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संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अहम है,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अहम है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

संसदीय लोकतंत्र की विशेषता सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल की पारस्परिक जवाबदेही की प्रणाली और एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विचार-विमर्श प्रक्रिया में प्रकट होती है।

संसदीय विपक्ष लोकतंत्र के वास्तविक सार के संरक्षण और लोगों की आकांक्षाओं व अपेक्षाओं के प्रकटीकरण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

किंतु, वर्तमान में भारत का संसदीय विपक्ष न केवल खंडित है, बल्कि अव्यवस्थित या बेतरतीबी का शिकार भी नज़र आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि शायद ही हमारे पास कोई विपक्षी दल है, जिसके पास अपने संस्थागत कार्यकलाप के लिये या समग्र रूप से ‘प्रतिपक्ष’ के प्रतिनिधित्व के लिये कोई विजन या रणनीति हो।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत के संसदीय विपक्ष को पुनर्जीवित करना और उसे सशक्त करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है, विशेषकर जब लोकतंत्र का मूल्यांकन करने वाले विभिन्न सूचकांकों में इसकी वैश्विक रैंकिंग में लगातार गिरावट आ रही है।

भारत में संसदीय विपक्ष

  • विपक्ष के बारे में: संसदीय विपक्ष, विशेष रूप से वेस्टमिंस्टर-आधारित संसदीय प्रणाली में एक नामित सरकार के राजनीतिक विपक्ष का एक रूप है।
    • “आधिकारिक विपक्ष” (Official Opposition) का दर्जा आमतौर पर विपक्ष में बैठे सबसे बड़े दल को प्राप्त होता है और इसके नेता को “विपक्ष के नेता” की उपाधि दी जाती है।
  • विपक्ष की महत्त्वपूर्ण भूमिका:
    • विपक्ष संसद एवं उसकी समितियों के अंदर और संसद के बाहर मीडिया में और जनता के बीच दिन-प्रतिदिन आधार पर सरकार के कामकाज पर प्रतिक्रिया करता है, सवाल करता है और उसकी निगरानी करता है।
    • विपक्ष की भूमिका यह सुनिश्चित करना है कि सरकार संवैधानिक सुरक्षा-घेरा बनाए रखे।
    • सरकार नीतिगत उपाय और कानून के निर्माता के रूप में जो भी कदम उठाती है, विपक्ष उसे अनिवार्य रूप से आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखता है।
    • इसके अलावा, विपक्ष संसद में केवल सरकार के कामकाज पर नज़र रखने तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि विभिन्न संसदीय साधनों (Parliamentary Devices) का उपयोग करते हुए अपने निर्वाचन क्षेत्रों की विशिष्ट आवश्यकताओं, संशोधनों और आश्वासनों के संबंध में भी मांग और अपील प्रस्तुत करता है।
  • शक्तिशाली विपक्ष का इतिहास: 1960 के दशक के आरंभ से भूमि सुधार, औद्योगिक मज़दूर वर्ग के अधिकार, बेरोज़गारी, खाद्यान्न एवं उनका वितरण, जातीय मांगों और भाषाई अधिकारों जैसे विभिन्न मुद्दों पर पूरे भारत में शक्तिशाली आंदोलनों की शुरुआत हुई।
    • तत्कालीन विपक्ष ने स्वयं को इन सामाजिक आंदोलनों से उल्लेखनीय रूप से संलग्न किया था।
      • इसमें कम्युनिस्टों सहित विपक्ष के व्यापक वर्गों-समूहों को भी शामिल किया गया था।
    • इतिहास में संसदीय विपक्ष ने भारत के संसदीय लोकतंत्र को रचनात्मकता और विदग्धता प्रदान की थी।
  • कमज़ोर विपक्ष और गैर-उत्तरदायी सरकार तबाही लाते हैं: एक कमज़ोर विपक्ष एक कमज़ोर या गैर-उत्तरदायी सरकार से कहीं अधिक खतरनाक होता है; एक गैर-उत्तरदायी सरकार एक कायर या संकोची विपक्ष के साथ मिलकर कयामत ही रचती है।
    • एक कमज़ोर विपक्ष का सरल निहितार्थ यह होता है कि एक बड़ी आबादी (जिन्होंने सत्तारूढ़ दल को वोट नहीं दिया) की राय/मांगों को बिना किसी समाधान के छोड़ दिया गया।
  • एक मज़बूत विपक्ष की आवश्यकता: भारत की वर्तमान सरकार की विभिन्न तबकों की ओर से कड़ी आलोचना की गई है।
    • वर्तमान दौर को लोकतंत्र, मानवाधिकारों और प्रेस स्वतंत्रता पर भारत की अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में गिरावट, देशद्रोह के मामलों की बढ़ती संख्या और UAPA के तहत अंधाधुंध दर्ज मामलों के रूप में चिह्नित किया गया है।
      • इसके अलावा, संसद द्वारा पारित किये जाते कई कानूनों को लगातार अस्वीकार्य के रूप में देखा जा रहा है।
    • ये उदाहरण स्पष्ट रूप से एक अप्रभावी और कमज़ोर विपक्ष का भी संकेत देते हैं।

