सरकार नए कृषि कानूनों के जरिये किसानों की बदहाली दूर करने के लिये कारगर उपाय कर रही है।
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
आजादी के बाद खेती-किसानी को देश का आत्मा मानते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ‘सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन खेती नहीं।’ दुर्भाग्यवश लोकलुभावन नीतियों और वोट बैंक की राजनीति के कारण खेती का इंतजार खत्म नहीं हुआ और वह बदहाली का शिकार बनती गई। आज स्थिति यहां तक आ गई है कि ग्रामीण मजदूरों की आमदनी किसानों से ज्यादा हो गई है।
2012-13 में एक औसत भारतीय किसान परिवार की खेती से होने वाली मासिक आमदनी 3,081 रुपये थी। छह साल बाद अर्थात 2018-19 में यह बढ़कर महज 3,798 रुपये पर पहुंची। दूसरी ओर इन छह वर्षों में मजदूरी से होने वाली कमाई 2,071 रुपये से बढ़कर 4,063 रुपये हो गई। पुराने कृषि कानूनों की ही देन है कि अब किसानों से ज्यादा मजदूरों की संख्या बढ़ रही है।
उदाहरण के लिए 2013 से 2019 के बीच खेती करने वाले परिवारों की संख्या जहां नौ करोड़ से बढ़कर 9.3 करोड़ हुई, वहीं कृषि कार्य में शामिल नहीं होने वाले परिवारों की संख्या 6.6 करोड़ से बढ़कर आठ करोड़ पर पहुंच गई। 2011 की जनगणना में भी बताया गया है कि हर रोज 2,000 किसान खेती छोड़ रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि पारिवारिक बंटवारे से खेतों का आकार इतना छोटा हो गया है कि उनमें खेती लाभकर नहीं रह गई है। खेती के घाटे का सौदा बनने का ही नतीजा है कि किसान का बेटा खेती करने का इच्छुक नहीं है। इतना ही नहीं कृषि विश्वविद्यालयों से स्नातक करने वाले अधिकांश छात्र अन्य व्यवसायों में जा रहे हैं।
एक ओर किसानों की आमदनी में ठहराव आया है तो दूसरी ओर उनके ऊपर कर्ज का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। उदाहरण के लिए 2012-13 में एक औसत किसान परिवार पर 47,000 रुपये का कर्ज था, जो कि 2018-19 में बढ़कर 74,121 रुपये हो गया। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि एक ओर किसानों की हालत मजदूरों से भी बदतर होती जा रही है तो दूसरी ओर कृषि उपजों के कारोबार में लगी कंपनियों का मुनाफा दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।
इसका कारण है कि जब किसान की उपज बाजार में आती है तब उसके दाम गिर जाते हैं और बाद में कई गुना बढ़ जाते हैं। स्पष्ट है भारतीय किसानों की बदहाली की एक बड़ी वजह यह है कि उनकी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती। इसका कारण है हर स्तर पर बिचौलियों का प्रभुत्व। इनको हटाकर उत्पादकों को सीधे उपभोक्ताओं से जोड़ने की मुहिम में मोदी सरकार जुटी है। इस दिशा में कारगर कदम है इलेक्ट्रानिक मंडी (ई-नाम) और किसान रेल का संचालन।
इस साल गुजरात में आलू की बंपर पैदावार हुई। स्थानीय स्तर पर किसानों को आलू बेचने में समस्या खड़ी हो गई। ऐसे में गुजरात सरकार ने रेलवे की मदद ली और 50 प्रतिशत छूट पर 248 टन आलू हिम्मतनगर से बिहार के मोतिहारी भेजा गया, जहां आलू की अच्छी कीमत मिली। इसी तरह महाराष्ट्र से प्याज बंगाल और पूवरेत्तर राज्यों को भेजी जा रही है। किसान रेल की विशेषता है कि इसमें किसानों के उत्पाद खराब नहीं होते और कम लागत में जल्दी पहुंच जाते हैं। किसान रेल का बड़ा लाभ यह हुआ कि किसान गेहूं-धान के बजाय फलों एवं सब्जियों की खेती को प्राथमिकता देने लगे हैं।
उल्लेखनीय है कि देश के 8.5 फीसद फसली क्षेत्र पर बागवानी फसलों की खेती की जाती है, लेकिन इनसे कृषिगत सकल घरेलू उत्पाद का 30 फीसद प्राप्त होता है। फलों एवं सब्जियों की खेती अन्य फसलों के मुकाबले चार से दस गुना ज्यादा रिटर्न देती है। शहरीकरण, मध्यवर्ग का विस्तार, बढ़ती आमदनी, खान-पान की आदतों में बदलाव के चलते दुनिया में अनाज के बजाय फलों-सब्जियों की मांग में तेजी से इजाफा हो रहा है।
प्रति व्यक्ति आय में एक फीसद की बढ़ोतरी से सब्जी की खपत 1.02 फीसद और फलों की 1.9 फीसद बढ़ जाती है। स्पष्ट है आने वाले वर्षों में फल एवं सब्जी की खपत में तेजी से इजाफा होना तय है, पर समस्या यह है कि चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा फल एवं सब्जी उत्पादक होने के बावजूद भारत इस बाजार में भरपूर हिस्सेदारी नहीं बना पाया है। भारत विश्व का 12.6 फीसद फल एवं 14 फीसद सब्जी उत्पादित करता है, लेकिन फलों एवं सब्जियों के कुल वैश्विक बाजार में उसकी हिस्सेदारी महज 0.5 एवं 1.7 फीसद ही है।
इसी को देखते हुए मोदी सरकार फलों-सब्जियों की खेती को बढ़ावा दे रही है। इसके लिए सरकार कृषि उत्पादक संगठन (एफपीओ) बना रही है। 2020 में शुरू हुई इस योजना के तहत अगले तीन साल में देश भर में 10,000 एफपीओ बनाने का लक्ष्य है। हर एक एफपीओ में 50 प्रतिशत छोटे, सीमांत और भूमिहीन किसान शामिल होंगे। इसके अलावा प्रत्येक एफपीओ के उसके काम के अनुरूप 15 लाख रुपये का अनुदान भी दिया जाएगा।
दूसरे शब्दों में किसानों को उद्यमी बनाने का प्रयास है एफपीओ। गांवों में कृषि से जुड़े आधारभूत ढांचा निर्माण के लिए मोदी सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये के कोष का गठन किया है। इस फंड से कोल्ड स्टोरेज, वेयरहाउस, ग्रेडिंग और पैकेजिंग इकाइयां लगाने के लिए लोन दिया जा रहा है। इससे गांवों में निजी निवेश आएगा और नौकरियों का सृजन होगा।
समग्रत: मोदी सरकार नए कृषि कानूनों के जरिये किसानों की बदहाली दूर करने और उन्हें मजदूर बनने से रोकने का कारगर उपाय कर रही है। यह काम तभी होगा जब किसान बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़ें और अपनी उपज घरेलू एवं वैश्विक कृषि बाजारों में बेचें। दुर्भाग्यवश एक देश-एक मंडी की मांग करने वाले किसान संगठन और 2019 के अपने चुनावी घोषणा पत्र में कृषि उपज के व्यापार पर लगे सभी प्रतिबंधों को समाप्त करने का वादा करने वाली कांग्रेस पार्टी नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं।
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