इतिहास को देखते हुए तालिबान पर आसानी से भरोसा करना बहुत मुश्किल.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

तालिबान की अफगान सत्ता में वापसी से पूरी दुनिया में चिंता बढ़ने के साथ भारत के लिए भी चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने पिछले दिनों राष्ट्र के नाम जो संदेश दिया, उसका मुख्य उद्देश्य दुनिया को यह बताना था कि उन्होंने अफगानिस्तान से निकलना क्यों जरूरी समझा। बहरहाल, जैसे वर्ष 1975 में अमेरिका, दक्षिणी वियतनाम को उत्तरी वियतनाम के भरोसे छोड़कर भाग गया था, वैसे ही उसने अफगानिस्तान को तालिबान के भरोसे छोड़ दिया और वहां से निकल भागना मुनासिब समझा।

जिस समय अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने की प्रक्रिया शुरू की, उसी समय से तालिबान ने अपने आगे बढ़ने की रफ्तार भी तेज कर दी और रविवार को अशरफ गनी युग के अंत के साथ ही तालिबान के लड़ाके राजधानी काबुल में दाखिल हो गए। तालिबान के सत्ता में आने का अर्थ है अफगानिस्तान में पाकिस्तानी सेना। इसलिए अब भारत के लिए चुनौती बढ़ सकती है,

क्योंकि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और चीन एकसाथ होंगे। अमेरिका अफगानिस्तान से निकल चुका है। ईरान जैसे देश अपनी स्थिति पुन: मजबूत करेंगे। भारत के लिए सीमा सुरक्षा, शरणार्थी समस्या और आतंकवाद से निपटने की बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि अब तालिबान, पाकिस्तान और चीन मिलकर भारत को अस्थिर करने व सीमा विवाद बढ़ाने पर काम करेंगे।

शरणार्थी समस्या : अफगानिस्तान पर तालिबान के राज की शुरुआत होते ही वहां लोगों में देश छोड़कर भागने की होड़ लग गई। ऐसे में भारत के लिए शरणार्थी समस्या बड़ी चुनौती बनकर सामने आ सकती है। पिछले कुछ वर्षो से पश्चिम एशिया में ‘सीरिया संकट’ के कारण यूरोप में सीरियाई शरणाíथयों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है और 2014 के अंत तक सीरिया विश्व का सबसे अधिक शरणार्थी पैदा करने वाला देश बन गया था। लेकिन अब अफगानिस्तान सबसे अधिक शरणार्थी पैदा करने वाला देश बनने की ओर बढ़ चला है।

बता दें कि संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंतोनियो गुतेरस का कहना है कि अफगानिस्तान में बढ़ते संघर्ष के कारण इस साल की शुरुआत से लेकर अब तक करीब 3.6 लाख लोग विस्थापन के लिए मजबूर हुए हैं। करीब 15 हजार लोग तो कुछ साल पहले ही अफगानिस्तान छोड़कर दिल्ली भाग आए थे और यहां शरणाíथयों का जीवन जी रहे हैं। बीते कुछ ही वक्त में अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते कदमों ने शरणार्थी समस्या को बढ़ा दिया है।

अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन के अनुसार, वर्ष 2015 की पहली छमाही में सुरक्षा बलों और विद्रोहियों के मुठभेड़ में लगभग पांच हजार नागरिक मारे गए। वहीं दूसरी ओर, पूर्वी अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट की उपस्थिति ने सुरक्षा के मुद्दे को और जटिल बना दिया है। पुन: जातीय समूह, तालिबान से भयभीत हैं।

आतंकवाद की समस्या : पश्चिमी ताकतों के चले जाने के बाद अफगान में आतंकी संगठनों के फिर से सिर उठाने को लेकर समूचा विश्व चिंतित है। अल कायदा और इस्लामिक स्टेट के साथ यहां और भी कई आतंकी संगठन मौजूद हैं जो भविष्य में तालिबान के साथ मिल कर काम कर सकते हैं। यहां तक कि तालिबान की शक्ल में पाकिस्तान का हक्कानी नेटवर्क और अल कायदा से उसका सीधा कनेक्शन भी किसी से छिपा नहीं है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि तालिबान के आतंकी शक्ल में पाकिस्तान का चेहरा है।

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी ने भारत की चुनौतियों और आतंकवाद के खतरे को बढ़ा दिया है। पाकिस्तान, तालिबान का इस्तेमाल अब भारतीय हितों पर आघात करने के लिए कर सकता है। लगभग तीन लाख की संख्या वाली अफगानी सेना को पछाड़ कर मात्र 80 हजार तालिबानी जिहादियों का अफगान पर कब्जा चिंताजनक है। अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे से आतंकवाद का खतरा भारत के लिए तो बढ़ा ही है, विश्व के अन्य देश भी इससे सुरक्षित नहीं होंगे। इन तमाम परिस्थितियों के बीच तालिबान की जीत निश्चित तौर पर आतंकी संगठनों का हौसला बढ़ाएगी।

परिणामस्वरूप अफगानिस्तान में किसी प्रकार का उथल-पुथल होने पर उसका सबसे ज्यादा असर भारत पर ही होता है। जैसाकि भारत अभी सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष है, अपनी अध्यक्षता के पहले दिन ही भारत को अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की एक शांति-सेना भेजने का प्रस्ताव पास करवाना चाहिए था। लेकिन यह नहीं हो सका। यह काम अभी भी करवाया जा सकता है।

सभी जानते हैं कि तालिबान, पाकिस्तान के प्रगाढ़ ऋणी हैं, लेकिन वे भारत के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने अफगानिस्तान में भारत के निर्माण कार्यो का आभार माना है और अपना मत स्पष्ट करते हुए कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला भी बताया है। यहां तक कि तालिबान, भारत को आश्वासन भी दे चुका है कि वो अफगान की जमीन को भारत के खिलाफ किसी हमले के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा। लेकिन इस पर अभी आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता है।

ऐसे में समय आ गया है जब हमें अपनी सीमा सुरक्षा को मजबूत करने और आतंकवाद से निपटने के लिए अलग रणनीति बनानी होगी। अन्यथा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और चीन मिलकर भारत को परेशान करने और देश में अशांति फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। अगर अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को दूरदर्शी रूप से देखा जाए तो यह भारत के लिए खतरनाक हो सकता है,

क्योंकि जिस तरह से पिछले कुछ समय से तालिबान को पाकिस्तान ने संरक्षण दे रखा है और पर्दे के पीछे से चीन भी उसकी मदद कर रहा है, यह सब भारत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। इसलिए भारत को इस संबंध में अपना कदम बहुत ही फूंक-फूंककर आगे बढ़ाना होगा।

तालिबान द्वारा अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेने से आशंका इस बात की भी है कि पाकिस्तान पोषित और अन्य देशों द्वारा समर्थित आतंकी संगठनों को बढ़ावा मिल सकता है। लिहाजा आतंकवाद की अंतरराष्ट्रीय समस्या के समाधान के लिए विश्व के सभी शांतिप्रिय देशों को एकजुट होकर दूरगामी योजना बनाकर काम करना बहुत जरूरी है। साथ ही, तालिबान की हरकतों पर नजर रखते हुए भारत को अपनी सुरक्षा व्यवस्था को और मजबूत करने के साथ ही समय रहते सतर्कता बरतने की आवश्यकता है।

 

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