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समूची पीढ़ी को निर्बल बना देता है कम उम्र में हुआ विवाह. - श्रीनारद मीडिया

समूची पीढ़ी को निर्बल बना देता है कम उम्र में हुआ विवाह.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

केंद्रीय कैबिनेट ने लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र लड़कों के समान (21 वर्ष) करने के विधेयक के मसौदे को मंजूरी दे दी है। इस प्रगतिशील कदम के जरिये केंद्र सरकार ने लड़कियों में स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति को सुधारने, बाल विवाह का उन्मूलन करने, कुपोषण और मातृ तथा शिशु मृत्यु दर में कमी लाने की दिशा में अपनी प्रतिबद्धता पुन: जाहिर की है।

लड़कों और लड़कियों के विवाह की अलग-अलग आयु होना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) का उल्लंघन है। ऐसे में लड़कों और लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र में तीन वर्ष के अंतर की खाई को पाट कर मोदी सरकार ने लैंगिक समानता और महिला सशक्तीकरण की दिशा में ऐतिहासिक पहल की है।

छोटी उम्र में विवाह होने से राष्ट्र की भौतिक शक्ति का ह्रास होता है। इसके कारण राष्ट्र की प्रगति एवं विकास तो अवरुद्ध होता ही है, यह बेटियों के साहस एवं ऊर्जा को भी प्रभावित करता है। कम उम्र में हुआ विवाह समूची पीढ़ी को निर्बल बना देता है। शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने से बेटियां मां बनने के लिए प्राकृतिक और मानसिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक परिपक्व होंगी।

इसका प्रत्यक्ष असर उनके स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य पर पड़ेगा। इससे मातृ और शिशु मृत्यु दर में कमी आने के साथ-साथ माताओं और बच्चों में कुपोषण के मामलों में भी कमी आएगी। जब बेटियां कम उम्र में ब्याही जाती हैं तो उनके पढ़ने और रोजगार चुनने के सपने भी कुचल दिए जाते हैं। अगर लड़कियों की शादी देर से होगी तो उनके लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करने और रोजगार पाने की संभावनाएं बढ़ेंगी। ताजे प्रस्ताव के कानून बन जाने और सामाजिक स्वीकृति मिलने के बाद बेटियां शादी से पहले ग्रेजुएट हो सकती हैं।

स्नातक स्तर तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्हें रोजगार के अनेक अवसर मिलेंगे, जिससे उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा और इस तरह वे आत्मनिर्भर बनेंगी। अगर एक मां स्वस्थ, शिक्षित और परिपक्व होती है तो पूरे परिवार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बेहतर हो जाती है।

महात्मा गांधी ने कहा था कि जिन लड़कियों का विवाह कम उम्र में कर दिया जाता है, वे गृहिणियों का रूप ले लेती हैं। उनका शरीर मां बनने लायक नहीं होता। वे कभी स्कूल नहीं लौट पाती हैं। एक प्रगतिशील समाज में दकियानूसी विचारों का कोई स्थान नहीं होता, लेकिन इस कदम के कुछ लोगों द्वारा विरोध से प्रतीत होता है कि उन्हें बेटियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आत्मनिर्भरता से कोई सरोकार ही नहीं है। हमें मानसिकता में बदलाव लाकर बेटियों को खुला आसमान मुहैया कराना होगा। तभी जाकर लैंगिक समानता स्थापित करने के संयुक्त राष्ट्र के ध्येय को समय रहते पूरा करने में कामयाबी मिल पाएगी।

 

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