..जब संसद भवन के संविधान सभा कक्ष में नहीं बन सकी थी आम राय.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
23 नवंबर, 1948 को संसद भवन के संविधान सभा कक्ष में अनुच्छेद 35 (वर्तमान अनुच्छेद 44) पर बहस शुरू हुई। डाक्टर राजेंद्र प्रसाद जी की अस्वस्थता के कारण संविधान सभा की अध्यक्षता प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री और एकीकृत बंगाल के सबसे बड़े ईसाई नेता, अल्पसंख्यक अधिकार समिति के अध्यक्ष और संविधान सभा के उपाध्यक्ष डा. हरेंद्र कुमार मुखर्जी कर रहे थे। मद्रास के प्रसिद्ध मुस्लिम नेता मोहम्मद इस्माइल साहिब ने बहस की शुरुआत करते हुए कहा कि समान नागरिक संहिता को अनिवार्य नहीं बनाना चाहिए। उनके बाद नजीरुद्दीन, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, पोकर साहिब बहादुर और हुसैन इमाम ने भी लगभग वही बात कही। उसके बाद प्रसिद्ध विधिवेत्ता केएम मुंशी ने बहस को आगे बढ़ाया।
न लाया जाए यूसीसी
मुहम्मद इस्माइल साहिब: किसी भी समूह या समुदाय के लिए पर्सनल ला का पालन मूलभूत अधिकार है। समान नागरिक संहिता के अनुच्छेद-35 में यह वाक्य जोड़ा जाना चाहिए, ‘ऐसा कोई भी कानून बनने की स्थिति में किसी भी समूह या समुदाय के व्यक्ति को अपना पर्सनल ला छोड़ने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ेगा।’ पर्सनल ला किसी समुदाय के लोगों के जीवन जीने का तरीका होता है। यह उनके धर्म व संस्कृति का हिस्सा है। पर्सनल ला को प्रभावित करने वाला कोई भी कदम उन लोगों के जीवन जीने के तरीके में हस्तक्षेप होगा, जो पीढ़ियों से इनका पालन कर रहे हैं।
पंथ निरपेक्ष राष्ट्र को किसी जीने के तरीके या धर्म के मामले में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं होना चाहिए। जब लोगों के पास पहले से पर्सनल ला हैं, तो वे ऐसा कोई सिविल कोड क्यों चाहेंगे? इसके पीछे विचार भले ही एकरूपता के जरिये सद्भाव लाने का हो, लेकिन मेरा मानना है कि इस सद्भाव के लिए ऐसा कदम जरूरी नहीं है। अपने पर्सनल ला मानने वाले किसी भी समुदाय का अन्य से कोई टकराव नहीं होगा।
नजीरुद्दीन अहमद: मेरी टिप्पणी केवल मुस्लिम समुदाय की असहजता से जुड़ी नहीं है। मैं इसे और व्यापक रूप में रखना चाहता हूं। असल में हर समूह एवं धार्मिक समुदाय के कुछ धार्मिक व नागरिक कानून होते हैं, जो उनकी धार्मिक आस्था से जुड़े रहते हैं। समान नागरिक संहिता जैसा कानून बनाते समय इन धार्मिक कानूनों को अलग रखने की जरूरत है। संविधान में धार्मिक आजादी की गारंटी दी गई है और मुङो लगता है कि यह अनुच्छेद उस धार्मिक आजादी को अप्रभावी करता है। हमें इस विसंगति से बचना चाहिए।
महबूब अली बेग साहिब बहादुर: लोगों ने अब पंथ-निरपेक्ष राष्ट्र को लेकर अनूठी अवधारणा बना ली है। उन्हें लगता है कि ऐसे देश में ऐसा कानून होना चाहिए, जहां सभी मामलों में सभी नागरिकों के लिए एक कानून हो। इसमें उनकी जीवनचर्या, भाषा और संस्कृति से जुड़े मसले शामिल हैं। यह सही नहीं है। पंथ निरपेक्ष राष्ट्र में रहने वाले सभी समुदायों के लोगों उनकी धार्मिक मान्यताओं को मानने की आजादी होनी चाहिए। इसमें उनके पर्सनल ला भी शामिल हैं।
राष्ट्र की एकता के लिए अहम
केएम मुंशी: हम एक प्रगतिशील समाज हैं और ऐसे में धार्मिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप किए बिना हमें देश को एकीकृत करना चाहिए। बीते कुछ वषों में धार्मिक क्रियाकलाप ने जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने दायरे में ले लिया है, हमें ऐसा करने से रोकना होगा और कहना होगा कि विवाह उपरांत मामले धार्मिक नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष कानून के विषय हैं। आर्टिकल 35 इसी बात पर बल देता है।
मैं अपने मुस्लिम मित्रों से कहना चाहता हूं कि जितना जल्दी हम जीवन के अलगाववादी दृष्टिकोण को भूल जाएंगे, देश और समाज के लिए उतना ही अच्छा होगा। धर्म उस परिधि तक सीमित होना चाहिए, जो नियमत: धर्म की तरह दिखता है और शेष जीवन इस तरह से विनियमित, एकीकृत और संशोधित होना चाहिए कि हम जितनी जल्दी संभव हो, एक मजबूत और एकीकृत राष्ट्र में निखर सकें।
कृष्णास्वामी अय्यर: कुछ लोगों का कहना है कि यूनिफार्म सिविल कोड बन जाएगा तो धर्म खतरे में होगा और दो समुदाय मैत्री भाव के साथ नहीं रह पाएंगे। इस अनुच्छेद का उद्देश्य ही मैत्री बढ़ाना है। समान नागरिक संहिता मैत्री को समाप्त नहीं मजबूत करेगी। उत्तराधिकार या इस प्रकार के अन्य मामलों में अलग व्यवस्थाएं ही भारतीय नागरिकों में भिन्नता पैदा करती हैं। समान नागरिक संहिता का मूल उद्देश्य विवाह उत्तराधिकार के मामलों में एक समान सहमति तक पहुंचने का प्रयास करना है।
जब ब्रिटिश सत्ता पर काबिज हुए तो उन्होंने इस देश के सभी नागरिकों, चाहे हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई के लिए समान रूप से लागू होने वाली ‘भारतीय दंड संहिता’ लागू की। क्या तब मुस्लिम अपवाद बने रह पाए और क्या वे आपराधिक कानून की एक व्यवस्था को लागू करने के लिए ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ विद्रोह कर सके? भारतीय दंड संहिता हिंदू-मुसलमान पर एक समान रूप से लागू होती है। यह कुरान द्वारा नहीं बल्कि विधिशास्त्र द्वारा संचालित है। इसी तरह संपत्ति कानून भी इंग्लिश विधिशास्त्र से लिए गए हैं।
भीमराव आंबेडकर: व्यावहारिक रूप से इस देश में एक सिविल कोड लागू है जिसके प्रविधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। केवल विवाह और उत्तराधिकार का क्षेत्र है जहां एक समान कानून लागू नहीं है। यह बहुत छोटा सा क्षेत्र है जिस पर हम समान कानून नहीं बना सके हैं, इसलिए हमारी इच्छा है कि अनुच्छेद 35 को संविधान का भाग बनाकर सकारात्मक बदलाव लाया जाए। यह आवश्यक नहीं है कि उत्तराधिकार के कानून धर्म द्वारा संचालित हों। धर्म को इतना विस्तृत और व्यापक क्षेत्र क्यों दिया जाए कि वह संपूर्ण जीवन पर कब्जा कर ले और विधायिका को इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने से रोके।
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