क्या है देश के पहले सीडीएस जनरल बिपिन रावत और मधुलिका की कहानी?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
पथरीली पगडंडियों से लेकर लाल कालीन तक जो पति के साथ-साथ चलीं। जिन्होंने न कभी पति से कोई शिकायत की, न ही दिल में कभी कोई मलाल रखा। पति का साथ निभाने में कहीं कोई संकोच महसूस नहीं किया। जिनके सहयोग के बिना पति का सफल होना शायद संभव नहीं था, उन्हीं मधूलिका रावत का जीवन आज महिलाओं के लिए मिसाल बन रहा है।
सात फेरे के समय पति के साथ जीने-मरने की जो कसम उन्होंने खाई थी, उसे निभाकर वह एक आदर्श बन गईं। देश सेवा के लिए एक समर्पित सैनिक देश के पहले सीडीएस बिपिन रावत की पत्नी स्व. मधूलिका रावत ने अपने प्यार की बुनियाद पर खुशहाल जिंदगी जीते हुए विश्वास की डोर मजबूत की और पति की ऊंचाइयों में परछाईं बनकर खड़ी रहीं…
पति सीमा पर दुश्मनों के सामने सीना तान कर खड़ा हो और पत्नी उसकी देश सेवा की ललक को समझते हुए उसके हिस्से की जिम्मेदारियां बखूबी निभा रही हो तो उस सैनिक पति को दुश्मनों के छक्के छुड़ाने और ऊंचाइयां छूने से कोई नहीं रोक सकता। सैनिक की पत्नी का त्याग और समर्पण ही उस सैनिक को देश सेवा पर मिटने का हौसला देता है। ऐसी ही सैनिक पत्नी की मिसाल थीं मधूलिका रावत जो अपने पति के साथ ही अंतिम यात्रा पर भी साथ ही गईं।
सेना के संस्कारों की एक प्रतिमूर्ति: बहुत ही सुंदर, सौम्य मूरत थी मधूलिका जी की। जो भी उनसे मिला उनकी सादगी, उनके सरल स्वभाव का कायल हो गया। ग्वालियर के सिंधिया स्कूल से पढ़ीं, दिल्ली विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में स्नातक किया। शाही परिवार से संबंध रखती थीं लेकिन उनका मृदुभाषी होना, जनरल की पत्नी की तरह व्यवहार न करना हर किसी को चकित कर जाता था। लोग सोचने पर मजबूर हो जाते थे कि क्या हम वास्तव में सेना की ‘पहली महिला के साथ बात कर रहे हैं।
हैदराबाद में रह रहीं डा. स्वप्निल पांडे एक रक्षा विषयों की लेखिका है और सैन्य पत्नियों के त्याग पर किताब लिख चुकी हैं। वह खुद एक सैन्य अधिकारी की पत्नी हैं और कहती हैं, ‘हम सैनिक पत्नियां अपने सपने अपनी उम्मीदों को छोड़कर पति का साथ देती हैं क्योंकि वे देश की रक्षा करते हैं और इससे बढ़ कर कुछ नहीं है। फौज में पत्नियों का काफी आदर किया जाता है।
मधूलिका रावत ‘फोर्स बिहाइंड द फोर्सेज थीं। उनके साथ के बिना सीडीएस बिपिन रावत का इस पद तक पहुंचना संभव नहीं था। वे सेना के संस्कारों की एक प्रतिमूर्ति थीं। मधूलिका रावत तो हम सभी के सामने मिसाल बन कर गई हैं। एक सैनिक की पत्नी की इससे बड़ी छवि हो ही नहीं सकती है। जो कसम होती है एक सैनिक पति का मरते दम तक साथ निभाने की, देश की सेवा में रुकावट नहीं बनने की, उसे उन्होंने तन-मन से निभाया।’
