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दीवाली है तो त्योहार मनाने के लिए चीनी सामान क्यों लें? - श्रीनारद मीडिया

दीवाली है तो त्योहार मनाने के लिए चीनी सामान क्यों लें?

दीवाली है तो त्योहार मनाने के लिए चीनी सामान क्यों लें?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय परम्पराओं और शास्त्रों में केवल लाभ अर्जन करने को ही लक्ष्य नहीं माना गया बल्कि वह लाभ शुभता के मार्ग से चल कर आया हो तो ही स्वीकार्य माना गया है। “शुभ-लाभ” से यही आशय है। विभिन्न अवसरों पर जिस प्रकार हम हमारे राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी चीन के सामानों का उपयोग कर रहें हैं उससे तो कतई और कदापि शुभ-लाभ नहीं होनें वाला है।

एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में हम, हमारी समझ, हमारी अर्थ व्यवस्था और हमारी तंत्र-यंत्र अभी शिशु अवस्था में ही है। इस शिशु मानस पर इस्लाम और अंग्रेजों की लूट खसोट की अनगिनत कहानियां हमारे मानस पर अंकित हैं। यद्दपि हम और हमारा राष्ट्र आज उतने भोले नहीं हैं जितने पिछली सदियों में थे तथापि विदेशी सामान को क्रय करने के विषय में हमारे देशी आग्रह कमजोर क्यों पड़ते हैं इस बात का अध्ययन और मनन हमें आज के इस “बाजार सर्वोपरि” के युग में करना ही चाहिए!!

हम भारतीय उपभोक्ता जब इस दीपावली की खरीदी के लिए बाजार जायेंगे तो इस चिंतन के साथ स्थिति पर गंभीरता पर गौर करें कि आपकी दिवाली की ठेठ पुराने समय से चली आ रही और आज के दौर में नई जन्मी दीपावली की आवश्यकताओं को चीनी औद्योगिक तंत्र ने किस प्रकार से समझ बूझ कर आपकी हर जरूरत पर कब्जा जमा लिया है। दिये, झालर, पटाखे, खिलौने, मोमबत्तियां, लाइटिंग, लक्ष्मी जी की मूर्तियां आदि से लेकर कपड़ों तक सभी कुछ चीन हमारे बाजारों में उतार चुका है और हम इन्हें खरीद-खरीद कर शनैः शनैः एक नई आर्थिक गुलामी की और बढ़ रहे हैं।

हमारा ठेठ पारम्परिक स्वरूप और पौराणिक मान्यताएं कहीं पीछें छूटती जा रहीं हैं और हम केवल आर्थिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक गुलामी को भी गले लगा रहे हैं। हमारे पटाखों का स्वरूप और आकार बदलने से हमारी मानसिकता भी बदल रही है। हमारा लघु उद्योग तंत्र अति दुष्प्रभावित हो रहा है। पारिवारिक आधार पर चलने वाले कुटीर उद्योग जो दीवाली के महीनों पूर्व से पटाखे, झालर, दिए, मूर्ति आदि-आदि बनाने लगते थे वे नष्ट होने के कगार पर हैं।

लगभग पांच लाख परिवारों की रोजी-रोटी को आधार देने वाले हमारे त्यौहार अब कुछ आयातकों और बड़े व्यापारियों के मुनाफ़ा तंत्र का एक केंद्र मात्र बन गए हैं। बाजार के नियम और सूत्र इन आयातकों और निवेशकों के हाथों में केन्द्रित हो जाने से सड़क किनारे पटरी पर दुकानें लगाने वाला वर्ग निस्सहाय होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाने को मजबूर है। उद्योगों से जुड़ी संस्थाएं जैसे- भारतीय उद्योग परिसंघ और भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) चीनी सामान के आयात पर चिंतित है।

