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बढ़ती आबादी का सिरदर्द और परिसीमन की समस्याएं, क्यों छिड़ी है बहस? - श्रीनारद मीडिया

बढ़ती आबादी का सिरदर्द और परिसीमन की समस्याएं, क्यों छिड़ी है बहस?

बढ़ती आबादी का सिरदर्द और परिसीमन की समस्याएं, क्यों छिड़ी है बहस?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

यूं तो राजनीतिक माहौल अब यह बयां करने लगा है कि आने वाले समय में लोकसभा में बड़ी संख्या में सीटें बढ़ सकती हैं लेकिन मद्रास हाईकोर्ट के हाल में आए एक आदेश ने भी एक चर्चा छेड़ दी है। हाईकोर्ट का कहना है कि अगर कोई राज्य अच्छे प्रयास करके जनसंख्या नियंत्रण करता है तो उसे लोकसभा में सीटें कम होने और राजनैतिक प्रतिनिधित्व में नुकसान क्यों उठाना चाहिए। यह निर्देश जनसंख्या के आधार को ध्यान में रखकर दिया गया था। यानी कोई भी परिसीमन जनसंख्या के आधार की बजाय प्रो रेटा (समानानुपात) होना चाहिए।

मद्रास हाईकोर्ट ने गत 17 अगस्त को दिए आदेश में यह बात कही और केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। मामला अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित तेनकासी संसदीय क्षेत्र को आरक्षण से बाहर करने की मांग का था। हाईकोर्ट ने मांग खारिज कर दी और आरक्षण को 2026 में अगले परिसीमन तक बरकरार रखने का आदेश दिया है। तमिलनाडु में 1962 तक 41 लोकसभा सीटें थीं जो बाद में घटकर 39 रह गई। हाईकोर्ट ने सीटें कम होने पर 5600 करोड़ रुपये मुआवजा देने को भी कहा है।

संविधान कहता है कि हर दस साल में जनगणना के बाद परिसीमन होना चाहिए और लोकसभा व विधानसभा की सीटें एडजेस्ट होंगी। परिसीमन में जनसंख्या के आधार पर सीटों का बंटवारा होता है। जो मुद्दा मद्रास हाईकोर्ट ने अब उठाया है वह मुद्दा पहले भी उठा था तब संविधान संशोधन करके सीटें फ्रीज कर दी गई थीं। 25-25 साल के लिए दो बार सीटें फ्रीज करने का निर्णय लिया गया। आखिरी बार 2001 में 25 साल की समय सीमा बढ़ाई गई थी जो कि 2026 को खत्म होगी। इसका मतलब था कि परिसीमन में सीटों की घटत बढ़त नहीं होगी। 2026 में फिर परिसीमन होना है ऐसे में मद्रास हाईकोर्ट द्वारा उठाया गया सवाल अहम हो जाता है।

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी मद्रास हाईकोर्ट के फैसले पर कहते हैं कि हाईकोर्ट की बुनियादी आपत्ति ठीक है कि आबादी नियंत्रित करने का राजनीतिक नुकसान नहीं होना चाहिए। इस मुद्दे पर पहले भी खूब डिबेट हो चुकी है। उस वक्त संविधान संशोधन करके जो जनसंख्यावार लोकसभा की सीटें थीं उन्हें फ्रीज कर दिया गया था। मुझे ऐसा लगता है कि अगर हाईकोर्ट का फैसला नहीं भी आया होता तो भी उसे डिस्टर्ब करना आज भी उतना ही विवाद पैदा कर सकता है।

मेरा मानना है जैसे आरक्षण की अवधि बढ़ाई जाती है वैसे ही परिसीमन के मामले में सीट फ्रीज करने की अवधि आगे बढ़ा देनी चाहिए। इसे आगे बढ़ाना पड़ेगा इसे डिस्टर्ब करना आसान काम नहीं है। मेरे कार्यकाल में 2006 में भी परिसीमन हुआ था लेकिन उसमें सीटें डस्टर्ब नहीं की गई थीं बल्कि राज्य के अंदर ही जनसंख्या के हिसाब से निर्वाचन क्षेत्र में घटाव बढ़ाव किया गया था। जहां आबादी बहुत कम है जैसे लक्षद्वीप, सिक्किम आदि वहां न्यूनतम एक सीट तय की गई इसका जनसंख्या से कोई लेना देना नहीं है।

यह फार्मूला इसलिए तय किया गया ताकि कम जनसंख्या वाले राज्य प्रतिनिधित्व से वंचित न रह जाएं। संसद में सीटें बढ़नी भी हैं तो प्रो रेटा बढ़ना चाहिए। यानी राज्यों की सीटों की मौजूदा संख्या में एक निश्चित अनुपात में बढ़ोतरी कर दी जाए। ये वृद्धि दस फीसद या जो भी तय हो, किया जा सकता है। कुरैशी संसद में बढ़ाई जाने वाली सीटें महिलाओं को देने का भी सुझाव देते हैं।

हालांकि देश के जाने माने वकील और पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी की राय इससे अलग है। रोहतगी साफ कहते है कि हाईकोर्ट का आदेश ठीक नहीं है। हाईकोर्ट को परिसीमन के मामले में इस तरह के सवाल नहीं उठाने चाहिए। परिसीमन हमेशा जनसंख्या के हिसाब से ही होता है। परिसीमन आयोग होता है और वह तय करता है। इसमें हाईकोर्ट को सवाल उठाने का कोई अधिकार नहीं है। हाईकोर्ट का आदेश बिल्कुल बेबुनियाद है। परिसीमन का जो तरीका है उसी तरह से परिसीमन होना चाहिए और उसी तरह से सीटें बढे़ंगी। परिसीमन तय करने का हक संसद का है हाईकोर्ट को इसमें कोई अधिकार नहीं है।

 

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