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‘आया राम, गया राम’ की भारतीय राजनीति में एंट्री क्या मतलब है?

‘आया राम, गया राम’ की भारतीय राजनीति में एंट्री क्या मतलब है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आज के विशलेषण की शुरुआत एक कहानी से करेंगे। कहानी जो शुरू होती है साल 1967 में जब भारतीय राजनीति के इतिहास में एक नई इबारत लिखी जा रही थी। इस इबारत को लिखने वाले का नाम था- गया लाल। गया लाल हरियाणा के पलवल जिले के हसनपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने जाते हैं। लेकिन एक ही दिन में उन्होंने तीन बार अपनी पार्टी बदल ली। इतना तो लोग एक दिन में कपड़े भी नहीं बदलते। पहले तो उन्होंने कांग्रेस का हाथ छोड़कर जनता पार्टी का दामन थाम लिया। फिर थोड़ी देर में कांग्रेस में वापस आ गए।

करीब 9 घंटे बाद उनका हृदय परिवर्तन हुआ और एक बार फिर जनता पार्टी में चले गए। खैर गया लाल के हृदय परिवर्तन का सिलसिला जा रहा और वापस कांग्रेस में आ गए। कांग्रेस में वापस आने के बाद कांग्रेस के तत्कालीन नेता राव बीरेंद्र सिंह उनको लेकर चंडीगढ़ पहुंचे और वहां एक संवाददाता सम्मेलन किया। राव बीरेंद्र ने उस मौके पर कहा था, ‘गया राम अब आया राम हैं।’ इस घटना के बाद से भारतीय राजनीति में ही नहीं बल्कि आम जीवन में भी पाला बदलने वाले दलबदलुओं के लिए ‘आया राम, गया राम’ वाक्य का इस्तेमाल होने लगा। लेकिन भारत में दल-बदल की घटनाएं कोई ऐसी नई बात नहीं है जो चौथे आम चुनाव के बाद ही सामने आई हो।

1947 के निर्वाचनों के बाद संयुक्त प्रांत के बाद से मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों को कांग्रेस में शामिल होने का प्रलोभन दिया गया था और दल-बदलुओं में से हाफिज मुहम्मद इब्राहिम को मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया था। ऐसी कई सारी कहानियां और किस्से भारतीय राजनीति के इतिहास में दर्ज हैं। आप बात चाहें 1967 में मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह सरकार को गिराने की करें या फिर 1980 में हरियाणा में पूरी भजनलाल कैबिनेट का कांग्रेस में शामिल होने की करें।

जिग्नेश मेवानी का टेक्निकल कारण 

गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवानी बीते दिनों कांग्रेस के मंच पर दिखाई दिए। कांग्रेस पार्टी से 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया। लेकिन जिग्ननेश आधिकारिक रूप से शामिल नहीं हुए लेकिन उनके साथ मौजूद कन्हैया कुमार ने कांग्रेस की सदस्यता ली। जिग्नेश मेवानी के कांग्रेस में शामिल नहीं होने के पीछे एक टेक्निकल कारण बताया गया। इसका टेक्निकल कारण का दल बदल निरोधक कानून यानी संविधान की दसवीं अनुसूचि में जवाब मिलता है।

1991 में दल बदल विरोधी कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया महत्वपूर्ण फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने नंवबर 1991 में दल-बदल विरोधी कानून के बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था। यह फैसला मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, गुजरात और मध्य प्रदेश के अयोग्य ठहराए गए विधायकों की याचिकाओं के सिलसिले में दिया गया था। 1985 के प्रावधान की 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ़ 6 के मुताबिक़ स्पीकर या चेयरपर्सन का दल-बदल को लेकर फ़ैसला आख़िरी होगा।  पैराग्राफ़ 7 में कहा गया है कि कोई कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता।

लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया लेकिन पैराग्राफ़ 7 को असंवेधानिक क़रार दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इसमें कहा गया कि दल बदल निरोधक कानून बनाने के वक्त उसमें अदालती दखल की गुंजाइश खत्म करने वाले प्रावधान में राज्यों से सहमति नहीं ली गई थी। इसलिए ये राज्य पुनरीक्षण के अंतर्गत आता है और इसमें हम दखल दे सकते हैं। इसके साथ ही कहा गया कि दल बदल कानून में अगर कोई मामला फंसता है तो वो कोर्ट जा सकता है। कोर्ट उस पर सुनवाई कर सकता है।

चार मूल प्रावधान

1.) स्वेच्छा से त्यागपत्र (पार्टी)- जैसे कोई नेता किसी भी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ते हैं, जीतते हैं और फिर स्वेच्छा से त्यागपत्र दे देते हैं। ऐसे में इसे दल बदल कानून के अंतर्गत माना जाएगा। फिर उसकी सदस्यता खत्म हो जाएगी। इसके पीछे ये तर्क दिया गया कि जैसे कोई भी नेता कांग्रेस के टिकट पर कानपुर से चुनाव लड़ता है और जीत दर्ज करने के बाद अपनी पार्टी से इस्तीफा दे दिया।

तो यहां स्वेच्छा से त्यागपत्र की बात आई और फिर इस स्थिति में उसकी सदस्यता खत्म मानी जाएगी। या फिर कोई कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो भी उसकी सदस्यता जा सकती है।

2.) व्हिप/ सचेतक की बात का उल्लंघन- सभी राजनीतिक पार्टियां व्हिप जारी करती हैं। व्हिप को सरल और संक्षिप्त में बताए तो पार्टी द्वारा अपने सदस्यों के लिए जारी किया गया एक तरह का दिशा-निर्देश होता है। व्हिप का उल्लंघन करने पर भी सदस्यता खत्म की जा सकती है। एक ही स्थिति में वो बची रह सकती है जैसे मान ले कि कांग्रेस ने कोई व्हिप जारी किया और उसके कुछ विधायकों ने उसे नहीं माना। पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट यानी क्रॉस वोटिंग की जाती है, स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है। ऐसे में अगर पार्टी ने उसको 15 दिनों के अंदर माफ नहीं करती है तो उनकी सदस्यता चली जाएगी।

3.) एक तिहाई सदस्य- अगर किसी पार्टी के एक तिहाई सदस्य एक साथ उस पार्टी से इस्तीफा दे देते हैं। ऐसे केस में इसे दल बदल नहीं माना जाएगा।

4.) दो तिहाई सदस्य- चौथा प्रावधान ये है कि अगर दो तिहाई सदस्य पार्टी से इस्तीफा देकर किसी दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं तो इसे दो पार्टी का विलय माना जाएगा। फिर उन पर दल बदल कानून के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है।

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