देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे दीनदयालजी.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
जन्मदिवस पर विशेष
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के दर्शन पर श्रेष्ठ विचार व्यक्त किये हैं। एकात्म मानववाद के विचार आज के युग में भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि उनके काल में थे। एकात्म मानववाद पर उनका कहना था कि हमारे यहां समाज को स्वयंभू माना गया है। राज्य एक संस्था के नाते है। राज्य के समान और संस्थायें भी समय−समय पर पैदा होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति इनमें से प्रत्येक संस्था का अंग रहता है। जैसे कुटुम्ब का मैं अंग हूं, जाति व्यवस्था हो तो उसका भी अंग हूं। मेरा कोई व्यापार है तो उसका भी अंग हूं। समाज, समाज के आगे पूर्ण मानवता पर विचार करें तो उसका भी अंग हूं।
मानव से बढ़कर यदि हम इस चराचर जगत का विचार करें तो मैं उसका भी अंग हूं। वास्तविकता यह है कि व्यक्ति नाम की जो वस्तु है, वह एकांगी नहीं बल्कि बहुअंगी है परन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अनेक अंगों वाला होकर भी परस्पर सहयोग, समन्वय को पूरकता और एकात्मकता के साथ चल सकता है। हर व्यक्ति को कुछ गुण मिला हुआ है।
जो व्यक्ति इस गुण का ठीक से उपयोग कर ले वो सुखी, व जो गुण का ठीक प्रकार से उपयोग न कर सके वह दुखी, उसका विकास ठीक नहीं होगा। दीनदयाल उपाध्याय की तत्व दृष्टि थी कि भारतीय संस्कृति समग्रतावादी है। यह सार्वभौमिक भी है। पश्चिम की दुनिया में हजारों वाद हैं। पूरा पश्चिमी जगत विक्षिप्त है। पश्चिम के पास सुस्पष्ट दर्शन का अभाव है। वही अभाव यहां के युवकों को भारत की ओर आकर्षित करता है। अमेरिका का प्रत्येक व्यक्ति आनंद की प्यास में भारत की ओर टकटकी लगाये हुए है।
भारत ने सम्पूर्ण सृष्टि रचना में एकत्व देखा है। भारतीय संस्कृति इसीलिए सनातन काल से एकात्मवादी है। पंडित जी के अनुसार सृष्टि के एक−एक कण में परम्परावलम्बन है। भारत ने इसे ही अद्वेत कहा है। भारत ने सभ्यता के विकास में परस्पर सहकार को ही मूल तत्व माना है। वस्तुतः एकात्म मानव दर्शन ही है। किन्तु इसे ‘एकात्म मानववाद’ इसलिए कहा गया कि पंडित जी भारत की राष्ट्रवादी पार्टी भारतीय जनसंघ के शिखर पुरुष थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के सर्वांगीण विकास और अभ्युदय के लक्ष्य भी भारतीय दर्शन से ही निरूपित किये थे।
महान राष्ट्रवादी विचारक पं. दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर सन् 1916 को मथुरा जनपद के नगला चन्द्रभान में पंडित भगवती प्रसाद उपाध्याय के घर में हुआ था जो कि भारतीय संस्कृति और परम्परा का पालन करते थे। उनकी मेधा बचपन से ही प्रबल थी तथा उन्होंने हाईस्कूल (मिडिल), इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उन्होंने बाद में बीए की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उस समय उनकी मेधा शक्ति चरम पर थी। पंडित जी ने अत्यंत विषम परिस्थितियों में अपनी पढ़ाई पूरी की।
पं. दीनदयाल उपाध्याय का चित्त समग्रता में एकात्म था इसीलिए रिक्तता वाले क्षेत्रों में स्वयं को समर्पित करने में वह बचपन से ही संलग्न थे। पं. दीनदयाल छात्र जीवन में ही संघ में शामिल हो गये थे। संघ के जीवनव्रती प्रचारक भाऊराव देवरस जैसे महान सेवा व्रती का सान्निध्य उन्हें प्राप्त हुआ ही साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशवराम बलिराम हेडगेवार का सान्निध्य भी उन्हें प्राप्त हुआ। छात्रावास में लगने वाली शाखा में वे प्रतिदिन जाते थे तथा उनका तन, मन और धन पूरी तरह से राष्ट्र को समर्पित हो गया।
पंडित जी घर गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे। पंडित जी ने अपने जीवन के एक−एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जिया है। पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे शब्द आज भी उपयोगी हैं। प्रारम्भ में समसामयिक विषयों पर वह ‘पालिटिकल डायरी’ नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पंडित जी ने राजनैतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोड़कर रचना कार्य को सदा के लिए उपयोगी बनाया है।
पंडित जी ने बहुत कुछ लिखा है। जिनमें एकात्म मानववाद, लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ का सिद्धांत और नीति, जीवन का ध्येय राष्ट्र जीवन की समस्यायें, राष्ट्रीय अनुभूति, कश्मीर, अखंड भारत, भारतीय राष्ट्रधारा का पुर्न प्रवाह, भारतीय संविधान, इनको भी आजादी चाहिए, अमेरिकी अनाज, भारतीय अर्थनीति, विकास की एक दिशा, बेकारी समस्या और हल, टैक्स या लूट, विश्वासघात दि ट्रू प्लान्स, डिवैलुएशन ए, ग्रेटकाल आदि। उनके लेखन का केवल एक ही लक्ष्य था भारत की विश्व पटल पर लगातार पुनर्प्रतिष्ठा और विश्व विजय।
पंडित जी ने संघ की अनेक पत्र पत्रिकाओं का काफी लम्बे समय तक संपादन कार्य भी किया जिसमें लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रधर्म व दिल्ली से प्रकाशित पांचजन्य पत्र प्रमुख हैं। पंडित जी एक ऐसे महान कर्मयोगी थे कि पत्र को समय पर निकालने के लिए उन्होंने रात भर कम्पोजिंग का कार्य किया। पंडित जी ने बहुत कम समय में ही सम्राट चन्द्रगुप्त जैसे चरित्र पर पुस्तक लिखकर भारतीय इतिहास के एक सांस्कृतिक निष्ठा वाले राज्य का चित्रण किया। निश्चित रूप से पंडित जी शब्द और कृति की एकात्मकता के सर्जक थे।
पंडित जी ने अपने लेखों व भाषणों में राजनीति में सुचिता पर भी विशेष बल दिया है। विश्व मानवता को भारत की पुण्य धरती के लाखों लाख ऋषियों के ज्ञान का सार तत्व एकात्ममानव दर्शन के रूप में पहुंचाने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय की जघन्य हत्या हुई और 11 फरवरी 1968 की रात ऋषि ज्योति परम ज्योति में एकाकार हो गई। उनका शव मुगल सराय रेलवे स्टेशन से प्राप्त हुआ था। इस रेलवे स्टेशन का नाम हाल ही में बदल कर पंडित दीनदयाल उपाध्याय रख दिया गया है।
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