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काशी मुक्ति धाम भी है और विमुक्त क्षेत्र भी. - श्रीनारद मीडिया

काशी मुक्ति धाम भी है और विमुक्त क्षेत्र भी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने श्री काशी विश्वनाथ धाम के नव्य एवं दिव्य स्वरूप का लोकार्पण किया। इससे पूरे देश का ध्यान इस प्राचीन नगरी की ओर लगना स्वाभाविक है। ऐसी ही संभावित उत्सुकता को शांत करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने भगवान शिव की नगरी काशी और महादेव की महिमा का बखूबी बखान भी किया। वस्तुत: अर्ध चंद्राकार उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर बसी काशी या ‘बनारस’ को सारी दुनिया से न्यारी नगरी कहा गया है। काल के साथ अठखेलियां करता यह नगर धर्म, शिक्षा, संगीत, साहित्य और कृषि सहित संस्कृति एवं सभ्यता के हर पक्ष में अपनी पहचान रखता है। काशी का शाब्दिक अर्थ प्रकाशित करने वाला होता है।

शास्त्र और लोक, परंपरा और आधुनिकता को साथ-साथ अभिव्यक्त करते हुए यहां नए और पुराने, अमीर और गरीब, प्राच्य विद्या और आधुनिक विज्ञान-प्रौद्योगिकी, युवा और वृद्ध, हवेली और अट्टालिका, प्राचीन मंदिर और नए माल तथा संकरी गलियां और प्रशस्त राजपथ दोनों जीवनधाराओं की अभिव्यक्ति मूर्तिमान है। काशी विश्वनाथ, मां गंगा, संकट मोचन, मां दुर्गा, काल भैरव और मां अन्नपूर्णा समेत जाने कितने देवी-देवताओं की उपस्थिति आस्था और विश्वास के माध्यम से लोक और लोकोत्तर के विलक्षण ताने-बाने को बुनते हुए इस नगर को सबसे न्यारा बना देती है। काशी को हरिहर धाम भी कहते हैं और आनंद कानन भी। यह मुक्ति धाम भी है और विमुक्त क्षेत्र भी।

‘बनारसी’ एक खास तरह की जीवनदृष्टि और स्वभाव को इंगित करने वाला विशेषण बन चुका है, जो भारत की बहुलता और जटिलता को रूपायित करता है। यहां बहुलता के बीच प्रवहमान एकता की अंतर्धारा भी जीवंत रूप में उपस्थित होती है। पूरे भारत के लोग स्नेह के साथ इसकी प्रीति की डोर में बंधकर खि‍ंचे चले आते हैं। इस नगर में नेपाली, बंगाली, दक्षिण भारतीय, गुजराती तथा मराठी आदि अनेक समुदायों के लोग बसे हुए हैं। भारत ही क्यों पूरे विश्व में ज्ञान और मोक्ष की नगरी ‘काशी’ को लेकर उत्सुकता दिखती है। आज भी अक्सर जब भी कोई विदेशी भारत पहुंचता है तो काशी का स्पर्श किए बिना उसे अपनी यात्रा अधूरी लगती है।

पूरा बनारस एक जीवंत प्राणी जैसा है और यहां के लोग और विभिन्न स्थल उस प्राणी के ही अवयव से हैं। काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिग की महिमा अपरंपार है। उनके दर्शन की लालसा लिए हर कोने से शिव के आराधक पहुंचते हैं। अब उसके भव्य परिसर के निर्माण के साथ इस पुण्य स्थल की गरिमा और बढ़ेगी तो सांस्कृतिक एकता के सूत्र को भी बल मिलेगा।

गंगा के किनारे-किनारे बने अस्सी, दशाश्वमेध, मणिकर्णिका, हरिश्चंद्र और तुलसी आदि घाट देवताओं, राजाओं, संत-महात्माओं का स्मरण दिलाते हैं। शहर में विभिन्न क्षेत्रों में आपको कुंड, बाग, महाल, खंड, गली, टोला, डीह, चौरा, गंज, बीर, नगर, कोठी, पुर, सट्टी, सड़क आदि नाम के स्थान मिलेंगे और सबका अलग-अलग इतिहास है। लहुराबीर, भोजूबीर, जोगिआबीर, लौटूबीर, गोदौलिया, संकट मोचन, लंका, मैदागिन, चेत गंज, नाटी इमली, चौखंभा, नेपाली खपड़ा, सिगरा और मछोदरी आदि समाज के नायकों, देव स्थानों, घटनाओं और उत्सव-पर्व के सांस्कृतिक आयोजनों से जुड़े हैं। काशी में प्रात:काल और संध्या दोनों ही रमणीय होते हैं।

