संविधान में मिलता है श्रीराम के आदर्शों की संस्कृति.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय संविधान की मूल हस्तलिखित पांडुलिपि में शामिल किए गए थे देश की गौरवगाथा दर्शाते कई चित्र। इन्हीं में मौलिक अधिकार अध्याय के प्रारंभ में भगवान श्रीराम का चित्र नागरिकों को कर्तव्य और अधिकार की संतुलित मर्यादा का संदेश देता था।

यह बात तो हर कोई जानता है कि 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था, मगर इस बात से बहुत कम ही लोग वाकिफ थे कि संविधान लागू होने से दो माह पहले 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने कई चर्चाओं और संशोधनों के बाद आखिरकार भारत के संविधान को अंगीकार किया था। देश के संविधान के बारे में नागरिकों के बीच जागरूकता फैलाने और संवैधानिक मूल्यों का प्रचार करने के लिए वर्ष 2015 में सामाजिक न्याय मंत्रालय ने इस दिन को संविधान दिवस के रूप में मनाने की परंपरा शुरू की।

भारत का संविधान देश को संप्रभु, पंथनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित करता है और अपने नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता और न्याय की प्रत्याभूति देता है। संविधान की नियमावली पर गूढ़ नजर डालें तो पाएंगे कि हमारे संविधान का आधार भगवान श्रीराम के आदर्शों का भी पालन करता है। उनके आदर्श समाज के प्रारूप को ही नहीं अपितु देश के संविधान को तय करने और देश का बेहतर संचालन करने में भी प्रासंगिक हैं।

ऐसा ही कुछ विचार आया होगा भारतीय संविधान की मूल हस्तलिखित पांडुलिपि पर चित्र बनाने वाले महान चित्रकार नंदलाल बोस के दिमाग में। ‘सर्वधर्म समभाव’ की विचारमाला को अपने मानकों में पिरोने वाले भारतीय संविधान की रिक्तता को पूर्ण करने के लिए उन्होंने ऐसे चित्र बनाए, जो भारत की गौरवगाथा के अहम अध्याय हैं।

बीते साल जब तत्कालीन केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अपने ट्विटर अकाउंट से मूल संविधान की तस्वीर को साझा करते हुए इस ओर ध्यान आकर्षित करवाया कि नीति निर्देशक तत्वों से जुड़े अध्याय के ऊपर नंदलाल बोस द्वारा बनाए रेखाचित्र हैं और मौलिक अधिकारों वाले अध्याय में श्रीराम हैं तो इंटरनेट मीडिया पर तुरंत बहस छिड़ गई। सांप्रदायिकता पर सवाल उठे। अतएव यह जानना आवश्यक है कि हमारे मूल संविधान में सिर्फ भगवान श्रीराम ही नहीं अपितु कुल 22 चित्रों को स्थान दिया गया था। हालांकि आज संविधान की नई प्रतियों से इन चित्रों का नामोनिशान मिट चुका है।

संस्कृति की स्पष्ट झलक

दरअसल, जब भारत का संविधान तैयार हुआ तो उन हस्तलिखित पृष्ठों में ऊपर-नीचे बहुत जगह खाली छूटी हुई थी। ऐसे में इस पर विचार हुआ कि आखिर किस तरह इस खाली जगह के जरिए भारत की 5,000 साल पुरानी संस्कृति को प्रदर्शित किया जाए। तब खुद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही इस काम के लिए नंदलाल बोस को शांतिनिकेतन जाकर आमंत्रित किया था। इसके बाद इस महान चित्रकार ने अपने कुछ शिष्यों के साथ मिलकर संविधान के इन हस्तलिखित पन्नों में प्राण भरने का काम किया और बाद में संविधान सभा से जुड़े सभी लोगों ने इन चित्रों को संविधान के रिक्त स्थान पर शामिल करने पर सहमति देते हुए उस पर हस्ताक्षर किए।

संविधान की मूल प्रति देखें तो आज भी वहां श्रीराम, महाभारत में श्रीकृष्ण-अर्जुन, बुद्ध, यज्ञशाला आदि की तस्वीरें चित्रित हैं। आखिरी पृष्ठ पर संविधान सभा के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर हैं। हस्ताक्षरों की यह सूची इस सहमति को भी दर्शाती है कि नंदलाल बोस ने इन कलाकृतियों में धर्म विशेष नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास की विकास यात्रा को दर्शाने वाले चित्र बनाए थे और जाहिर सी बात है कि इस उद्देश्य की पूर्ति इन जननायकों के बिना अधूरी है। उन्होंने झांसी की रानी, टीपू सुल्तान, अशोक की लाट जैसे चित्रों के जरिए, इसमें निहित अनुच्छेदों से सामंजस्य स्थापित किया। भारत के नागरिकों को गौरवशाली अतीत की थाती सौंपी और देश की सनातन संस्कृति को भी जीवंत रखा।

अद्वितीय विरासत का संदेश

नंदलाल बोस और उनके शिष्यों ने इतिहास के चुनिंदा महात्माओं, गुरुओं, शासकों एवं पौराणिक पात्रों को दर्शाते हुए संविधान के अलग-अलग हिस्सों को सुसज्जित किया। प्रत्येक चित्र भारत की अद्वितीय विरासत से एक संदेश और उद्देश्य को व्यक्त करता है संविधान के तीसरे अध्याय (भाग) में नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर चर्चा है। जहां श्रीराम, सीता जी एवं लक्ष्मण का चित्र है। यह समझना आवश्यक होगा कि क्यों संविधान के इस भाग में श्रीराम का चित्रण ही सबसे उपयुक्त चयन है? आखिर वह राजा राम ही थे, जिनके शासनकाल को आदर्श माना जाता है। भारतवर्ष में ‘रामराज्य’ सदा से ही ‘सुराज्य’ का पर्यायवाची रहा है। निश्चय ही रामराज्य भारतीय समाज और शासन व्यवस्था का स्वर्ण-युग था। प्रजा अधिकारों से युक्त, संतुष्ट और स्वधर्म-स्वकर्म का पालन करने वाली थी।

श्रीराम का दयालु एवं निष्पक्ष व्यक्तित्व सर्वविदित है, साथ ही रामराज्य की परिकल्पना में भी मानव जीवन के ये भाव आत्मसात हैं। श्रीराम ने जातिगत भेदभाव किए बिना निषादराज गृह से मित्रता की थी। उन्हें वही सम्मान दिया जो उनके बाकी राजमित्रों को मिला। रघुनंदन ने शबरी माता के जूठे बेर स्वीकारे। एक राजा के रूप में वह अपनी प्रजा को समान रूप से देखते हुए उनके अधिकारों के संरक्षक थे। उस समय की व्यवस्था के अनुसार वह स्वयं भी राजधर्म एवं मानवधर्म से परिबद्ध थे। शक्तिशाली, लोकप्रिय एवं राजा होने के बाद भी श्रीराम ने कभी निर्धारित नियमों का उल्लंघन नहीं किया और न ही स्वयं को धर्म से ऊपर रखा।

यह स्वीकारना गलत नहीं होगा कि भारत के सांस्कृतिक, नैतिक और राजनैतिक मूल्यों के आदर्श श्रीराम का व्यक्तित्व एवं जीवन दर्शन हमारे संवैधानिक मूल्यों के समरूप हैं। अतएव यह चित्रण इस विश्वास से किया गया कि भारतीय संविधान के लागू होते ही, समस्त अधीन प्रजाजनों को उनके मौलिक अधिकार प्राप्त होंगे।

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