यूं बनीं श्रीमती रावत: हर किसी के मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि रीवा (मध्य प्रदेश) के एक शाही परिवार की राजकुमारी उत्तराखंड के एक छोटे से गांव के लड़के से कैसे ब्याही गईं? कैसे इस विवाह का संयोग बना? इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए उनके छोटे भाई यशवर्धन सिंह बताते हैं, ‘जनरल रावत की जब शादी हुई थी तब वह सेना में कैप्टन थे। उनके पिता लेफ्टिनेंट जनरल लक्ष्मण सिंह रावत भटिंडा में नियुक्त थे। वे लोग पौड़ी गढ़वाल के थे। इनका देहरादून आना जाना बना रहा। वहीं से इनको हमारी बहन के बारे में पता चला। हम शहडोल (मध्य प्रदेश) के सोहागपुर से हैं।
हम शाही परिवार से हैं। हमारे पिता को जब लक्ष्मण सिंह जी का एक पत्र आया कि मेरा एक बेटा है जो अभी सेना में कैप्टन है और अगर आप चाहें तो अपनी बेटी की शादी उनसे करने पर विचार कर सकते हैं। हमारे पिताजी को यह प्रस्ताव अच्छा लगा और हम मधूलिका जिज्जी को लेकर दिल्ली आए। हमारी बहन ने रावत जी को पहली बार देखा तो वह उनको पसंद आ गए। करीब 20 मिनट में शादी की बात तय हो गई। किस्मत ने उन दोनों को मिलाना था। इसलिए किसी मुद्दे पर ज्यादा बातचीत नहीं हुई। लड़की ने लड़का देखा और लड़के ने लड़की।
15 मिनट के भीतर-भीतर दोनों ने हां कर दी। अब बात आती है देहरादून में यह समीकरण कैसे बना? तो इस बारे में सूत्र बताते हैं कि मधूलिका जी के पिता कुंवर मृगेंद्र सिंह के रिश्ते की बहन देहरादून के बंजारा स्टेट में रहती थीं और वह लक्ष्मण सिंह जी के परिवार से परिचित थीं। इस तरह मधूलिका जी मध्य प्रदेश से दुल्हन बनकर उत्तराखंड की हो गईं।
बलिदान में भी बनीं सहभागी : बलिदान में भी कोई साथ दे पाता है क्या? लेकिन मधूलिका जी अपने पति की शहादत में भी सहभागी बनीं। वह उनके साथ पथरीली पगडंडियों पर भी खुशी-खुशी चलीं। उनके देहावसान पर टीवी पर एक दृश्य देखना प्रभावित कर गया। पहाड़ के ऊंचे, उबड़-खाबड़ रास्तों पर वे खुशी-खुशी चल कर जनरल रावत के पैतृक गांव जा रही थीं। वहां रहने वाले उनके रिश्तेदार भी उनकी तारीफ ही करते हैं। पौड़ी जिले के द्वारीखाल ब्लाक स्थित ग्रामसभा बिरमोली के तोक गांव सैंणा निवासी जनरल बिपिन रावत के चाचा भरत सिंह रावत कहते हैं, ‘कुछ वर्ष पूर्व जब जनरल रावत ब्रिगेडियर के पद पर थे, वह मधूलिका के साथ एक दिन के लिए गांव आए। उस शाम मेरी पत्नी सुशीला के साथ रसोई की जिम्मेदारी मधूलिका ने भी संभाली।
गांव में उन्हें इस तरह काम करते हुए देखना मेरे लिए अनूठा अनुभव था। मैं सोच रहा था कि जिस महिला के आसपास घर का कामकाज करने वालों की लाइन लगी रहती हो, वह इतनी सरल एवं सहज कैसे हो सकती है। सुशीला रावत से भी मधूलिका जी का तालमेल बहुत अच्छा था। सुशीला कहती हैं, ‘जब भी मधूलिका से फोन पर उनकी बात होती, वे सबसे पहले परिवार का हाल-चाल पूछतीं।
मधूलिका जब भी गांव आईं, कभी महसूस नहीं हुआ कि वे सेना के इतने बड़े अधिकारी की पत्नी हैं। उन्हें स्वजनों के साथ रसोई में बैठ हंसते-हंसते काम में हाथ बंटाते देखना बहुत अच्छा लगता था। ऐसा प्रतीत होता था, जैसे वह हमारे ही बीच की आम महिला हैं।’ यह कहते-कहते जनरल बिपिन रावत की चाची सुशीला रावत का गला भर आया।