मेले, रामलीला, नवरात्रि, स्नान, दशहरा, रथयात्र, गंगा दशहरा आदि अनेक उत्सव साल भर होते ही रहते हैं। काशी एक जगा हुआ शहर है जिसमें गहमा-गहमी भी है और शांति भी। जीवन की आपाधापी के बाद एक स्निग्ध विश्रंति यहां की पहचान है। बनारसीपन में एक स्वस्थ अक्खड़पन है, जो एक खास तरह की उन्मुक्तता और सहजता में विश्वास करता है।

काशी का सनातन धर्म से गहन रिश्ता है, जो अनंत जीवन सत्य को अंगीकार करता है। भारत की अपनी बौद्धिक परंपरा की व्यापकता सृष्टि में निरंतरता और विभिन्न तत्वों के बीच अनुपूरकता को व्यक्त करती है। इसका स्वरूप काशी में आज भी परिलक्षित होता है। अपने वाराणसीपुरपति विश्वनाथ भी विलक्षण हैं। द्वंद्व ही द्वंद उनमें दिखते हैं। वे निहंग हैं, पर ईश्वर भी हैं।

तपस्वी हैं, पर कलावंत नटराज भी हैं। उन्हें चंदन पसंद है, पर चिता-भस्म भी प्रिय है। भांग-धतूरे के साथ पंचामृत का स्वाद भी प्रिय है। कहते हैं कि काशी अद्वैत सिद्धि का शहर है। काशी का उल्लेख पुराणों और जातकों के साथ शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। धार्मिक उथल-पुथल के बीच महात्मा बुद्ध का यहां आगमन हुआ था। काशी के निकट सारनाथ में उन्होंने ‘धम्म चक्क’ का प्रवर्तन किया था। महावीर काशी में ही जन्मे थे। गुप्तकाल में यहां बड़ी उन्नति हुई। इस शहर को एक समृद्ध विरासत प्राप्त है।

आज काशी नगरी का बड़ा विस्तार हुआ है। नए-नए उपक्रम शुरू हुए हैं, परंतु काशी का माहात्म्य मां गंगा और भगवान शिव से है। मां गंगा भारतीय संस्कृति की जीवित स्मृति हैं, जो युगों-युगों से भौतिक जीवन को संभालने के साथ आध्यात्मिक जीवन को भी रससिक्त करती आ रही हैं। गंगा भारत की सनातन संस्कृति का अविरल प्रवाह हैं और साक्षी हैं उसकी जीवंतता का। गंगा प्रतीक हैं शुभ्रता का, पवित्रता का, ऊष्मा का, स्वास्थ्य और कल्याण का।

गंगा ने राजनीतिक इतिहास के उतार चढ़ाव भी देखे हैं। इसके तट पर तपस्वी, साधु-संत बसते रहे हैं और अध्यात्म की साधना भी होती आ रही है। गंगा के निकट साल भर उत्सवों की झड़ी लगी रहती है। मां गंगा दुख और पीड़ा में सांत्वना देने का काम करती हैं। जीवन और मरण दोनों से जुड़ी हैं। पतित पावनी गंगा मृत्युलोक में जीवनदायिनी हैं। अब स्थिति बदल रही है। गंगा का स्वयं का क्षेम खतरे में है। गंगाविहीन देश भारत कहलाने का अधिकार खो बैठेगा। गंगा के प्रवाह को प्रदूषण मुक्त कर स्वच्छ बनाना राष्ट्रीय कर्तव्य है। गंगा में प्रदूषण के नियंत्रण के लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाने चाहिए।

काशी विश्वनाथ धाम के पुनर्निर्माण से इस पुण्य स्थल की गरिमा और बढ़ेगी तो सांस्कृतिक एकता के सूत्र भी मजबूत होंगे.

 

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