथ इसका विरोध करने लगे थे।

वे मांग करने लगे कि नए सिरे से जातीय जनगणना कराने के बजाय यूपीए सरकार ने जातियों की जो गणना कराई थी, मोदी सरकार पहले उसे जारी करे। दरअसल इन पार्टयिों और नेताओं का भय भाजपा के पिछड़ा वर्ग से संबंधित कार्यो को लेकर था। मोदी सरकार ने पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का कानून संसद से पारित करा दिया था। पूर्व की सरकारों ने पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की सोची भी नहीं और मोदी ने कैसे कर दिया? यह प्रश्न इन सब नेताओं के दिमाग को मथ रहा था। उनको लग रहा था कि मोदी सरकार ने यदि पिछड़ी जातियों की जनगणना करा दी तो वे लोग इसके सियासी लाभ से वंचित हो जाएंगे।

यह भी तय है कि जब आप पिछड़ी जातियों की जनगणना की मांग करेंगे तो दूसरी जातियां भी खड़ी होंगी। नरेंद्र मोदी सरकार की इस घोषणा के बाद एक बड़े वर्ग ने यह मांग की कि जब गणना करानी है तो केवल पिछड़ी जातियों की क्यों होनी चाहिए? दूसरी जातियों की भी हो जाए। पिछड़ी जातियों की जनगणना के पीछे मुख्य तर्क यही रहा है कि चूंकि आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण है,

इसलिए एक बार जातियों का आंकड़ा आ जाए तो उसके आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ाने और अन्य योजनाओं में उनकी सही भागीदारी पर निर्णय करना आसान हो जाएगा। आज हमारे पास जातियों की संख्या को लेकर कोई प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है। जो है वह 1931 का है जिसे अंग्रेजों ने अंजाम दिया था। वर्ष 1931 के इस आंकड़े को आधार बनाकर ही मंडल आयोग ने अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की और उसे स्वीकार कर लिया गया।

यूपीए सरकार के कार्यकाल में जब पिछड़ी जातियों की गणना की मांग तीव्र हुई तो उस समय राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा 2006 में बनाई गई एक रिपोर्ट को जारी किया गया था। इसमें अन्य पिछड़े वर्ग की आबादी कुल आबादी की 41 प्रतिशत बताई गई थी। मंडलवादी या पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले नेताओं को यह गवारा नहीं हुआ और उन्होंने दबाव बनाया कि नए सिरे से गणना कराई जाए। इनमें से ज्यादातर यूपीए के भाग थे या बाहर से समर्थन दे रहे थे, इसलिए उस पर दबाव कायम हुआ।

उस समय के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में तत्काल एक मंत्री समूह गठित हुआ। उस समूह ने सभी दलों से अलग-अलग राय लेने के बाद जाति आधारित जनगणना कराने की अनुशंसा कर दी। किंतु यह गणना जनगणना कानून के तहत नहीं होकर अलग से की गई। इसलिए इसका नाम भी जनगणना नहीं रखते हुए सामाजिक, आर्थिक, जाति जनगणना (एसईसीसी) रखा गया। यह राष्ट्रीय जनगणना आयुक्त एवं महापंजीयक के नेतृत्व में नहीं, बल्कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रलय के नेतृत्व में हुई।

इसमें समय लगा और यह 2013 में पूरा हुआ। चाहे समय के अभाव में या अन्य कारणों से, तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसे जारी नहीं किया, पर मोदी सरकार में तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2015 में घोषणा की थी कि गणना में आई अलग-अलग जातियों की संख्या प्रकाशित कर दी जाएगी, लेकिन ऐसा हो नहीं सका, क्योंकि इसे प्रकाशित करना आसान नहीं था। दरअसल उसमें कई लाख जातियां, उपजातियां, वंश, गोत्र आदि सामने आए थे। यह सिर चकराने वाली स्थिति थी।

तब नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति गठित हुई। उसके व्यापक कसरत के बावजूद गणना की रिपोर्ट को प्रकाशित करना संभव नहीं हुआ। मांग करना आसान है, लेकिन भारत जातियों के मामले में विविधताओं वाला एकमात्र देश है। सच यही है कि यहां संपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रूप में ऐसी गणना और उसे प्रकाशित करने योग्य बना पाना संभव नहीं है।

अंग्रेज कैसे जातीय जनगणना कराते थे, इसका अध्ययन करने वाले भी बताते हैं कि वह भी संपूर्ण और वस्तुनिष्ठ नहीं था। वैसे भी भारतीय समाज व्यवस्था की जटिलताओं का सही अध्ययन अंग्रेजों के द्वारा संभव ही नहीं था। फिर अंग्रेज भारतीय समाज को बांटे रखने के लिए ऐसा करते थे और उस आंकड़े का आजादी के बाद कोई अर्थ नहीं रह गया था।

जातीय जनगणना की मांग करने वाले तथा उसका समर्थन करने वाले यह ध्यान रखें कि आजादी के बाद की पहली सरकार ने ही यह निर्णय किया कि अब देश में जाति जनगणना नहीं होगी। इसके लिए जो तर्क दिए गए थे उनमें सर्वप्रमुख यही था कि भारत अब ऐसे लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक शासन प्रणाली में आ गया है, जहां प्रत्येक व्यक्ति कानून की दृष्टि में समान है और सभी वयस्क को मताधिकार मिल गया है।

