पुनर्वितरण ज़रूरी लेकिन विकास की कीमत पर नहीं- अमिताभ कांत.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हमारी आजादी के बाद के सालों में भारत में आर्थिक विकास के बजाय संपदा के पुनर्वितरण को तरजीह दी गई। हालांकि, ये पुनर्वितरण नीतियां गरीबी के स्तर में गंभीर चोट कर पाने में नाकाम रहीं, और इन्होंने आर्थिक विकास को सुस्त रखा। जहां 90 के दशक की शुरुआत में उदारीकरण की कोशिशों से संपदा के सृजन में विस्फोट हुआ और गरीबी में काफी कमी आई, वहीं उसके बाद के दशकों में इस सुधार के एजेंडे का असर खत्म हो गया।

इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च और सुधारों में बढ़ोतरी के नतीजतन जो असरदार विकास हुआ उसकी बुनियाद पर 2000 के दशक के आखिर में भारत में बड़े पैमाने पर पुनर्वितरण नीतियां लाई गईं। हालांकि, वैश्विक वित्तीय संकट के बाद जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था धीमी हुई, सरकारी खर्च का दायरा टिकाऊ नहीं रहा।

यहां कहने का मतलब ये नहीं है कि पुनर्वितरण नहीं करना चाहिए। जिन साधनों से पुनर्वितरण किया जाता है वे बड़े महत्वपूर्ण हैं। आईएमएफ के एक पेपर के मुताबिक कैश ट्रांसफर, प्रगतिशील टैक्स व्यवस्था और मानव पूंजी में निवेश ही वे मुख्य साधन हैं जिनके ज़रिए पुनर्वितरण किया जाता है। बेशक, यहां ऐसी सीमाएं हैं जिनमें से पहले और दूसरे साधन का इस्तेमाल किया जा सकता है।

मसलन, 1970 के दशक की शुरुआत को ही लीजिए। इस दौरान व्यक्तिगत आयकर का सबसे ऊंचा ब्रैकेट 95% से ज्यादा था। किसी प्रगतिशील टैक्स व्यवस्था में, एक चौड़े टैक्स बेस के जरिए सरकारी राजस्व को बढ़ाने की कोशिशें की जानी चाहिए, न कि मार्जिनल टैक्स रेट्स को बढ़ाकर। ठीक इसी तरह, कैश ट्रांसफर जहां महत्वपूर्ण हैं लेकिन इन्हें सरकारी लाभों और सेवाओं तक पहुंच बढ़ाने की कोशिशों के साथ किया जाना चाहिए। मानव पूंजी में निवेश की भी नियमित रूप से निगरानी और मूल्यांकन किया जाना चाहिए, सिर्फ इनपुट के लिहाज से ही नहीं बल्कि आउटपुट और नतीजों के लिहाज से भी।

बड़े पैमाने वाले पुनर्वितरण कार्यक्रमों की अपनी वित्तीय लागत भी होती है। सरकारी राजस्व या तो कर राजस्व से आ सकता है या फिर गैर-कर राजस्व से। कर राजस्व भारत में राजस्व का एक बड़ा हिस्सा है। जिसके नतीजतन कर राजस्व हमारी अर्थव्यवस्था की पूरी सेहत से बहुत महत्वपूर्ण रूप से जुड़ा हुआ है। इसका तर्क बड़ा सीधा सा है। जैसे-जैसे लोग ज्यादा कमाते हैं, टैक्स भी उतना ही ज्यादा इकट्ठा किया जाता है।

कर संग्रह तंत्र भी खासा महत्वपूर्ण है, जिसे स्वैच्छिक अनुपालन को बढ़ावा देना चाहिए। घाटे के वित्तपोषण को तब उपयोग में लाया जाता है जब सरकारी खर्च उसके राजस्व से ज्यादा होता है। इसका मतलब ये है कि सरकार अपने खर्चों को पूरा करने के लिए बाजार से पैसा उधार ले रही है। इसे ही राजकोषीय घाटा कहा गया है।
अब जब हमने ये स्थापित कर लिया है कि टैक्स कलेक्शंस का निर्धारण करने में अर्थव्यवस्था की सेहत बड़ी महत्वपूर्ण है, तो फिर हम अनुमान लगा सकते हैं कि टैक्स कलेक्शन को बढ़ाने के लिए अर्थव्यवस्था को बूस्ट करना यानी आर्थिक टुकड़े के आकार को बढ़ाना महत्वपूर्ण है। नॉर्डिक देशों का ही उदाहरण लीजिए। इन देशों को रहने के लिए लगातार सबसे अच्छी जगहें कहा गया है।

