दिल्ली में न तो सरदार पटेल का कोई घर है और न ही अब तक कोई स्मारक बना,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
सरदार पटेल 1946 की अंतरिम सरकार में जब गृहमंत्री बने तो, बिना घर वाले होम मिनिस्टर थे। ना दिल्ली में अपना घर था, ना अहमदाबाद में, ना ही बारदोली या करमसाद में। दिल्ली में बिरला हाउस में रुका करते थे, अहमदाबाद, बारदोली, मुंबई में भी उनके कई अलग अलग ठिकाने थे। भले ही आज दुनिया में सबसे ऊंची प्रतिमा उनकी है, लेकिन सच ये है कि आज भी उनका दिल्ली में कोई स्मारक नहीं है, हां, पटेल नगर जरूर बसा है। उनको सरकारी आवास भी नहीं मिला, जिसे कि नेहरु जी के तीन मूर्ति भवन की तरह स्मारक बना दिया जाता।
गृहमंत्री बनने के बाद बिरला हाउस में रुकना भी ठीक नहीं था, सरकारी आवंटन शुरू नहीं हुए थे। उनके काम आए इंडस्ट्रियलिस्ट बनवारी लाल, सरदार के बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल अक्सर उनके यहां रुका करते थे। उन्हें सरदार की समस्या के बारे में पता चला तो अपना एक खाली पड़ा बंगला आफर कर दिया। पता था एक, औरंगजेब रोड (अब एपीजे कलाम रोड)। पटेल भी मान गए।
बेटी मणिबेन से पूछा कि क्या इतने सारे कमरों वाला बंगला संभाल पाओगी? मणिबेन भी परेशान थीं, उनके मुताबिक पांच कमरे काफी थे, एक बेडरूम, एक आफिस के लिए, एक सहायक के लिए, एक मिलने आने वालों के लिए बैठक और एक मेहमानों के लिए. कहा, ‘बापू हम यहां बंगले की टेककेयर के लिए तो आए नहीं हैं, हमारा काम तो पांच-छह कमरों में चल जाएगा। बाकी पर ताला लगा दिया।
दिनकर जोशी ‘सरदार द सोवरन सेंट’ में लिखते हैं कि, पहली रात ही मणिबेन परेशान हो गईं, सो नहीं पाईं, वजह था बंगले का गार्डन, जो रात-भर रंग-बिरंगी लाइटों से चमचमा रहा था। अगले दिन चौकीदार का जवाब था, ‘मैडम पेड़-पौधे रंगीन रोशनी में बड़े खूबसूरत लगते हैं’ लेकिन मणिबेन का जवाब सुनकर वो दंग था, बोलीं, ‘लेकिन रात को कौन देखेगा इस खूबसूरती को, व्यर्थ बिजली क्यों बर्बाद कर रहे हो’?
फिर यहीं सरदार अगले चार सालों तक, आखिरी दिन तक रहे। इसको लेकर सरदार बल्लभ भाई पटेल फाउंडेशन तभी से मुहिम चला रही है कि गांधी, नेहरु, बाबा साहब यहां तक कि इंदिरा गांधी का भी स्मारक है तो पटेल का भी दिल्ली में स्मारक होना चाहिए। वर्ष 2002 में बाजपेयी सरकार ने कोशिश भी की लेकिन बनवारी लाल के नाती विपुल ने तब 100 करोड़ कीमत मांग ली थी।
ये घर भी इस परिवार को 13 साल की कानूनी लड़ाई के बाद वापस मिला था, सरकार के कब्जे में था। विट्ठलभाई पटेल भी आखिरी बार यूरोप जाने से पहले अपनी किताबें, कपड़े और जरूरी कागजात इसी परिवार के पास छोड़ गए थे।
शरणार्थियों के शरणदाता
सरदार के पास अपना घर नहीं था, लेकिन पुनर्वास-राहत मंत्रालय के साथ मिलकर हजारों शरणार्थियों को आवास दिल्ली में दिलवाया। दिल्ली, बंगाल और पंजाब के अलावा बाकी देश में भी कुछ होता तो जिम्मेदारी पटेल पर आती थी। शरणार्थियों की वजह से दिल्ली 199 वर्ग-किमी से बढ़कर 10 साल में 326 वर्ग-किमी तक फैल गई। 1941 में एक वर्ग-किमी में मकान 836 से बढ़कर 1951 में 1250 हो गए।
मुस्लिमों के लिए नेहरु और हिंदुओं के लिए राजेन्द्र प्रसाद उन्हें पत्र लिखते और दोनों को सही जानकारी पटेल देते थे। दिल्ली में बड़ा मुद्दा था कि जो मकान पाकिस्तान गए मुस्लिमों ने खाली किए हैं, उनमें कौन रहेगा, पाकिस्तान में अपने घर छोड़कर आ रहे सिख-हिंदू या फिर मेवात से आए मुस्लिम। ‘सरदार पटेल, मुसलमान और शरणार्थीÓ में चोपड़ा दंपती लिखते हैं कि ‘सरदार इस निर्णय से आश्चर्यचकित थे कि दिल्ली के मुस्लिम प्रधान मोहल्लों में खाली पड़े मकानों को गैर मुस्लिमों को ना दिया जाए ताकि कुछ मोहल्ले दिल्ली में मुस्लिम ब्लाक बने रहें’।
सरदार पटेल को यह प्रस्ताव गलत लगा क्योंकि इससे शहर मे छोटे छोटे पाकिस्तान और हिंदुस्तान बन जाते और आपसी विश्वास में कमी आती। मृदुला साराभाई का प्रस्ताव तो और भी अजीब था, कि करनाल से 20-30 हजार मुसलमानों को लाकर दिल्ली में में बसाया जाए। पटेल इसके भी खिलाफ थे, नतीजा ये हुआ कि कई लोग उनके विरोध में आ गए। सच ये है कि अगर वो पूर्वी बंगाल में सेना भेजने की धमकी ना देते तो लियाकत-नेहरु समझौता ना होता, पश्चिमी पंजाब में अपहृत हिंदू-सिख महिलाएं वापस ना आतीं।
बावजूद इसके सरदार पटेल को जब निजामुद्दीन औलिया की दरगाह से किसी अनहोनी की आशंका का संदेश मिला तो वो रात में ही शाल लपेटकर वहां पहुंच गए। 45 मिनट तक रुके भी। पाकिस्तान से आ रहीं लाशों भरी ट्रेनों के जवाब में जा रही ट्रेनों पर हमला ना हो, सो सिखों को समझाने खुद सितंबर 1947 में अमृतसर जा पहुंचे। एक बार तो फैज बाजार पुलिस स्टेशन के बाहर उन पर एक मुस्लिम कब्जे वाली इमारत से गोलियां तक चलीं, पुलिस वालों ने उनसे इमारत उड़ाने की इजाजत मांगी, लेकिन पटेल ने कहा रहने दो।
सब कुछ गंवाकर पाकिस्तान से आए शरणार्थी बेहद आक्रोशित थे, ऐसे में सिख-राजपूत रेजीमेंट्स काबू नहीं कर पा रही थीं, तो सरदार ने मद्रास रेजीमेंट बुलाई, तब हालात काबू में आए। इधर दिल्ली के बाहर भी सरदार को देखना था, जूनागढ़, हैदराबाद जैसी तमाम रियासतों को मिलाकर मजबूत भारत बनाना था, इस स्थिति में उनको ध्यान ही नहीं रहा कि अपना घर भी होना चाहिए।
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