फ्रांस और अमेरिका की गाढ़ी दोस्‍ती में क्‍यों आई दरार?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

90 बिलियन आस्‍ट्रेलियाई डालर (करीब 66 बिलियन अमेरिका डालर) की सबमरीन डील रद होने के बाद फ्रांस की सियासत में खलबली मची हुई है। इस रक्षा डील के रद होने के बाद फ्रांस ने अमेरिका के प्रति सख्‍त रुख अपनाया है। अमेरिका और फ्रांस की गाढ़ी दोस्‍ती में दारार आ गई है। राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों अपनी छवि बचाने के लिए किसी तरह डैमेज कंट्रोल करने में लगे हुए हैं। आखिर इस डील के मायने क्‍या हैं। अमेरिका ने फ्रांस से यह डील क्‍यों की। इसका नाटो संगठन पर क्‍या होगा असर। आइए जानते हैं इस पूरे घटनाक्रम पर प्रोफेसर हर्ष वी पंत (आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली में निदेशक, अध्ययन और सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के प्रमुख हैं) के क्‍या विचार हैं।

अमेरिका और फ्रांस के संबंध किस प्रकार के हैं ?

अमेर‍िका और फ्रांस की दोस्‍ती काफी गाढ़ी है। यह दोस्‍ती काफी पुरानी है। 18वीं सदी की क्रांति के दौरान दोनों देश एक दूसरे के निकट आए, तब से दोनों के संबंध काफी प्रगाढ़ हैं। सबमरीन डील रद होने के बाद पहली बार फ्रांस ने अपने सबसे पुराने सहयोगी अमेरिका के साथ संबंधों में तल्‍खी देखी गई है। इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।

इसका नाटो पर क्‍या होगा असर ?

फ्रांस और अमेरिका के इन संबंधों का असर निश्‍चित रूप से नाटो संगठन पर पड़ेगा। मौजूदा घटनाक्रम को नाटो देशों में अमेरिका के प्रति बढ़ती नाराजगी के सबसे अहम घटनाक्रम के तौर पर देखा जा सकता है। फ्रांस अमेरिका के साथ दुनिया के सबसे बड़े मिलिट्री आर्गनाइजेशन नाटो (नार्थ अटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन) के सबसे पुराना सदस्‍यों में से एक रहा है। जाहिर है कि दोनों देशों के संबंधों की आंच नाटो संगठन तक पहुंचेगी। अब यह देखना दिलचस्‍प होगा कि अमेरिका इन संबंधों को कैसे पटरी पर लाता है।

क्‍या नाटो संगठन टूट सकता है ?

नाटो सदस्‍य देशों में आमतौर पर पहले भी खटपट हुई है, लेकिन फ्रांस की यह घटना काफी प्रमुख है। हालांकि, नाटो के अस्तित्‍व पर सवाल अमेरिकी राष्‍ट्रपति जो बाइडन के पूर्ववर्ती डोनाल्‍ड ट्रंप के समय से उठने लगे थे। ट्रंप के कार्यकाल से इस संगठन के वजूद पर सवाल खड़े हुए थे। अब तो इस संगठन के टूटने के आसार बन गए हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब अमेरिका के सहयोगी देश उसकी गतिविधियों पर नाराज हुए हैं।

गत पांच वर्षों से ऐसे कई मौके आए हैं, जब अमेरिका के सहयोगी देश उसके खिलाफ खड़े हुए हैं। ट्रंप के कार्यकाल में रूस के एस-400 मिसाइल को लेकर तुर्की और अमेरिका के बीच विवाद गहराया था। इस मामले को लेकर दोनों देशों के बीच नाराजगी कायम है। काबुल से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के तौर तरीके को लेकर ब्रिटेन भी अमेरिका से नाराज है। उसने अमेरिका को सुपर पावर मानने से भी इंकार कर दिया है। अगर हालात को बारीकी से देखा जाए तो नाटो के लिए यह अनुकूल स्थिति नहीं है।

क्‍या इस घटना का चीन से कोई लिंक है ?

इस पूरे घटनाक्रम का चीन से गहरा लिंक है। देख‍िए, नाटो की उत्‍पत्ति ऐसे समय हुई, जब शीत युद्ध का दौर था। पश्चिमी देशों और अमेरिका ने पूर्व सोवयित संघ को नियंत्रित करने के लिए इस संगठन को बनाया था। यही कारण है कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद इस संगठन पर सवाल उठने लगे थे। सरल शब्‍दों में समझें कि 21वीं सदी की दुनिया में तेजी से बदलाव आया है।

दुनिया में शक्ति संतुलन में बड़ा फेरबदल हुआ है। चीन अमेरिका का प्रबल प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर कर सामने आया है। इससे अमेरिका के समक्ष एक नई चुनौती खड़ी हुई है। अब अमेरिका उन देशों के साथ एक मजबूत संगठन बनाना चाहता है, जिनका चीन से टकराव है या चीन उन देशों के समक्ष सामरिक चुनौती पेश कर रहा है। ऐसे में अमेर‍िका को नाटो से ज्‍यादा उन देशों की ज्‍यादा जरूरत है, जो चीन के खिलाफ फ‍िट बैठ रहे हो। अमेरिका की आस्‍ट्रेलिया और भारत के प्रति दिलचस्‍पी की प्रमुख वजह चीन है।

क्‍या चीन क्वाड ग्रुप को अधिक महत्‍व दे रहा है ?

जी हां, चीन के बढ़ते प्रभुत्व को सीमित करने के लिए भारत, अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने मिलकर क्वाड ग्रुप बनाया है। इन चारों देशों में सैन्य शक्ति के हिसाब से आस्ट्रेलिया बहुत कमजोर देश है। आस्ट्रेलिया का रक्षा बजट केवल 35 बिलियन अमेरिका डालर है, जबकि भारत का बजट 65 बिलियन डालर, अमेरिका का 740 बिलियन डालर और ब्रिटेन का 778 बिलियन डालर है।

क्‍या है नाटो संगठन और उसका उद्देश्‍य

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