फिर भी, उनकी अर्थव्यवस्थाएं सबसे ज्यादा गतिशील भी हैं। इन देशों ने इकोनॉमिक फ्रीडम इंडेक्स में लगातार ऊंचा स्थान पाया है, जो कि एक देश में आर्थिक स्वतंत्रता की हद को मापता है। न्यूजीलैंड, जिसे आर्थिक स्वतंत्रता और ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस’ इन दोनों सूचकांकों में शीर्ष पर रखा गया है, उसकी अपने मजबूत सोशल सिक्योरिटी नेट्स के लिए काफी तारीफ की गई है। इसलिए, टिकाऊ और परिवर्तनकारी पुनर्वितरण नीतियों को चलाने की चाबी एक मजबूत और गतिशील अर्थव्यवस्था है।
भारतीय अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप देने और लंबे समय से चली आ रही अक्षमताओं को दूर करने के लिए, हमारे देश की मौजूदा सरकार ने खासे महत्वपूर्ण संरचनात्मक सुधार, शासनात्मक सुधार और नियामक सुधार किए हैं। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों करों में एक नई कर व्यवस्था शुरू की गई है। भारत की टैक्स प्रणाली में जो प्रतिकूल व्यवस्था निर्मित हो गई थी, उसके मुकाबले ये नई प्रणाली स्वैच्छिक अनुपालन और भरोसे को बढ़ावा देती है। फेसलेस मूल्यांकन और अपीलें, कॉर्पोरेट और व्यक्तिगत आयकर दरों में कमी, लंबित विवादों के लिए एक समाधान तंत्र, इनपुट टैक्स क्रेडिट के साथ जीएसटी, ये सब इस बात के सबूत हैं कि कराधान की एक नियम आधारित, स्वैच्छिक अनुपालन की प्रणाली लाई जा रही है।

भारत में हमने पुनर्वितरण नीतियों के तीनों साधनों को अभी और अतीत में भी सक्रिय देखा है। हालांकि, पहुंच इसमें एक प्रमुख बाधा बनी रही। क्योंकि सरकार द्वारा खर्च किया जा रहा पैसा उसके इच्छित लाभार्थियों तक नहीं पहुंच रहा था। मुझे याद है एक अधिकारी के तौर पर मेरे शुरुआती दिनों में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कहा था कि सरकार द्वारा खर्च किए गए हर एक रुपये में से 85 पैसे लीक हो गए। तब से इसमें एक बड़ा कायापलट हुआ है, खासकर हाल के कुछ बरसों में। बीते कुछ सालों में एक बड़ा फर्क लाने वाली चीज ये रही है कि तकनीक से सक्षम सर्विस डिलिवरी, जवाबदेही और पारदर्शिता पर ध्यान केंद्रित किया गया है। गैर-बराबरी का मुकाबला करने के लिए पहुंच यानी एक्सेस के मसलों को हल करना बड़ा जरूरी है।

स्वास्थ्य सेवा, स्वच्छता, पीने का पानी, बिजली, रसोई गैस, इंटरनेट, आवास और वित्त तक पहुंच, ये कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें बड़ी छलांग लगाई गई है। इसमें रिकॉर्ड सबके सामने है। पहुंच के मुद्दों को संबोधित करके ज्यादा संपदा और आय में असमानता की दिशा में एक बड़ी बाधा को दूर किया गया है। और इसे मार्जिनल टैक्स व्यवस्था में कोई खास बढ़ोतरी किए बिना हासिल किया गया है। पीएम-किसान योजना और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) के जरिए बड़े पैमाने पर कैश ट्रांसफर भी हो रहे हैं। मानव पूंजी पर भी उचित ध्यान दिया जा रहा है।

दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना भारत में चलाई जा रही है। अब शिक्षा की गुणवत्ता को मापने और शिक्षा तक हासिल की गई पहुंच पर ध्यान केंद्रित किया गया है। एक नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति शुरू की गई है, जो तीन दशकों में पहली बार हुआ है।

भारत में बीते सालों में असमानता से लड़ने के लिए बहुत कुछ किया गया है, जिसमें सरकारी लाभ और सेवाओं तक पहुंच में सुधार लाने पर जोर दिया गया है। इसे व्यय में किसी बड़ी बढ़ोतरी के जरिए नहीं, बल्कि कई कारकों के संयोजन के जरिए हासिल किया है। सबसे पहले तो बजट में बढ़ोतरी की गई। हालांकि, इसके साथ शासन में सुधार भी किए गए जिन्होंने जवाबदेही और पारदर्शिता को बढ़ावा दिया। तकनीक ने इसमें बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसने मजबूत निगरानी और मूल्यांकन प्रणालियों को सक्षम किया।

इसका नतीजा ये था कि पिरामिड के एकदम नीचे तक सेवाओं का कुशल वितरण हुआ। ठीक उसी वक्त, कई संरचनात्मक सुधारों के जरिए हमारी अर्थव्यवस्था की संभावित विकास दर को बढ़ावा देने की कोशिशें की गई हैं, जिनमें से प्रत्येक ने हमारी अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित अक्षमताओं को संबोधित किया है। कोई जरूरी नहीं कि पुनर्वितरण और विकास, प्रतिस्पर्धी नीतिगत लक्ष्य हों। पुनर्वितरण कार्यक्रमों के वित्तपोषण के लिए एक मजबूत अर्थव्यवस्था बड़ी जरूरी है। जिसके बदले में, पुनर्वितरण में इन निवेशों का लंबी अवधि में अर्थव्यवस्था पर कई गुना असर पड़ता है।

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