आजादी के बाद जिस भारत का सपना देखा गया था उसमें धीरे-धीरे जातिभेद खत्म होने की कल्पना थी और शासन को उसी दिशा में बढ़ना था। हालांकि यह तय हुआ कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनगणना की जाएगी, क्योंकि संविधान में इनके उत्थान के लिए विशेष प्रविधान की बात थी। 1951 से 2011 की जनगणना तक उनकी गिनती होती रही है, लेकिन पिछड़ी जातियों की जनगणना के विषय को अस्थाई रूप से बंद कर दिया गया।

जातीय जनगणना का मामला पुनर्जीवित तभी हुआ जब मंडल आयोग की रिपोर्ट पर आरक्षण लागू हुआ। तभी से यह मांग उठ रही है कि अनुसूचित जाति-जनजातियों की तरह पिछड़ी जातियों की भी गणना की जाए। मंडल आयोग ने कहा था कि अगली जनगणना जब भी हो इनकी संख्या पता कर ली जाए। जब आयोग की सिफारिश लागू हुई, उसके बाद की जनगणना 1991 में होनी थी, किंतु उसकी प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। लिहाजा 2001 की प्रतीक्षा की गई, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने इसे अंजाम नहीं दिया।

वास्तव में जब भी इस पर विचार-विमर्श हुआ यही लगा कि भारत में जातीय-सामाजिक जटिलताओं को देखते हुए यह आसान काम नहीं है। मुख्य बात तो यही है कि सभी पिछड़ी जातियों की पहचान कैसे होगी? एक राज्य में जो जाति अन्य पिछड़ी जाति की श्रेणी में शामिल है, वही दूसरे राज्य में उस श्रेणी में नहीं है और केंद्रीय सूची में भी नहीं है। यही स्थिति अनुसूचित जाति-जनजाति के मामले में भी है। इसलिए इनकी गणना आसान नहीं है। यही स्थिति अगड़ी जातियों के संदर्भ में भी है।

वास्तव में इसे भारतीय राजनीति की विडंबना कहेंगे कि विचारधाराओं से निकले जो नेता जातियों की आलोचना करते हुए-जातिवाद खत्म करो-का नारा लगाते थे, उसके लिए अभियान चलाते थे वे मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद धीरे-धीरे जाति व्यवस्था के घोर समर्थक बन चुके हैं। जाति तोड़ो का सपना अब दफन हो चुका है। उनकी पूरी राजनीति और सामाजिक न्याय की कल्पना आरक्षण और जातियों के इर्द-गिर्द सिमट चुकी है।

इनका तर्क होता है कि हम जितनी संख्या में हैं, उतना आरक्षण हमें मिले और यह तभी होगा जब पिछड़ी जातियों की वास्तविक संख्या सामने आ जाए। कहने की आवश्यकता नहीं कि जातिगत आरक्षण को इन्होंने भारत का स्थाई अंग बनाए रखने का मन बना लिया है। ये यह भी भूल रहे हैं कि स्वयं मंडल आयोग ने पिछड़ी जातियों की आबादी को 52 प्रतिशत बताते हुए भी उनके लिए 27 प्रतिशत की ही सिफारिश की थी। अनुसूचित जाति-जनजाति का विषय अलग है, लेकिन पिछड़ी जातियां मंडल आयोग की कल्पना में भी उस अवस्था में नहीं कि इनकी आबादी के अनुरूप आरक्षण दिया जाए।

कहने का तात्पर्य यह कि जातीय जनगणना की मांग भारतीय समाज के व्यापक हित या सामाजिक एकता को ध्यान में रखते हुए नहीं की जा रही है, बल्कि इसके पीछे केवल राजनीति है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। हमें भारतीय समाज में जो पीछे रह गए हैं उनको आगे लाने के लिए अनेक कदम उठाने हैं। काफी कदम उठाए गए हैं, आरक्षण उनमें से केवल एक है, लेकिन जब राजनीति दिशाहीन या दिशाभ्रम का शिकार हो जाती है तो फिर ऐसी ही स्थिति उत्पन्न होती है।

इसके विपरीत अगर आप नए सिरे से जातीय जनगणना करा कर फिर उसके आधार पर आरक्षण के लिए जोर डालेंगे तो समाज में तनाव बढ़ेगा, सामाजिक एकता भंग होगी और सामाजिक न्याय के अन्य कदमों के सकारात्मक परिणामों पर अत्यंत घातक असर होगा। इस बात को देश के सभी राजनेता, बुद्धिजीवी आदि समङों तथा ऐसी मांग नहीं करें जिससे समाज में विघटन की स्थिति पैदा हो।

उन्हें समझना चाहिए कि आखिर यूपीए सरकार ने 2006 में नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट को जारी क्यों नहीं किया? इसी तरह जो मोदी सरकार स्वयं पिछड़े वर्गो का समर्थन पाने के लिए इनकी जनगणना की घोषणा कर चुकी थी, वह पीछे क्यों हट गई? इस प्रश्न का उत्तर भी तलाशना चाहिए।

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