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अधिक अंक प्राप्त करने की होड़ में क्या हम मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखा कर रहे हैं?

अधिक अंक प्राप्त करने की होड़ में क्या हम मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखा कर रहे हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दिल्ली विश्वविद्यालय यानी डीयू देश में उच्च शिक्षा के सबसे पसंदीदा संस्थानों में से एक है। गत सप्ताह डीयू ने प्रवेश सूची जारी की, जिसमें यही दिखा कि कई पाठ्यक्रम ऐसे हैं, जिनमें प्रवेश के लिए कटआफ शत प्रतिशत अंकों तक चला गया। यह हमारे शैक्षिक तंत्र की नाकामी के साथ-साथ हमारी सोच और समाज की नाकामी का भी संकेत है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) समिति का सदस्य होने के नाते मैंने अपने अनुभवों के आधार पर आमूलचूल और तंत्रत्मक सुधारों की पैरवी की थी। पिछली सदी के अंतिम दशक की बात करें तो 55 प्रतिशत से अधिक और 60 प्रतिशत से कम प्राप्तांक को ‘गुड सेकेंड’ के रूप में एक बड़ी उपलब्धि माना जाता था।

वहीं किसी एक या दो विषय में 75 प्रतिशत अंकों के साथ विशिष्ट योग्यता (डिस्टिंकशन) की स्थिति पूरे परिवार की प्रसन्नता का माध्यम बनती। अब 95 प्रतिशत अंकों का पिछली सदी के अंतिम दशक के 50 प्रतिशत अंकों जितना ही मोल रह गया है। जिन छात्रों को 97,98 या यहां तक कि 99 प्रतिशत अंक मिले, वे भी हालिया रिलीज कटआफ में स्थान नहीं बना पाए। जिन्हें शत प्रतिशत अंकों के साथ प्रवेश मिला, उनके लिए एक कड़वी सच्चाई यही है कि उन्हें आगे और कड़ी चुनौतियां झेलनी हैं। स्पष्ट है कि यह एक ऐसा मसला है, जिसे हमें न केवल समझना होगा, बल्कि उस पर चिंतित होने की आवश्यकता भी है।

शत प्रतिशत अंक प्राप्त करना इतनी बड़ी उपलब्धि है कि उसे हासिल करने वाले बच्चों के माता-पिता उस पर बेहद खुश होंगे और संभव है कि वे अपने बच्चों की उत्कृष्टता का बखान करते नहीं थकेंगे। यह भी इस पर जश्न मनाने की एक वजह है। वहीं जिन छात्रों को शत प्रतिशत अंक प्राप्त नहीं हुए, वे अफसोस कर रहे होंगे कि मात्र दो-तीन फीसद के अंतर से इस उपलब्धि से वंचित रह गए।

विशिष्ट योग्यता के बारे में तो आज कुछ न ही कहा जाए तो बेहतर, जिसका प्रवेश के दृष्टिकोण से कोई मूल्य-महत्व नहीं रहा। ऐसे में शत प्रतिशत अंक हासिल करने में नाकामी की आशंका को लेकर छात्रों की मानसिक अवस्था की कल्पना ही डराती है।

अब शत प्रतिशत अंक कीवर्डस के आधार पर दिए जाते हैं। जो छात्र सही कीवर्डस के साथ उत्तर देता है, वह शत प्रतिशत अंक प्राप्त कर लेता है। कोई परीक्षक अक्सर यह भी सोचता है कि हर किसी को सौ फीसद अंक नहीं दिए जा सकते तो कुछ छात्रों को शत प्रतिशत अंक प्रदान करने के बाद उसका पैमाना कुछ बदल जाता है। इस प्रकार परीक्षक की मानसिक अवस्था अन्य छात्रों के पूर्ण अंक प्राप्त करने में बाधा बन जाती है।

क्या साल भर की मेहनत का तीन घंटे की परीक्षा के दौरान परीक्षण किसी अभ्यर्थी की क्षमताओं को परखने के लिए पर्याप्त है? वास्तव में यदि ऐसी परीक्षा में कोई पूरे अंक प्राप्त भी कर ले, तो यह उसका उचित मूल्यांकन नहीं होगा। भविष्य में आटोमेशन बढ़ने के साथ ही ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं जहां अधिकांश छात्रों को शत प्रतिशत अंक मिलें। ऐसी स्थिति के लिए हम कितने तैयार हैं?

