एकजुट और विकसित बनाने के लिए राष्ट्रीय चरित्र की आवश्यकता.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत पर पहली बार चर्चा 1928 की नेहरू रिपोर्ट में की गई थी। यह रिपोर्ट वास्तव में, स्वतंत्र भारत के संविधान का एक मसौदा था, जिसे स्वयं मोती लाल नेहरू ने तैयार किया था। उन्होंने इसमें यह प्रस्ताव रखा था कि स्वतंत्र भारत में विवाह से संबंधित सभी मामलों को एक समान कानून के तहत लाना चाहिए। लेकिन उस समय की ब्रिटिश सरकार ने इस रिपोर्ट को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। 1939 में यह फिर से चर्चा में आई, जब इस मुद्दे पर लाहौर में कांग्रेस द्वारा एक बैठक बुलाई गई जहां नेहरू रिपोर्ट के व्यावहारिक पहलुओं पर चर्चा की गई, जिसके बाद इसे अक्षमता के आधार पर खारिज कर दिया गया।
1985 में यह दोबारा चर्चा का हिस्सा बनी जब शाह बानो मामले में अपने प्रसिद्ध फैसले में, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने टिप्पणी दी कि संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत अध्यादेश लाना समय की मांग है। इसके बाद 1985 में, सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य न्यायधीश, श्री चिन्नप्पा रेड्डी ने एक समान मामले से निपटते हुए कहा था कि वर्तमान केस समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर केंद्रित एक और मामला है।
यही बात 1995 में सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्य बेंच; जस्टिस कुलदीप सिंह और जस्टिस आरएम के फैसले में भी नजर आई थी। जब भी संविधान के अनुच्छेद 44 का उल्लेख होता है तब अनुच्छेद 25 के ऊपर नजर डालना भी आवश्यक हो जाता है। यह अनुच्छेद कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से धार्मिक स्वतंत्रता और अपनी धार्मिक पद्धति और उसका प्रचार करने का हक है।
इस मुद्दे के विषय में 23 अगस्त, 1972 को ‘द मदरलैंड’ नामक एक पत्रिका में एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था। यह साक्षात्कार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दुसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर का था, जिसमें उन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय एकता के लिए समान नागरिक संहिता आवश्यक नहीं। वे कहते थे कि भारतीय संस्कृति ने एकता में विविधता की अनुमति दी है। उनके अनुसार महत्वपूर्ण बात यह थी कि सभी नागरिकों; हिंदू और गैर-हिंदू के बीच तीव्र देशभक्ति और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना आवश्यक है।
वास्तव में भारत को एक एकजुट, शांतिपूर्ण और विकसित देश बनाने के लिए राष्ट्रीय चरित्र की आवश्यकता है। जहां व्यक्तिगत शिकायतों का राष्ट्र निर्माण के सामने कोई वजूद नहीं रह जाता। समान नागरिक संहिता अपनाने जैसे कदम से लोगों के अंदर देश और समाज को लेकर को कोई बड़ा वैचारिक परिवर्तन मुश्किल है। लोगों की सोच को रचनात्मक दिशा में मोड़ने का काम शिक्षा करती है। इसके लिए आवश्यक है कि सभी उपलब्ध संसाधनों का लाभ उठाकर जनता को शिक्षित करना, और समाज में बौद्धिक जागृति और जागरूकता का एक व्यापक अभियान शुरू करना।
किसी समाज में एकता और अखंडता का माहौल लोकप्रिय विवाह प्रथा की एकरूपता से नहीं आता, बल्कि समाज में सकरात्मक सोच विकसित करने से आता है। कानून समाज सुधार में एक अहम कड़ी होता है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है, कानून को समझने और उसका पालन करने वाला समाज। ऐसा आचरण और अनुशासन केवल शिक्षा से लाना ही संभव है, ऐसा समाज ना सिर्फ बुरे-भले को समझने के लिए सक्षम होगा बल्कि आगे बढ़कर सुधार प्रक्रिया का हिस्सा भी बनेगा।
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