ग्रामीण, खेतिहर व गरीब अदालतों का दरवाजा खटखटाने में झिझकते हैं,क्यों?

ग्रामीण, खेतिहर व गरीब अदालतों का दरवाजा खटखटाने में झिझकते हैं,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

न्यायाधिकरणों में जजों की नियुक्ति को रफ़्तार देने के साथ न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए चीफ जस्टिस रमन्ना की पूरे देश में तारीफ हो रही है। उन्होंने इसे साहस के साथ स्वीकारा कि आजादी के 74 साल बाद भी ग्रामीण, खेतिहर व गरीब अदालतों का दरवाजा खटखटाने में झिझकते हैं।

आम जनता की संवैधानिक आकांक्षाएं पूरा करने के लिए क़ानून, भाषा व अभिजात्य सिस्टम के 3 राज खंभों में बदलाव से जन आकांक्षाओं का चौथा खंभा बेहद मजबूत होगा। लेकिन इसके लिए चीफ जस्टिस के साथ सभी जजों, वकीलों, सरकार व संसद को सामूहिक प्रयास करने होंगे।

न्यायिक व्यवस्था का पूरा पिरामिड कानून से संचालित है। इसे बनाने और बदलने का हक़ सरकार और संसद को ही है। उद्योग व वाणिज्य क्षेत्र में ईज आफ डूइंग बिजनेस सफल बनाने के लिए दो दिन पहले महत्वपूर्ण सुधार किए गए। इसके तहत केंद्र व राज्य सरकारों में अनुपालन की 22 हज़ार प्रक्रियाएं ख़त्म करने के साथ 13 हज़ार नियम सरल बनाए गए।

अभियान के तहत 103 तरह के मामलों को अनापराधिक करने के साथ बाबा-आदम के जमाने के 327 नियम-कानून समाप्त कर दिए गए। आम जनता का दीवानी और फौजदारी कानून के तहत पुलिस, पटवारी और प्रशासन से ज्यादा वास्ता पड़ता है।

उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय की तर्ज पर आम जनता से जुड़े नियम, कानून, परंपराओं, प्रक्रियाओं को अब युद्धस्तर पर सरल बनाने की जरूरत है। बेवजह के नियम ख़त्म करके कुछेक जरूरी नियम-कानून डिजिटल बना दिए जाएं तो गवर्नेंस में सुधार के साथ अदालतों को मुकदमों के बोझ से मुक्ति मिलेगी।

न्यायपालिका के भारतीयकरण में सबसे बड़ी चुनौती अंग्रेजी भाषा है, जिसे देश की 1% से कम आबादी समझती है। सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ 69 हज़ार मामले हैं और वहां अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखने में हर्ज नहीं है। लेकिन हाईकोर्ट व जिला अदालतें, जहां 4 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं, वहां हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से आम जनता को राहत मिलेगी।

इसे सफल बनाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 348(2) के तहत जजों के साथ राज्य सरकारों को भी जरूरी कदम उठाने चाहिए। आम जनता और कानून के बीच खड़ी विदेशी भाषा अंग्रेजी की दीवार तोड़ने के लिए सभी जजों को फौलादी प्रयास करने होंगे।

देश में जल्द न्याय देने के लिए लोक अदालत की बेहतरीन व्यवस्था है। पिछले हफ्ते महाराष्ट्र में लोक अदालत के जरिए करीब 8.5 लाख मुकदमों का एक दिन में निपटारा हो गया। देश की सभी अदालतें डिजिटल हो गई हैं तो सभी पुराने मुकदमों के जल्द निपटारे के ठोस प्रयास होने चाहिए।

अदालतों में वीआईपी न्याय का सिस्टम सफल बनाने के लिए अभिजात्य परंपराओं, जटिल प्रक्रियाओं व लंबे चौड़े आदेशों की आड़ ली जाती है। लेकिन न्यायिक व्यवस्था में सभी बराबर हैं। लाखों पुराने मामले पीढ़ियों से चल रहे हों तो फिर बड़े लोगों के मामलों में फैसला कुछेक हफ़्तों में कैसे हो सकता है? इसे ऐसेे समझें कि कुछेक विशिष्ट यात्रियों को स्पेशल ट्रैक से ट्रेन सुपरफ़ास्ट स्पीड में मंजिल तक पहुंचा दे, जबकि बकाया जनता के लिए एक ही ट्रैक में कई पैसेंजर गाड़ियां, हर स्टेशन में रुकते हुए चींटी की रफ़्तार से घिसटती रहें।

पुराने मामले निपटाने से पहले नए मामलों को प्राथमिकता देना संविधान के अनुच्छेद 14 व 21 का गंभीर उल्लंघन है। पिछले दिनों एक मामले में चीफ जस्टिस ने डांट लगाते हुए कहा कि सीनियर एडवोकेट की मेंशनिंग पर बड़ी कंपनियों के मामलों पर प्राथमिकता देना अनुचित है। अस्पताल, डॉक्टरों व निजी स्कूलों की फीस तय हो सकती है, तो फिर बड़े वकीलों की फीस पर भी कानूनी बंधन क्यों न हो? कोर्ट के आदेश से सीनियर वकील का दर्ज़ा मिलता है। इसलिए महंगे वकीलों की फीस पर नियंत्रण के लिए सुप्रीम कोर्ट को न्यायिक आदेश पारित करने की जरूरत है।

न्यायिक व्यवस्था में अभिजात्यता के भयानक मर्ज़ को ठीक करना आज़ादी के अमृत पर्व के मौके पर बड़ी चुनौती है। न्यायमूर्ति नरसिम्हा 2027 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बन सकते हैं। उन्होंने कहा है कि कानूनी व्यवस्था में उपनिवेशवाद ख़त्म करना न्यायाधीशों के लिए संवैधानिक मिशन है। वायसराय की तर्ज़ पर भारत के राष्ट्रपति को ‘हिज एक्सीलेंसी’ या ‘महामहिम’ कहा जाता था, जिस पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने रोक लगा दी थी।

‘माय लॉर्ड’ संबोधन भारत की अदालतों में औपनिवेशिक अपसंस्कृति का सबसे बड़ा प्रतीक है। इसे ख़त्म करने के लिए कई जज औपचारिक मांग कर चुके हैं। इस परंपरा को ख़त्म करने के लिए चीफ जस्टिस यदि न्यायिक आदेश पारित कर दें तो न्यायिक व्यवस्था के भारतीयकरण का देशव्यापी शंखनाद हो जाएगा।न्यायिक व्यवस्था में अभिजात्यता के भयानक मर्ज़ को ठीक करना बड़ी चुनौती है। हाल ही में चीफ जस्टिस रमन्ना ने स्वीकारा कि आजादी के 74 साल बाद भी ग्रामीण, खेतिहर व गरीब लोग अदालतों का दरवाजा खटखटाने में झिझकते हैं। जनता की संवैधानिक आकांक्षाएं पूरी करने के लिए क़ानून, भाषा व अभिजात्य सिस्टम में अब बदलाव बहुत जरूरी है।

 

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