सरदार पटेल के बिना विशाल भारत की कल्पना भी पूरी न होती.

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सरदार पटेल की जन्म जयंती 

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

महात्मा गांधी से छह बरस छोटे और जवाहर लाल नेहरू से 14 बरस बड़े थे सरदार वल्लभभाई पटेल। एक सफल वकील रहने के बाद वे गांधी जी के आंदोलन से जुड़े और असाधारण संगठन क्षमता के कारण 1922 से 1928 के बीच क्षेत्रीय नेता से सरदार बन राष्ट्रीय नेता के रूप में इस तरह उभरे कि 1928 के कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में उनको कांग्रेस सभापति बनाने की आम राय बनी, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आंदोलन में शीर्ष नेतृत्व ने उनकी जगह मोतीलाल नेहरू की इच्छा का सम्मान करते हुए उनके पुत्र को सभापति चुना।

समान सोच से बने संबल

1934 से 1939 के दौर में कांग्रेस के आंतरिक वैचारिक संघर्ष तेज हुए। इसमें समाजवादी, साम्यवादी और उग्र कांग्रेसी धारा उफान पर थी जो गांधी जी का सम्मान तो करती थी, लेकिन उनकी राजनीति के अनुशासन को लांघकर अंग्रेजों से टक्कर लेने के लिए तेजी से बढ़ना चाहती थी। युवाओं के बीच इस धारा का प्रभाव बढ़ रहा था और गांधी जी के साथ पिछले 14 साल से चलने वाले नेतागण इस तरह की आंतरिक चुनौती को अस्थिरता लाने के प्रयत्न के रूप में देखते थे।

इस पुराने नेतृत्व की ओर से सरदार पटेल ने काम किया और अगले पांच साल में उनका कद इतना बढ़ गया कि वे कांग्रेस के सबसे शक्तिशाली नेता बन गए। गांधी जी उनके पीछे थे और जो सरदार पटेल कर रहे थे, उसके साथ इस तरह से थे कि उन्होंने यह मान लिया कि वे और सरदार पटेल एक ही हैं, एक ही तरह से सोचते हैं।

नेतृत्व के वास्तविक नायक

सरदार पटेल, गांधी जी की शक्ति को सांगठनिक अनुशासन के साथ अक्षुण रखते हुए बढ़ते रहे। कांग्रेस को शक्तिशाली और अनुशासित बनाने के लिए बहुत कठोर निर्णय लिए। जो भी कांग्रेस को दूसरी दिशा में ले जाना चाहते थे, उनके लिए सरदार पटेल मुख्य बाधा थे। 1942 के आंदोलन के बाद जब राष्ट्रीय कांग्रेस का पूरा नेतृत्व जेल में था, भारत की राजनीति में गुणात्मक अंतर पैदा हुआ।

यह तय था कि अंग्रेजों की कमर टूट चुकी है और वे भारत को कब्जे में नहीं रख पाएंगे। चर्चिल को हिटलर ने नहीं उसकी जनता ने हराया और लेबर पार्टी की जीत हुई। अब देश अंग्रेज मुक्त होगा, यह तय था, लेकिन इस बीच दो बड़े परिवर्तन हुए- प्रथम, देश के मुसलमानों के बीच पाकिस्तान के लिए जिन्ना ने समर्थन पैदा कर लिया, जिसमें अंग्रेज मददगार बने और द्वितीय, गांधी जी राजनीतिक प्रक्रिया में अंग्रेजों के लिए उतने महत्वपूर्ण नहीं रहे।

अंग्रेजों के साथ ही देश का पूंजीपति वर्ग अब बांबे (अब मुंबई) प्लान के लिए नेहरू और सरदार पटेल को ज्यादा महत्व देने लगा। गांधी जी को सुनना छोड़ दिया गया। गांधी जी के पाश्र्व में जाने के इस दौर में सरदार पटेल ने ही कांग्रेस का वास्तविक नेतृत्व किया।

मुश्किल निर्णयों में अडिग

1934 से लेकर जीवन के अंत (1950) तक कांग्रेस के जहाज को कैसे चलना है, किससे क्या करवाना है, वित्त भार को उठाने के लिए किससे कितना लेना है और उसे कैसे खर्च करना है, इसका अंतिम निर्णय वल्लभभाई पटेल ही लेते थे। घनश्यामदास बिड़ला, महादेव देसाई, राजेंद्र प्रसाद, कृपलानी हर किसी से वे ही जुड़े थे और वे ही गांधी जी के निर्देशानुसार संचालन करते थे। एक बात कही जाती है कि कांग्रेस हित में जितने कठिन (अलोकप्रिय) फैसले होते थे, वे सरदार पटेल द्वारा लिए होते थे।