वीर नारियों और दिव्यांग बच्चों से था लगाव : सैनिक की पत्नी का सेना में एक रैंक होता है। इनके पति देश की सुरक्षा के लिए काम कर रहे होते हैं और वे इससे बड़ा कोई लक्ष्य नहीं समझतीं। वे पति के समर्थन में अपने करियर के स्वार्थ को भुला देती हैं। लेकिन उन्हें सेना में उतना ही सम्मान भी मिलता है। इस बाबत सैन्य अधिकारी की पत्नी और लेखिका डा. स्वप्निल पांडे कहती हैं, ‘हम अपनी डिग्रियों को बक्से में डाल देते हैं और पति का साथ देते हैं। मधूलिका रावत जी ने तो पहले दिन से यही काम किया और जान भी दी तो साथ में। वह डिफेंस वाइव्स वेलफेयर एसोसिएशन की अध्यक्ष होने के नाते सीडीएस के साथ जा रही थीं। वे वेलिंगटन स्टाफ कालेज जा रहे थे।
इस सैन्य संस्थान में सीडीएस देश के भावी सैन्य नेतृत्व को देश सेवा का संदेश देने जा रहे थे और यही काम मधूलिका जी का भी था। सीडीएस के रूप में जनरल रावत जहां तीनों सेनाओं को एक कमान के अतंर्गत लाने का काम कर रहे थे, वहीं मधूलिका जी भी सेना के तीनों अंगों के सैनिकों की पत्नियों को जोड़ रही थीं। उन्हें वीर नारियों और दिव्यांग बच्चों से काफी लगाव था। वीर नारियां वे होती हैं जिनके पति वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं। हम उन्हें विधवा नहीं बल्कि वीर नारी कहते हैं। ये वीर नारियां उनके दिल के बहुत करीब थीं। उनके पुनर्वास के लिए मधूलिका जी ने बहुत काम किया था। कोविड के दौरान भी उन्होंने काफी काम किया। हमारे आशा स्कूलों में दिव्यांग बच्चों की परियोजनाएं से व्यक्तिगत तौर पर जुड़ी थीं। वह सैनिकों की पत्नियों को एक आदर्श रूप देकर गई हैं।’
कमाल थी आपस की समझदारी मधूलिका रावत के छोटे भाई यशवर्धन सिंह ने बताया कि एक पत्नी के रूप में हमारी जिज्जी हमेशा पति के फैसलों के साथ रहीं। उनकी दो लड़कियां हैं, कृतिका और तारिणी रावत। जीजाजी हमेशा सीमा रेखा वाली नियुक्तियां लेते थे। उनके सहयोगी और हम भी उनसे पूछते कि आप हमेशा सीमा वाले प्रदेश ही क्यों चुनते हैं? दिल्ली या मुंबई में पोस्टिंग क्यों नहीं लेते? तो उनका जवाब होता कि मैं एक योद्धा हूं, एक सिपाही हूं और बम, बंदूक की आवाज, दुश्मन, पहाड़ी, सीमावर्ती इलाकों के लिए बना हूं।
मैं देश का सिपाही हूं और सेवा करने आया हूं,शहर में रहने नहीं। यह कह कर वह दोनों बच्चों को हमारी बहन के पास छोड़ देते और नियुक्ति पर चले जाते थे। फिर बच्चों के पालन-पोषण, उन्हें संस्कार देने का जिम्मा जिज्जी ही सहर्ष उठाती थीं। जीजाजी का पूरा समर्थन तो रहता ही था। उन दोनों की आपसी समझदारी कमाल की थी। दोनों पति-पत्नी के बीच प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जबरदस्त आपसी समझ थी।
