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महारानी लक्ष्मीबाई की गाथा एक अनुपम वीरगाथा है। - श्रीनारद मीडिया

महारानी लक्ष्मीबाई की गाथा एक अनुपम वीरगाथा है।

महारानी लक्ष्मीबाई की गाथा एक अनुपम वीरगाथा है।

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खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय इतिहास वीर गाथाओं से भरा पड़ा है और आज जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तब इन गाथाओं को स्मरण कर इतिहास को जीवंत करना समीचीन है। महारानी लक्ष्मीबाई की गाथा ऐसी ही एक अनुपम वीरगाथा है ।

महारानी लक्ष्मीबाई उन महान क्रांतिकारी योद्धाओ में से हैं जिनके बलिदान के फलस्वरूप ही आज भारत आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म महाराष्ट्र से काशी आकर रहने लगे मोरोपंत तांबे के घर 19 नवंबर सन 1834 को हुआ था। बचपन में लक्ष्मीबाई को प्यार से मनु कहा जाता था। जब बालिका मनु 4 वर्ष की थी तब उसकी मां भागीरथी बाई का काशी में देहांत हो गया।

मनु के पिता को उसके पालन-पोषण के लिए कोई सहारा नहीं दिखाई दे रहा था तभी  बाजीराव पेशवा ने उन्हें अपने पास बिठूर बुलवा लिया। यहां पर मनु के पिता उसको अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे। मनु स्वभाव से बहुत चंचल और सुंदर भी थी लोग उसे प्यार से छबीली कहकर बुलाते थे।

मनु को बिठूर में शस्त्र और शास़्त्र दोनों की शिक्षा प्राप्त हुई। सन 1842 में उनका विवाह झांसी के मराठा राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वह इस प्रकार झांसी की रानी बन गयीं विवाह के बाद ही उनका नाम रानी लक्ष्मीबाई रखा गया।

रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन दुर्भाग्यवश अज्ञात बीमारी से बालक की अकाल मृत्यु हो गयी। सन 1853 में उनके पति राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य भी बेहद नाजुक रहने लग गया था तब उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवंबर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी।

उस समय अंग्रेज राज्य हड़प नीति पर चल रहे थे और अपनी इसी नीति के अंतर्गत बालक दामोदर राव के खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। मुकदमे में बहुत बहस हुई लेकिन अदालत ने अंग्रेजी कानून के अंतर्गत दामोदर राव के अधिकार को खारिज कर दिया। अंग्रेज सरकार ने राज्य का खजाना जब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काटने का फरमान जारी कर दिया। इसके परिणामस्वरूप रानी को झांसी का किला छोड़कर झांसी के रानी महल जाना पड़ा। संघर्ष की कठिनता को जानते हुए भी उन्होंने झांसी की रक्षा करने का संकल्प लिया।

अपने पति के निधन के बाद व अंग्रेज सरकार के दमन चक्र के बाद रानी लक्ष्मीबाई पूरे मनोयोग के साथ 1857 की लड़ाई और झांसी की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। झांसी ही नहीं अपितु पूरा भारत रानी लक्ष्मीबाई को नमन करता है और उनकी बहादुरी के किस्से बिठूर से लेकर बुंदेलखंड की धरती में बड़े जोश व उत्साह के साथ सुनाये जाते हैं।

1857 की लड़ाई पूरे उत्तर भारत सहित झांसी में भी धधक रही थी। अंग्रेज डनलप को सूचना मिल चुकी थी। इसलिए महारानी लक्ष्मीबाई पर विषेश निगरानी रखी जा रही थी। महल में आने-जाने वाले लोगों की निगरानी हो रही थी तथा पाबंदी भी लगा दी गयी थी। लेकिन महारानी को अपने जासूसों के माध्यम से सारी सूचनाएं लगातार प्राप्त हो रहीं थी। रघुनाथ सिंह व खुदाबक्श से रानी का संपर्क बना हुआ था।

चार जून 1857 को कानपुर व झांसीं में क्रांति की ज्वाला धधक उठी। अंग्रेज अफसर डनलप ने कमिश्नर को सारी सूचना दी। कमिश्नर की सलाह पर छावनी से सभी अंग्रेज अपने परिवार के साथ किले में जाने को तैयार हो गये। अंग्रेज अफसर ने महारानी से अपनी सुरक्षा के लिए सहायता मांगी। तब महारानी ने कहा कि इस समय न तो हमारे पास हथियार हैं और नहीं सैनिक। यदि आप लोग कहें तो मैं अपनी जनता की रक्षा के लिए अच्छी सेना खड़ी कर दूं। डनलप स्वीकृति देकर चला गया। उसके बाद सैनिकों के नायक रिसालदार काले खां ने डनलप को गोली मार दी जिसके कारण अंग्रेजों में भगदड़ मच गयी।

अपने सहयोगियों के विरोध के बावजूद महारानी ने अंग्रेजो के बीवी और बच्चों को अपने किले में शरण दे दी और उन्हें भोजन भी कराया। उधर 1857 के सिपाही अपनी क्रांति को लगातार आगे बढ़ाते हुए बढ़े चले आ रहे थे। तब महारानी की सलाहकार मोतीबाई ने कहा कि महारानी अब समय आ गया है अपना बदला चुकाने का।

उसके बाद महारानी ने अपने मित्रों से कहा कि, ”अब समय आ गया है। अब मैं चुप नहीं बैठूंगी भले ही प्राण क्यां न चले जायें।“ रानी लक्ष्मीबाई ने भी झांसी की सुरक्षा को मजबूत करना प्रारंभ कर दिया, सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें प्रशिक्षण दिया जाने लगा।

