दोनों हाथ और एक पैर गंवाने के बाद भी हार नहीं मानी सरिता, चित्रकारी कर तमाम उपलब्धियां किया हासिल
श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्क:
एक ओर पैरालंपिक में तमाम दिव्यांग खिलाड़ियों ने अपने हुनर और हौसले से अपनी झोली में तमाम पदक अर्जित करके देश का नाम रोशन किया, वहीं दूसरी ओर प्रयागराज में पली-बढ़ी ऊर्जा तथा उम्मीदों से भरी दिव्यांग सरिता ने भी अपने हुनर और हौसले से ‘पंख से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है’ को साबित करते हुए अपनी झोली में तमाम उपलब्धियां अर्जित कीं। चार वर्ष की उम्र में ही दोनों हाथ तथा एक पैर गंवा चुकी सरिता ने जिंदगी की जंग में हार नहीं मानी। मुंह में ब्रश को दबाकर दाहिने पैर की अंगुलियों के सहारे कैनवास पर रंग भरना शुरू किया तो उनके हुनर को देख लोगों ने दांतों तले अंगुलियां दबा ली।
मूलरूप से फतेहपुर की रहने वाली सरिता के पिता विजयकांत द्विवेदी भूतपूर्व सैनिक और मां विमला द्विवेदी ने सरिता के हौसलों को हमेशा उड़ान दी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीएफए की डिग्री हासिल कर चुकी सरिता शिक्षा से लेकर कला क्षेत्र में कई राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जित कर चुकी हैं। फिलहाल सरिता भारतीय कृत्रिम अंग निर्माण निगम (एलिम्को) में काम करते हुए दिव्यांगों की सेवा में जुटी है। अपनी विरासत, संस्कृति एवं परंपरा से रूबरू होने के साथ ही पेंटिंग, फोटोग्राफी, हस्त एवं शिल्प कला में रुचि रखने वाली सरित अब तक देश के अधिकतर धार्मिक स्थलों पर भी जा चुकी हैं।
प्रयागराज के केंद्रीय विद्यालय ओल्ड कैंट से पढ़ी सरिता को 16 वर्ष की उम्र में ही 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने राष्ट्रीय पुरस्कार ‘बालश्री’ से नवाजा था। वर्ष 2008 में उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने इंपावरमेंट ऑफ पर्सन विद डिसेबिलिटीज अवार्ड से नवाजा। फिर वर्ष 2009 में मिनिस्ट्री आफ इजिप्ट ने इंटरनेशनल अवॉर्ड तथा जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला तथा देश की पहली महिला जस्टिस लीला सेठ ने सरिता को गॉडफे फिलिप्स नेशनल ब्रेवरी अवार्ड से सम्मानित किया है।
सरिता जब वह चार वर्ष की थीं तभी हाईटेंशन तार की चपेट में आने से उसका आधा शरीर बुरी तरह झुलस गया था। कई सर्जरी से गुजरने के बाद जान बची पर इस हादसे ने उसके दोनों हाथ व एक पैर हमेशा के लिए छीन लिए। सरिता कहती हैं, ‘मेरे माता-पिता ने उम्मीद व हौसलों के रंग मेरी जिंदगी में भरे। मां ने मुझे एक सामान्य बच्चे की तरह ही पाला तथा हमेशा आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा दी। पिता सेना के उन वीरों की कहानियां सुनाते थे जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने धैर्य व हिम्मत को बनाए रखा। ‘ बीएफए करते समय मेरे अध्यापक डॉ.अजय जैतली ने मेरा मार्गदर्शन किया।
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