संसदीय विपक्ष के साथ संबद्ध समस्याएँ

  • विपक्ष का समकालीन संकट मुख्य रूप से इन दलों की प्रभावशीलता और चुनावी प्रतिनिधित्व का संकट है।
  • राजनीतिक दलों में भरोसे की कमी और नेतृत्व का अभाव भी है।
  • विपक्षी दल कुछ विशिष्ट सामाजिक समूहों तक सीमित प्रतिनिधित्व के संहत स्वरूप में अटके रह गये हैं और अपने दायरे को कुछ पहचानों या अस्मिताओं की सीमितता से परे ले जाने में असमर्थ रहे हैं।
  • प्रतिनिधित्ववादी दावे ने विपक्ष को गठित, विस्तारित और समेकित होने में तो सक्षम बनाया है, लेकिन इस दृष्टिकोण या परिघटना की समाज के सभी वर्गों के अंदर वास्तविक प्रतिनिधित्व साकार कर सकने की असमर्थता ने विपक्ष के लिये अवसर को संकुचित करने में भी योगदान किया है।
  • पिछले कुछ वर्षों में विपक्ष की एक प्रमुख विफलता यह भी रही है कि यह एक राजनीतिक एजेंडा निर्धारित कर सकने और तटस्थ या निरपेक्ष लोगों को अपने पक्ष में कर सकने में विफल रहा है।
    • सरकार की कई विफलताओं पर भी उसे घेर सकने में विपक्ष की असमर्थता से इसकी पुष्टि होती है।

  • विपक्ष को पुनर्जीवित करना: महज ऊपर से हुक्म चलाने के बजाय गाँवों, प्रखंडों और ज़िलों में दलों को पुनर्जीवित करने और पुनर्गठित करने की आवश्यकता है।
    • विपक्षी दलों को सतत् बारहमासी अभियान और लामबंदी की आवश्यकता है। किसी शॉर्टकट या “कृत्रिम प्रोत्साहन” का विकल्प मौजूद नहीं  है जो एक प्रभावी विपक्ष का निर्माण कर सके।
    • विपक्षी दलों को अपनी अर्जित पहचान (समूह, जाति, धर्म, क्षेत्र पर आधारित) को त्यागने और नई पहचानों को अपनाने की ज़रूरत है, जो धारणा और व्यवहार में व्यापक और गहरी हों।
  • विपक्ष की भूमिका को सशक्त करना: विपक्ष की भूमिका को सशक्त करने के लिये भारत में ‘शैडो कैबिनेट’ (Shadow Cabinet) की संस्था का गठन किया जा सकता है।
    • शैडो कैबिनेट ब्रिटिश कैबिनेट प्रणाली की एक अनूठी संस्था है जहाँ सत्ताधारी कैबिनेट को संतुलित करने के लिये विपक्षी दल द्वारा शैडो कैबिनेट का गठन किया जाता है।
    • ऐसी व्यवस्था में कैबिनेट मंत्री की प्रत्येक कार्रवाई शैडो कैबिनेट के मंत्री द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित की जानी चाहिये।
  • विपक्ष को मज़बूत करने के अंतर्निहित कारक: अंतर्निहित कारक महज़ एक विपक्ष का निर्माण करने के बजाय कई दलों को एकजुट कर सत्तारूढ़ दल को चुनाव में प्रतिस्थापित करने की राह पर आगे बढ़ेंगे।
    • आवश्यकता यह है कि पार्टी संगठन में सुधार किया जाए, लामबंदी के लिये आगे बढ़ा जाए और जनता को संबंधित पार्टी कार्यक्रमों से परिचित कराया जाए। इसके साथ ही, पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र के समय-समय पर मूल्यांकन के लिये एक तंत्र भी अपनाया जाना चाहिये।
  • प्रतिनिधित्व का उत्तरदायित्व: वर्तमान मोड़ पर विपक्ष का एक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व यह है कि वह साझा मुद्दों पर समन्वय सुनिश्चित करे, संसदीय प्रक्रियाओं पर रणनीति तैयार करे, और इनसे अधिक महत्त्वपूर्ण, दमित अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करे।
  • विरासत से सबक: भारत में संसदीय विपक्ष को अपनी विरासत से बहुत कुछ सीखना है।
    • यह विरासत से सबक ग्रहण कर स्वयं को लोकतांत्रिक और समतावादी आग्रह की प्रतिनिधि आवाज़ के रूप में स्थापित कर सकता है ।
    • यह नए तरीकों के बारे में विचार करने का उपयुक्त संदर्भ भी हो सकता है, जिसके द्वारा एक नई मीडिया-प्रेरित सार्वजनिक संस्कृति (जो निरपवाद रूप से विनम्रता और अनुपालन का संपोषण करता है) में असंतोष और विरोध को कायम रखा जा सकता है।
  • सत्तारूढ़ दल के सदस्यों की भूमिका: जबकि विपक्ष को सरकार को चुनौती देने और उसे प्रश्नगत करने की ज़िम्मेदारी लेने की ज़रूरत है, प्रतिनिधित्व के विचार की सफलता के लिये आवश्यक है कि सभी सांसद, वे किसी भी दल से संबंधित हों, जनता की राय के प्रति संवेदनशील हों।
    • इसके अलावा, सत्तारूढ़ दल के सदस्यों की स्वतंत्रता अंतर-दलीय लोकतंत्र और अंतरा-दलीय गुटवाद दोनों से जुड़ी हुई है ।
      • जब पार्टियों में गुट होते हैं तो वे अपने आंतरिक कार्यकरण में लोकतांत्रिक हो जाते हैं।
    • संसद अपने प्रतिनिधि स्वरूप को पुनः प्राप्त करे, इसके लिये आवश्यक है कि सत्ताधारी दल के सदस्य भी संसदीय प्रणाली के प्रति अधिक ईमानदार बनें।

निष्कर्ष

जहाँ हमारी राजव्यवस्था ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली का पालन करती हो, विपक्ष की भूमिका विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाती है। भारत के लिये एक सच्चे लोकतंत्र के रूप में कार्य करने हेतु एक संसदीय विपक्ष—जो राष्ट्र की अंतरात्मा है, को संपुष्ट करना महत्त्वपूर्ण है।

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