क्यों बाढ़, बादल फटने और भूस्खलन के मामले आ रहे सामने?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
जलवायु पर्वितन का खतरा वास्तविक है, संकट सामने है और भविष्य तबाही वाला है। आइपीसीसी-2021 की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से यह बात कही गई है। हम सब रोजाना की जिंदगी में इन संकटों का अनुभव कर रहे हैं। अत्यधिक गर्मी के कारण जंगलों में आग से लेकर प्रलयंकारी बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। समुद्र और जमीन के तापमान में अंतर के कारण भयंकर चक्रवात बन रहे हैं।
इस साल भारत में बाढ़, बादल फटने और भूस्खलन के कई मामले सामने आए हैं। पिछले तीन साल में उत्तराखंड में 7,500 से ज्यादा बार अत्यधिक बारिश के मामले दर्ज किए गए हैं। यह बात सब जानते हैं कि घटती बर्फ, पिघलते ग्लेशियर और इसी तरह की अन्य घटनाएं उत्तराखंड और अन्य हिमालयी राज्यों में अप्रत्याशित मौसम का कारण बन रही हैं।
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण जमीन और हवा पर भी दुष्प्रभाव पड़ रहा है। वायु की गुणवत्ता की बात करें तो दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है। देश के कई अन्य शहरों में भी प्रदूषण का स्तर सामान्य से बहुत ज्यादा है। कोयला और जीवाश्म ईंधन प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण हैं। भारत में सालाना करीब 195 करोड़ टन कोयला और पेट्रोलियम आदि का प्रयोग होता है। यही कारण है कि कई आपदाएं समय से पहले ही नजर आने लगी हैं।
भारत जलवायु परिवर्तन के कारण कई तरह की आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का भी सामना कर रहा है। हालिया अध्ययनों में पाया गया है कि यदि जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ रहे दुष्प्रभावों न होते तो भारत की जीडीपी करीब 25 प्रतिशत ज्यादा होती। वैश्विक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से कृषि क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभाव, समुद्र का जलस्तर बढ़ने और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के कारण भारत की जीडीपी 10 प्रतिशत कम हो सकती है। विज्ञान पत्रिका लैंसेट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु पर्वितन की वजह से असामान्य सर्दी या गर्मी के कारण भारत में सालाना 7.4 लाख अतिरिक्त मौत का अनुमान है। कम आय वाले और हाशिए पर जी रहे लोग जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं।
पेरिस समझौता और अब आगामी सीओपी26 से कई उम्मीदें हैं। कई देशों ने औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि को औद्योगिक काल के औसत तापमान की तुलना में दो डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 2015 में नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन (एनडीसी) को पेश किया था। भारत उत्सर्जन करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है। कुल वैश्विक उत्सर्जन में इसकी हिस्सेदारी सात प्रतिशत है और यहां प्रति व्यक्ति सालाना कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन 134 किलोग्राम है, जो कि वैश्विक औसत से कम है।
अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के देश ऐतिहासिक तौर पर जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसे में भारत को जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के कदमों के लिए लागत वहन नहीं करना चाहिए। भारत ने पहले ही 2030 तक उत्सर्जन को 2015 की तुलना में 33 से 35 प्रतिशत कम करने का लक्ष्य रखा है। भारत न केवल अपने लक्ष्य की ओर सही गति से बढ़ रहा है, बल्कि 2030 तक इससे आगे पहुंच जाएगा। अमेरिका और यूरोपीय सहित विकसित देश लक्ष्य से बहुत पीछे चल रहे हैं। उन्हें नजीर स्थापित करनी होगी।
क्लाइमेट फाइनेंस और टेक्नोलाजी ट्रांसफर की दिशा में मजबूत कदम उठाने की जरूरत है। मंत्रीस्तरीय कांफ्रेंस में अमीर देशों की ओर से मदद को लेकर भारत की चिंता पर काम का भरोसा दिया गया था। भारत सीओपी से संतुलित नतीजे पाने की दिशा में काम करेगा।
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