चंद्रशेखर वेंकट रमन के नोेबल पुरस्कार तक का सफर.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
विज्ञान के क्षेत्र में देश को स्वावलंबन की राह पर आगे बढ़ाते हुए दुनियाभर में पहचान दिलाने में तमाम विज्ञानियों का अविस्मरणीय योगदान रहा है। इसमें चंद्रशेखर वेंकट रमन (7 नवंबर, 1888-21 नवंबर, 1970) ऐसे विज्ञानी थे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए विज्ञान के क्षेत्र में देश का नाम रोशन किया। वे विज्ञान के किसी क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय विज्ञानी थे। भारतीय ही क्यों, वे पहले एशियाई भी थे और इतना ही नहीं, पहले अश्वेत भी थे। उन्हें 1930 में भौतिक विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। भौतिक विज्ञान में प्रकाश के अध्ययन में ‘रमन प्रभाव’ का प्रमुखता से जिक्र होता है। यह उन्हीं की खोज पर आधारित है और उन्हीं के नाम से जाना भी जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान के लिए उन्हें 1954 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
दूसरों से थे अलग: विज्ञान के प्रति उनमें अगाध लगाव था और वे निरंतर शोध करते रहते थे। अपने जीवन के अंतिम काल में जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा, तो उन्होंने डाक्टर से कहा था कि मैं अंतिम समय तक सक्रिय जीवन जीना चाहता हूं। कुशाग्र बुद्धि के रमन ने 16 साल की उम्र में ही तत्कालीन मद्रास (अब चेन्नई) के प्रेसिडेंसी कालेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त कर ली थी।
वे अपनी कक्षा में टापर थे और उन्होंने भौतिक विज्ञान में स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान उन्होंने 18 साल की उम्र में अपना पहला रिसर्च पेपर लिखा, जो फिलासोफिकल मैगजीन में प्रकाशित हुआ। पिता के कहने पर रमन ने 1907 में फाइनेंशियल सिविल सर्विसेज परीक्षा दी, जिसमें वे अव्वल आए। उन्हें कलकत्ता (अब कोलकाता) में असिस्टेंट एकाउंटेंट जनरल के वरिष्ठ पद पर नियुक्ति मिली। बहुत अच्छी तनख्वाह और बड़ा पद होने के बावजूद रमन का मन उसमें नहीं रमता था।
नौकरी के साथ जारी रहा शोध: कोलकाता के इंडियन एसोसिएशन फार द कल्टीवेशन आफ साइंस (आइएसीएस) में शाम के समय और छुट्टियों के दिनों में वे प्राय: अकेले ही शोध करते। शोध की गुणवत्ता ऐसी कि एक-एक कर उनके 27 शोध पत्र प्रतिष्ठित जर्नलों में प्रकाशित हुए। भौतिकी और शोध के लिए उनका समर्पण इतना ज्यादा था कि उन्होंने आइएसीएस के पड़ोस में ही घर ले लिया। जब वे 29 साल के थे, तब 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने उन्हें विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद पर आने का प्रस्ताव दिया।
अपनी मौजूदा नौकरी की तुलना में कम तनख्वाह होने के बावजूद उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया और पढ़ाने के साथ अनुसंधान में भी जुटे रहे। 1921 में उनकी इंग्लैंड यात्रा हुई। तब तक विज्ञान की दुनिया में उनकी चर्चा हो चुकी थी। वर्ष 1928 में उन्होंने ‘रमन प्रभाव’ की खोज की। 1933 से 1948 तक वे भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर (अब बेंगलुरु) में प्रोफेसर रहे और उसके बाद रमन शोध संस्थान के निदेशक, जिसे उन्होंने खुद स्थापित किया था। उन्होंने 1926 में भारतीय भौतिकी जर्नल की स्थापना की और 1934 में भारतीय विज्ञान अकादमी शुरू की। वह देश के ऐसे प्रतिभाशाली विज्ञानी थे, जिनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।
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