पैसों का इंतजाम, स्थानीय मुद्दों और नेताओं में उठापटक के बीच उम्मीदवार का चुनाव और कठोर निर्णय लेने जैसे काम सरदार पटेल ही करते रहे। सुभाष चंद्र बोस और गांधी जी के बीच के टकराव में सरदार पटेल की बड़ी आलोचना होती है और अक्सर लोग सुभाष चंद्र बोस के पटेल विरोधी विचारों के आधार पर सरदार पटेल को दोषी मान लेते हैं,

लेकिन उस समय के राजनीतिक संघर्ष को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही देखना चाहिए। सरदार पटेल, राजगोपालाचारी, गोविंद बल्लभ पंत, राजेंद्र प्रसाद और यहां तक कि विधान चंद्र राय सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध खड़े होकर एक पक्ष के लिए लड़ रहे थे। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि गांधी जी के लिए सरदार पटेल ही खड़े थे। नेहरू कई स्थानों पर या तो कुछ चुप से हो जाते थे या निर्णायक क्षण बीत जाने के बाद इस तरह के वक्तव्य देते थे, जिसको लोग अपने-अपने तरीके से समझ लेते थे।

देश को बांधा एक सूत्र में

यह सरदार पटेल की सांगठनिक क्षमता का ही कमाल था कि 1946 और 1947 के सबसे कठिन वर्षों में जब देश आजाद और विभाजित दोनों हो रहा था, देश की एकता का संकल्प लेकर सरदार पटेल ने लौह पुरुष की तरह देश को एक सूत्र में बांधा। यह तो तय मानना चाहिए कि देश की बागडोर उनके हाथ में थी, गांधी या नेहरू के हाथ में नहीं। इस दौरान सरदार स्वस्थ नहीं थे, फिर भी राष्ट्र के लिए उन्होंने इतना कुछ किया कि इतिहास इसकी अनदेखी नहीं कर सकता। उनके बिना भारत की राजनीतिक एकता संभव न होती। हैदराबाद और कश्मीर की अक्सर चर्चा होती है, लेकिन सच यह है कि देसी रियासतों के विलय की लगभग पूरी प्रक्रिया में सरदार पटेल ने अतुलनीय कार्य किया है।

कृतज्ञ है राष्ट्र

सरदार पटेल सांप्रदायिक नहीं बल्कि राष्ट्रवादी थे। इतिहास के तथ्यों को उसके संदर्भ से काटकर देखा और सुनियोजित तरीके से उनकी सांप्रदायिक छवि को रखा जाता रहा। उनकी शतवार्षिकी के समय आपातकाल का दौर चल रहा था और उस समय सरकार का सहयोग उनके ऐतिहासिक मूल्यांकन के लिए नहीं होना बिल्कुल भी सही नहीं हुआ, लेकिन सरदार पटेल एक राष्ट्रीय नेता थे। वे कांग्रेस आंदोलन के नेता तो थे ही, लेकिन कांग्रेस के बाहर भी उनकी राष्ट्रीय नेता की छवि थी, जिसका सम्मान था।

जब भाजपा सरकार बनी, उस समय लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने सरदार पटेल को नेहरू से अलग दृष्टि वाले राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रतिष्ठित करने की चेष्टा की। हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की ऊंची मूर्ति बनाकर उनको अपने तरीके से महत्व दिया। आज सरदार पटेल के जन्मदिन को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाया जा रहा है और कृतज्ञ राष्ट्र अपने सरदार को राष्ट्रीय नायक के रूप में देख रहा है, लेकिन सरदार पटेल के व्यक्तित्व और कृतित्व का यथोचित मूल्यांकन तभी संभव है जब इतिहासकार उनके किए और कहे का विधिवत दस्तावेजीकरण करें और देश के इतिहास में उनको समुचित महत्व दें। अभी भी उनके कार्यों का विधिवत मूल्यांकन नहीं हुआ है। वे वास्तविक अर्थों में देश के निर्माता थे।

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