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धार्मिक दंगे कब भारतवर्ष का पीछा छोड़ेंगे—शहीद भगत सिंह.

धार्मिक दंगे कब भारतवर्ष का पीछा छोड़ेंगे—शहीद भगत सिंह.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्वाधीनता आंदोलन में जलियांवाला बाग कांड के बाद अंग्रेजों का जुल्म बढ़ने लगा। यह वह दौर था जब अंग्रेजी हुकूमत ने सांप्रदायिक बंटवारे की राजनीति तेज कर दी थी। धर्म के नाम पर बंटते लोगों को एकजुट करने के उद्देश्य से जून 1928 में लिखा गया भगत सिंह का यह लेख…।

भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा, दूसरी ओर सिखों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। यह मार-काट इसलिए नहीं है कि कोई दोषी है, बल्कि इसलिए है क्योंकि वो हिंदू है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख, हिंदू या मुसलमान होना एक-दूसरे को मारने के लिए पर्याप्त होता जा रहा है, अगर ऐसी स्थिति हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है! हिंदुस्तान का भविष्य अंधकारमय नजर आता है।

इन ‘धर्मों’ ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है और पता नहीं ये धार्मिक दंगे कब भारतवर्ष का पीछा छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई विरला ही हिंदू, मुसलमान या सिख होता है जो अपना दिमाग ठंडा रखता है। बाकी बचे कुछ तो फांसी चढ़ जाते हैं या कुछ जेलों में फेंक दिए जाते हैं।

जहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा उठाया हुआ था। आज वे अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। ऐसा लग रहा हैं कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।

दूसरे सज्जन, जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबारवाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है। कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों के दिमाग से संकीर्णता निकालना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है।

यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं। जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहां तब स्वतंत्रता की झलक सामने दिखाई देती थी और आज स्वराज्य एक सपना मात्र बन गया है। यही लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। वही नौकरशाही- जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था-आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी है कि उसे हिलाना मामूली काम नहीं है।

इन दंगों का इलाज यदि कुछ हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है, क्योंकि भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर मनुष्य सभी सिद्धांत ताक पर रख देता है, लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना भी अत्यंत कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और यह लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देगी। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तक सरकार बदल न जाए, चैन की सांस नहीं लेनी चाहिए।

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की भी जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि संसार के सभी लोग, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, के अधिकार एक ही हैं। भलाई इसी में है कि धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो।

इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी। जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहां भी ऐसी ही स्थितियां थीं, वहां भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे, लेकिन जिस दिन वहां श्रमिक-शासन हुआ है, वहां का नक्शा ही बदल गया है। वहां कभी दंगे नहीं हुए। अब वहां सभी को ‘इंसान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गई है और उनमें वर्ग-चेतना भी आ गई है, इसलिए अब वहां से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आती।

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आई। वहां दंगों में ट्रेड यूनियनों के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था हुए, बल्कि सभी हिंदू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के यत्न भी करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्ग-चेतना वही सुंदर रास्ता है, जो सांप्रदायिक दंगे रोक सकता है।

एक खुशी का समाचार यह भी मिला है कि भारत के नवयुवक अब उन धर्मों, जो परस्पर घृणा करना सिखाते हैं, से तंग आकर इनसे हाथ धो रहे हैं और उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को पहले इंसान समझते हैं, फिर भारतवासी। युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहरा है और भारतवासियों को इन दंगों को देखकर घबराना नहीं चाहिए, बल्कि ऐसे यत्न करने चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, ताकि दंगे न हों।

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिंदू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं, जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। हां, धर्म में हम चाहे अलग-अलग ही रहें। उम्मीद है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताए इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमें बचा लेंगे.

 

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