जो छात्र शत प्रतिशत या 90 प्रतिशत तक अंक प्राप्त कर रहे हैं उनके अवचेतन में यह बात घर करती जाएगी कि शत प्रतिशत अंक एक मानदंड है। इससे बड़ी त्रसदी यह है कि वे सफलता को अंकों के पैमाने पर ही तौलने लगेंगे। उन्हें यह भी लगने लगेगा कि चूंकि वे शत प्रतिशत अंक प्राप्त कर रहे हैं तो वे अद्वितीय और सदैव सही हैं। मेरे हिसाब से यह शत प्रतिशत अंकों के साथ सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू है।

इन प्रतिभाशाली युवाओं के दिमाग में यही बात बैठ जाएगी कि वे कभी गलत नहीं हो सकते और उनके लिए शत प्रतिशत से कम अंक स्वीकार्य नहीं होंगे। न ही उन्हें दूसरे पायदान पर रहना किसी सफलता का अहसास कराएगा। वास्तव में सदैव शीर्ष पर रहना ही उनकी मन:स्थिति बन जाएगी।

इस प्रकार देखा जाए तो शत प्रतिशत और यहां तक कि 90 फीसद अंक एक तरह से भावनात्मक रूप से अशक्त छात्र तैयार कर रहे हैं। भविष्य में उन्हें इससे कमतर सफलता मिलेगी तो वे उससे कुंठित हो जाएंगे। हमने देखा भी है कि बीते कुछ वर्षो के दौरान छात्रों के बीच आत्महत्या का रुझान कैसे बढ़ा है। अपनी भावी पीढ़ियों को पढ़ाई में अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने की होड़ में धकेलकर क्या हम मानसिक स्वास्थ्य की एक बड़ी चुनौती को अनदेखा कर रहे हैं?

एनईपी के लिए अपनी सिफारिशें देने से पहले मैंने शिक्षा को लेकर गहन शोध किया था। मेरा विश्लेषण यही था कि आज जो पढ़ाया जा रहा है, वह शायद आने वाले पांच से दस वर्षों के दौरान रोजगारपरक न रह जाए, क्योंकि दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। इतना ही नहीं आटोमेशन के कारण संभवत: कई तरह के मौजूदा रोजगारों का भविष्य में कोई वजूद ही न बचे। मैंने पाया कि किसी व्यक्ति की सफलता में बुद्धिमत्ता का 20 प्रतिशत तक योगदान होता है।

ऐसे में शत प्रतिशत अंक हमें बहुत दूर तक नहीं ले जाएंगे। इसके अतिरिक्त हमें योग्यता के मूल्यांकन का दायरा बढ़ाकर उसमें बुद्धिमत्ता के साथ-साथ भावनात्मक, रचनात्मक, आध्यात्मिक और स्वास्थ्य गुणांकों को भी शामिल करना चाहिए। वैसे भी आज जो भी पढ़ाया जा रहा है और जिस प्रकार मूल्यांकन हो रहा है, वह शायद एक दशक में अप्रासंगिक हो जाए। ऐसे में क्या 90 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त करने के लिए इतनी भागदौड़ करना और जोखिम उठाना उचित है?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति वैसे तो वर्ष 2020 में जारी की गई, लेकिन वह तैयार 2018 में ही हो गई थी, जिसमें 2019 के दौरान कुछ आवश्यक संपादन हुए। ऐसे में इस नीति की व्यापक समीक्षा और खासतौर से कोविड के बाद उसके नए सिरे से संयोजन की आवश्यकता है। चूंकि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति कोविड से पहले के दौर में तैयार हुई थी तो हमें कोविड उपरांत उभरते परिदृश्य को देखते हुए उसमें आवश्यक संशोधन करने चाहिए।

वास्तव में हमें शिक्षा के समूचे ढांचे पर ही पुनर्विचार की दरकार है। अन्यथा भारत लंबे समय तक मध्यम एवं निम्न आय वाला देश बना रहेगा। इतना ही नहीं मौजूदा व्यवस्था के छात्रों की मानसिक सेहत पर भी खासे गंभीर दुष्प्रभाव देखे जाएंगे और अतिवादी कदम उठाना बेहद आम हो जाएगा। इस स्थिति में सुधार के लिए यह बड़ी कार्रवाई का समय है।

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