लेकिन इसके पूर्व दतिया और ओरछा के राजाओं ने रानी का साथ न देकर झांसी पर हमला कर दिया लेकिन रानी ने बड़ी बहादुरी के साथ उनके हमले को विफल कर दिया। 1858 के जनवरी महीने में ब्रिटिश सेना ने झांसी को चारों ओर से घेर लिया था। दो हफ्ते की लडाई के बाद रानी झांसी से भाग निकले में कामयाब रहीं। रानी झांसी से भागकर कालपी पहुची और तात्या टोपे के पास पहुंची।

तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया। बाजीराव प्रथम के वंशज अली बहादुर द्वितीय ने भी रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया और वह भी उनके साथ युद्ध में शामिल  हुए। लम्बे संघर्षों व युद्धों के बाद महारानी ने अपने सैनिकों की वीरता के बल पर महारानी ने झांसी के किले पर फिर नियंत्रण कर लिया। गुलाम गौस खां किले का पुराना तोपची था। वह महारानी के सामने हाथ जोड़कर खडे हुए और महारानी ने उन्हें तोपची सरदार नियुक्त किया। रानी ने दीवान जवाहर सिंह को अपना सेनापति बनाया अपनी प्रमुख सहयोगी मोतीबाई को जासूसी विभाग का प्रमुख बना दिया।

महारानी लक्ष्मीबाई द्वारा राज्य को नियंत्रण में लेने के पांच दिन बाद मोतीबाई ने सूचना दी कि करेरा के किले पर स्वर्गीय महाराज के रिश्तेदार सदाशिव राव ने हमला कर दिया है। महारानी ने बिना देर किये करेरा पर हमला बोला और सदाशिव राव वहां से भागने पर मजबूर हो गया तथा सहायता के लिए सिंधिया दरबार पहुंच गया। तब सिंधिया के राजा नाबालिग थे।

तब सिंधिया के दिवान ने थोड़ी सेना भेजी जरूर लेकिन तब तक महारानी ने नटवर का घेरा डालकर सदाषिव राव को पकड़ लिया और झांसी के किले में बंद कर दिया। अब महारानी का पराक्रम सर्वत्र फैल गया। महारानी ने कई छोटे राज्यों को अपने अधिकार में लेकर उन्हें आजादी की लड़ाई में शामिल करवाया। हर जगह अंग्रेजों के साथ युद्ध चल रहा था। महारानी ने कई राजाओं और डाकुओं को भी अपने साथ मिलाया। अपने क्षेत्र में महारानी की वीरता का डंका बज रहा था। लेकिन अंग्रेज भी अपनी वापसी की तैयारी कर रहे थे।

12 मार्च 1858 के दिन अंग्रेज हयूरोज की सेना ने अचानक बड़ा हमला कर दिया। अंग्रेजों के अचानक हमले में कई सैनिक शहीद हो गये। अंग्रेज सेनापति ने महारानी के पास समझौते के लिए एक पत्र भेजा। लेकिन महारानी ने इसके विपरीत पत्र भेज दिया। किले पर तोपों का प्रबंधन किया जाने लगा। किले की सुरक्षा और युद्ध का मोर्चा संभालने के लिए उस समय चार हजार सैनिक थे।

महारानी ने किले की छत से दूरबीन से सारा नजारा देखा। उन्होंने अपने दो दूत कालपी भेजे ताकि तात्या टोपे से सहायता मिल सके। हयूरोज ने चारों ओर से नाकेबंदी कर दी थी। अंग्रेज सेनापति ने युद्ध शुरू कर दिया। भयंकर गोलीबारी हो रही थी और दोनों ओर से तोपें चल रही थी। महारानी दूरबीन से युद्ध का नजारा देखा रहीं थी और सहायता की प्रतीक्षा कर रहीं थी। अंग्रेज पूरी तत्परता और तेजी के साथ हमला कर रहे थे। महारानी के वीर सिपाही शहीद होने लग गये थे। अंग्रेज सेना ने जमकर रक्तपात किया लेकिन झांसी की जनता ने अपना सिर नहीं झुकाया।

महारानी ने अंतिम समय तक संघर्ष किया। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में वह पहली ऐसी महिला सेनानी थी जिन्होंने अपने छोटे बालक को पीठ पर बांधकर अंतिम सांस तक युद्ध किया। महारानी की वीरता का इतिहास आज भी एक नयी ऊर्जा व जोश भरता है। उनकी वीरता व संघर्ष हम सभी को प्रेरणा देता हे कि बुरे से बुरे दौर में भी अपना मनोबल नहीं खोना चाहिये सतत संघर्ष का सुखद प्रतिफल मिलता ही है। अंग्रेज अंतिम क्षणों तक महारानी को पा नहीं सके।

महारानी की वीरता पर अनेक काव्यग्रन्थ लिखे गए, सुभद्रा कुमारी चौहान ने, बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी लिखकर, रानी झाँसी की गाथा को बच्चे बच्चे की ज़बान तक पहुंचा दिया। इसी प्रकार एक अन्य काव्यांजलि कहती है- ”नाम था उसका लक्ष्मीबाई, पर थी दुर्गा का अवतार” बरछी, ढाल, कृपाण कटारी से था उसको बहुत प्यार।“ ऐसी अप्रतिम महान योद्धा थीं महारानी लक्ष्मीबाई।

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