आश्चर्यजनक रूप से चीन में महंगा बिकने वाला सामान जब भारत आकर सस्ता बिकता है तो इसके पीछे सामान्य बुद्धि को भी किसी षड्यंत्र का आभास भी होता है। सस्ते चीनी माल के भारतीय बाजार पर आक्रमण पर चिन्ता व्यक्त करते हुए एक अध्ययन में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) ने कहा है, “चीनी माल न केवल घटिया है, अपितु चीन सरकार ने कई प्रकार की सब्सिडी देकर इसे सस्ता बना दिया है, जिसे नेपाल के रास्ते भारत में भेजा जा रहा है।”

यह अध्ययन प्रस्तुत करते हुए फिक्की के अध्यक्ष श्री जी.पी. गोयनका ने कहा था, “चीन द्वारा अपना सस्ता और घटिया माल भारतीय बाजार में झोंक देने से भारतीय उद्योग को भारी नुकसान हो रहा है। भारत और नेपाल व्यापार समझौते का चीन अनुचित लाभ उठा रहा है।”

पटाखों के नाम पर विस्फोटक सामग्रियों के आयात का खतरा भारत पर अब बड़ा और गंभीर हो गया है। चीन द्वारा नेपाल के रास्ते और भारत के विभिन्न बंदरगाहों से भारत में घड़ियां, कैलकुलेटर, वाकमैन, सीडी, कैसेट, सीडी प्लेयर, ट्रांजिस्टर, टेपरिकॉर्डर, टेलीफोन, इमरजेंसी लाइट, स्टीरियो, बैटरी सेल, खिलौने, साइकिलें, ताले, छाते, स्टेशनरी, गुब्बारे, टायर, कृत्रिम रेशे, रसायन, खाद्य तेल आदि धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं।

पटाखे और आतिशबाजी जैसी प्रतिबंधित वस्तुएं भी विदेशों से आयात होकर आ रही हैं, यह आश्चर्य किन्तु पीड़ा का विषय है। कुछ वर्ष पूर्व तिरुपति से लेकर रामेश्वरम तक की सड़क मार्ग की यात्रा में साशय मैंने भारतीय पटाखा उद्योग की राजधानी शिवाकाशी में पड़ाव डाला था। यहां के निर्धनता और अशिक्षा भरे वातावरण में इस उद्योग ने जो जीवन शलाका प्रज्ज्वलित कर रखी है वह एक प्रेरणास्पद कथा है। लगभग बीस लाख लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार और सामाजिक सम्मान देने वाला शिवाकाशी का पटाखा उद्योग केवल धन अर्जित नहीं करता-कराता है बल्कि इसने दक्षिण भारतीयों के करोड़ों लोगों को एक सांस्कृतिक सूत्र में भी बाँध रखा है।

परस्पर सामंजस्य और सहयोग से चलने वाला यह उद्योग सहकारिता की नई परिभाषा गढ़ने की ओर अग्रसर होकर वैसी ही कहानी को जन्म देने वाला था जैसी कहानी मुंबई के भोजन डिब्बे वालों ने लिख डाली है; किन्तु इसके पूर्व ही चीनी ड्रेगन इस समूचे उद्योग को लीलता और समाप्त करता नजर आ रहा है। यदि घटिया और नुकसानदेह सामग्री से बने इन चीनी पटाखों का भारतीय बाजारों में प्रवेश नहीं रुका तो शिवाकाशी पटाखा उद्योग इतिहास का अध्याय मात्र बन कर रह जाएगा।

भारत में 2000 करोड़ रुपये से अधिक का चीनी सामान तस्करी से नेपाल के मार्ग से आता है इसमें से मात्र दीपावली पर बिकने वाली सामग्री 350 करोड़ की है। विभिन्न भारतीय लघु एवं कुटीर उद्योगों के संघ और प्रतिनिधिमंडल भारतीय नीति-निर्धारकों का ध्यान इस ओर समय समय पर आकृष्ट करते रहे हैं, सामान्य भारतीय उपभोक्ता से भी यह राष्ट्र यही आशा रखता है कि वह यथासंभव स्वयं को चीन में बने उत्पादों से दूर रखे और शुभ-लाभ को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो।

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