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जो भाई का न हुआ, पड़ोसी का क्या होगा! इनका ढोंग और इनकी सेलेक्टिव मानवता!

जो भाई का न हुआ, पड़ोसी का क्या होगा! इनका ढोंग और इनकी सेलेक्टिव मानवता!

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

‘डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ (वैश्विक हिंदुत्व को खंडित करना) विषय पर अमेरिका में एक कांफ्रेंस होने की बात हुई। इस विषय को लेकर थोड़ी असहज मैं भी थी परंतु ‘जाने दो’ की आदी रही हूं इसलिए चुप्पी को चुना। विरोध में उठी कुछ आवाज़ें तथाकथित ज्ञानियों के नाना प्रकार की आज़ादी के बोझ तले दब गईं। इतना कौन और क्यों सोचेगा कि अमेरिका में हिंदू अल्पसंख्यक हैं और वे भी असुरक्षित महसूस कर सकते हैं? शिक्षा जगत में कट्टरपंथी सोच का विरोध करना जितना उचित है,

उतना ही अनुचित है एक विशेष धर्म, जिसकी वैश्विक जनसंख्या अन्य प्रचलित धर्मों के अपेक्षा कम है, के खिलाफ विश्व स्तर पर एक मोर्चा खोलना और उसे नष्ट करने पर विमर्श करना। फिर ‘लिबरल’ जेएनयू ने ‘जिहादी टेररिज्म’ पर नया कोर्स लाने की बात कही और बवाल हो गया! तथाकथित ज्ञानियों को माइनोरिटी और फलाना फोबिया-ढिमकाना एजेंडा याद आने लगा। ठीक है, वो बिना विशेषण, सीधे ‘टेररिज्म’ (आतंकवाद) को पाठ्यक्रम में शामिल कर सकते थे, परंतु आप डिस्मेंटलिंग फंडामेंटलिज्म (कट्टरवाद का निराकरण) पर भी तो विमर्श कर सकते थे, वो भी तब जब अफगानिस्तान में चरमपंथी सोच के परिणाम स्पष्ट देखने को मिले रहे। आपकी अवसरवादी चयनात्मकता सही, और दूसरों का चिंतन भी बुरा?

हमलोग एक अजीब विश्व/समाज में रहते हैं।
यहां पर सैकड़ों वर्षों के आतंकवाद, करोड़ों लोगों की हत्या, बीसियों देशों के पतन, करोड़ों महिलाओं और बच्चियों के बलात्कार के बावजूद आज तक आतंकवाद का धर्म पता नही किया जा सका है पर कुछ छिटपुट घटनाओं के कारण अशहिष्णुता के धर्म का पता कर लिया गया है और उस धर्म को तोड़ डालने के लिए कांफ्रेंस किए जा रहे हैं। जिस धर्म को अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया हर जगह बस दबाया गया है, जिस धर्म का आधिकारिक तौर पर कोई देश भी नही है (भारत और नेपाल दोनों ही देश लोकतंत्र हैं), जिस धर्म के लोगों ने कभी आतंकवाद का नाम तक नहीं किया और हर देश में शांति से रहते हैं और तरक्की करते हैं (अमेरिका और ब्रिटेन जैसे सबसे बड़े देशों में सबसे विकसित अल्पसंख्यक समाज) ये सारी कवायद उस धर्म को खत्म कर देने के लिए है।
हमलोग एक अजीब विश्व/समाज में रहते हैं।

हीपोक्रिसी की कोई सीमा नहीं है। इस कांफ्रेंस के अधिकांश वक्ता उसी धर्म से ताल्लुक रखते हैं जिसके खिलाफ मोर्चा खोला है और जेएनयू के नए पाठ्यक्रम के खिलाफ भी वही हैं। इसका परिणाम अमेरिका के अल्पसंख्यक समुदाय पर या वैश्विक स्तर पर क्या हो सकता है, इसका अनुमान तक नहीं इन्हें। एक तथाकथित फोबिया से लड़ते हुए, हिंदुफोबिया/हिंदुमिजिया को बढ़ावा दे रहे। जो भाई का न हुआ, पड़ोसी का क्या होगा! इनका ढोंग और इनकी सेलेक्टिव मानवता!

आभार- महिमा कश्यप, शोध छात्र, अंग्रेजी विभाग,MGCUB.

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