आखिर हम अपनी शिक्षा-व्यवस्था के सुधार की शुरुआत कहां से करें?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
स्वतंत्रता-प्राप्ति के उपरांत देश की शिक्षा-व्यवस्था के समक्ष कई प्रकार की चुनौतियां थीं। सबसे बड़ी चुनौती तो यह थी कि आखिर हम अपनी शिक्षा-व्यवस्था के सुधार की शुरुआत कहां से करें? प्रारंभिक दृष्टि से देश के नागरिकों को साक्षर करना, समाज के सभी वर्गो तक शिक्षा का पहुंचना, देश का चतुर्दिक विकास हो सके, इसके लिए व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों को स्थापित करना एवं अंग्रजों की शिक्षा-व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन करके उसे भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप तैयार करना एक बड़ी चुनौती थी।
1947 में कुल साक्षरता दर 12 फीसद तथा महिलाओं के लिए यह आंकड़ा 5 फीसद था। 2021 में कुल साक्षरता दर 77 फीसद तथा महिलाओं का 70 फीसद है। 1951 में 2 लाख 28 हजार विद्यालय, 518 महाविद्यालय एवं 18 विश्वविद्यालय थे। आज देश में 15.58 लाख विद्यालय, 45 हजार से अधिक महाविद्यालय एवं 1 हजार से अधिक विश्वविद्यालय है। इसी प्रकार 6 से 11 आयु वर्ग के बालकों का नामांकन 1951 में 43 फीसद था।
आज लगभग 100 फीसद हो गया है। वर्ष 2009 में अनिवार्य एवं नि:शुल्क बाल शिक्षा अधिनियम लाया गया। व्यवसायिक उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आइआइटी और आइआइएम आदि उत्कृष्ट संस्थानों के माध्यम से वैश्विक स्तर पर हमारी पहचान बनाने में काफी सहयोग प्राप्त हुआ है। इंजीनियरिंग के मात्र 30 संस्थानों से हम 6 हजार तक पहुंचे हैं।
स्वतंत्रता के बाद शिक्षा देश की प्राथमिकता का विषय नहीं बनी। 21 वर्ष बाद 1968 में हमारी प्रथम शिक्षा नीति बनी। स्वतंत्र भारत में प्रथम आयोग 1948 में उच्च शिक्षा हेतु, द्वितीय आयोग 1952 में माध्यमिक शिक्षा हेतु बना। प्राथमिक शिक्षा हेतु आज तक कोई आयोग नहीं बना। यह दिशाहीनता का परिचायक है। यूनेस्को के 2019 के एक अध्ययन के अनुसार विज्ञान, तकनीकी एवं गणित के 53 फीसद भारतीय छात्र नौकरी के योग्य नहीं हैं।
क्योंकि हमारी शिक्षा मात्र सैद्धांतिक है जिसमें छात्रों को व्यवहारिक ज्ञान उपलब्ध ही नहीं होता। सरकारी संस्थाओं में स्वायत्तता शून्य है। निजी शैक्षिक संस्थानों में स्वायत्तता का दुरुपयोग करते हुए अधिकतर संस्थान व्यापार में लगे हुए हैं। शोध के क्षेत्र में हम पीएचडी की डिग्री तक सीमित हैं। हमारी आवश्यकता के अनुरूप शोध बहुत ही कम हो रहे हैं। जीडीपी का 0.07 फीसद मात्र हम शोध के लिए खर्च करते हैं।
संस्कारों एवं नैतिक मूल्यों की शिक्षा के अभाव में पढ़े लिखे लोग भ्रष्टाचार व अनेक प्रकार के कुकृत्यों में संलिप्त पाए जाते हैं। शिक्षा-क्षेत्र की इन सब चुनौतियों का समाधान ढ़ूंढ़ना अभी शेष है।
भारत में सामाजिक असमानता के स्तर के बारे में सब जानते है, और स्कूल एवं कक्षा में भी यह असमानता अध्यापकों तथा विद्यार्थियों द्वारा लाई जाती है। भाषा, जाति, धर्म, लिंग, स्थान, संस्कृति और रिवाज़ जैसे सामाजिक अंतर के पक्षपात पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाए जाते हैं।
बच्चे का लिंग, आर्थिक वर्ग, स्थान और जातीय पहचान काफी हद तक यह पहचान करवा देते हैं कि बच्चा किस तरह के स्कूल में पढ़ेगा, स्कूल में उसे किस तरह के अनुभव मिलेंगे और शिक्षा प्राप्त करके वे क्या लाभ प्राप्त कर सकेगा। आज के समय में जब कक्षाओं में विविध परिवेशों से आने वाले विद्यार्थियों की संख्या अधिक है और इसलिए यह अत्यंत आवश्यक हैकि भेदभाव भूल कर, प्रत्येक बच्चे को समान शिक्षा देने की ज़िम्मेदारी उठाई जाए।
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