जिज्जी समझतीं थीं कि जीजाजी देश सेवा के लिए इतने बेकरार हैं कि यदि मैंने इन्हें परिवार या और किसी भी दायित्व को निभाने के लिए मजबूर किया, देश की सेवा से दूर किया तो इनका इस पृथ्वी पर आना व्यर्थ हो जाएगा। दोनों ने आपस में इस बात को समझा कि हमें मिल कर ही बच्चों की परवरिश करनी है। हमारी बहन पर दो तरह का दायित्व था, एक तो बच्चों के पालन का, दूसरे जीजाजी के पिता लेफ्टिनेंट जनरल लक्ष्मण सिंह रावत जी की देखभाल का, जो थल सेना में डिप्टी चीफ होकर रिटायर हुए थे। उनकी देखरेख, चिकित्सा सब हमारी बहन के ही जिम्मे था। पूरा दायित्व हमारी बहन ही नोएडा (उप्र) के सेक्टर 37 वाले घर में रहकर निभाती थीं। अपने पारिवारिक दायित्वों को बेहतरीन तरीके से निभाते हुए हमारी बहन काफी संतुष्ट थीं। हम लोगों ने कभी भी उनको तेज आवाज में बात करते नहीं सुना।
उन्होंने कहा लिखते रहना, रुकना मत रक्षा विषयों की लेखिका डा. स्वप्निल पांडे ने बताया कि मेरी जिंदगी को छुआ है मधूलिका मैम ने। मैं सैनिकों की पत्नियों के बारे में ही लिखती हूं। उस समय मैं एक युवा सैनिक की पत्नी थी और लिखना शुरू ही किया था। मेरी बड़ी इच्छा थी कि वे मेरी किताब का लोकार्पण करें। लेकिन उस रैंक की महिला कोई प्रचार नहीं करतीं, किसी कार्यक्रम में नहीं आतीं। वे भारतीय सेना की ‘प्रथम महिलाÓ थीं। मैंने जब उनसे अपनी किताब ‘लव स्टोरी आफ ए कमांडोÓ का लोकार्पण करने के लिए आने की प्रार्थना की तो वे झट से मान गईं। उनका मेरे कार्यक्रम में आना ही बहुत बड़ी बात थी। इतने प्रोटोकोल होते हैं उनके। उनकी सुरक्षा की अनुमतियां लेने में ही छह महीने लग गए। लेकिन वे आईं और उन्होंने मेरी किताब का लोकार्पण किया।
मैंने उनसे कहा कि मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि आप मेरी किताब के लिए आई हैं। मैं एक लेफ्टिनेंट कर्नल की पत्नी हूं और आपने अपने व्यस्त कार्यक्रम में से मेरे लिए समय निकाला। तो उन्होंने मुझे कहा कि तुम एक सैनिक की पत्नी हो और मैं आर्मी वाइव्स वेलफेयर एसोसिएशन की अध्यक्ष हूं और अगर तुम्हें सपोर्ट नहीं करूंगी तो मेरे यहां होने का अर्थ ही क्या है? लिखते रहना, रुकना मत। पति की नियुक्तियां परेशान करेंगी। लेकिन पति का साथ कभी नहीं छोड़ना। जो बात उन्होंने मुझसे कही, उन्होंने खुद निभाई।
शिष्टाचार निभाने में थीं आगे सीडीएस बिपिन रावत के चाचा के भरत सिंह रावत ने बताया कि जब मधूलिका हमारे घर आईं तब घर में जो भी खाना बना, उन्होंने बड़े प्रेम से खाया। गांव की महिलाओं से भी वह बड़ी आत्मीयता से मिलीं। रिश्ते और उम्र में अपने से बड़ों के चरण स्पर्श करना दर्शाता है कि मधूलिका कितनी संस्कारी थीं। 29 अप्रैल, 2018 को जब वह जनरल रावत के साथ दूसरी बार गांव आईं तो परिवार के सदस्यों के लिए अलग-अलग उपहार व मिठाई लाना नहीं भूलीं। शिष्टाचार किस तरह निभाया जाता है, मधूलिका से बेहतर शायद ही कोई और जानता हो।
25 अशोक से रिश्ता जनरल रावत और मधूलिका जिज्जी के विवाह के लिए नई दिल्ली में हमने 25, अशोक रोड बंगले को लिया था। यह हमें शहडोल (मप्र) के सांसद के सौजन्य से मिला था। ऐसा यशवर्धन सिंह बताते हैं। उनके अनुसार उनकी मां लखनऊ की रहने वाली थीं और मधूलिका का जन्म लखनऊ के 25, अशोक मार्ग स्थित नाना के घर में ही हुआ था। यह संयोग ही है कि 25 अशोक में वह जन्मीं और 25 अशोक में ही उनकी शादी हुई।
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