देश की हस्तियों ने बनाई वैश्विक मंच पर अपनी धमक.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
मोहन भागवत : जड़ों से जोड़ने को संकल्पित
पिछले कुछ सालों में देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्वीकार्यता बढ़ी है और उसकी विचारधारा को समर्थन बढ़ा है तो इसके पीछे संघ प्रमुख मोहन भागवत की वह स्पष्ट सोच है जो विभिन्न वर्गों, जातियों व संप्रदायों को कुटुंब के नजरिये से देखती है। यदि वे कहते हैं कि सबका डीएनए एक है तो इसमें बंधुत्व की भावना के साथ ही स्वीकार्यता का एक बड़ा संदेश निहित दिखाई देता है। यदि आपने बाहें फैला रखी हैं तो प्रबल विरोधियों का रुख भी आपकी ओर नरम पड़ेगा और यही भावना संघ की छवि को उदार बनाती जा रही है।
संघ प्रमुख का पदभार संभालने के साथ ही मोहन भागवत ने नियोजित रूप से न सिर्फ शाखाओं को विस्तार दिया बल्कि जातियों और वर्गों की संकीर्णता से आगे बढ़ते हुए संघ की आधुनिक छवि और सोच को सबके सामने रखने की कोशिश की। यदि वे कहते हैं कि हम चालीस हजार साल से एक ही पूर्वज के वंशज हैं और भारत में लोगों का डीएनए एक ही है तो उनकी मंशा यह स्थापित करने की भी होती है कि एकता का आधार राष्ट्रवाद होना चाहिए।
इस उदार सोच की वजह से ही मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ की स्वीकार्यता बढ़ी और इसका प्रभाव समाज में सकारात्मक अभिवृद्धि के रूप में भी देखने को मिला। वह अपने नेतृत्व में संघ के जरिये बंधुत्व की भावना को आगे बढ़ाते नजर आते हैं जिसमें मुसलमान भी समाहित हैं। वह जब कहते हैं कि मुसलमानों के बिना हिंदुत्व की बात बेमानी है। भारत में इस्लाम को कोई खतरा नहीं है और मुस्लिमों में इस तरह का कोई भय नहीं होना चाहिए तो ऐसी नैतिक सोच को भी सामने रखते हैं, जो संघ की छवि को और उदार बनाता है। सहज स्वीकार्यता के पीछे एक बड़ा कारण यह बेबाक सोच भी है।
नितिन गडकरी : समृद्धि का हाईवे
हाईवे मैन के रूप में पहचाने जाने वाले नितिन गडकरी के आफिस में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है- ‘अमेरिका की सड़कें इसीलिए अच्छी नहीं है क्योंकि अमेरिका अमीर है, बल्कि अमेरिका इसीलिए अमीर है क्योंकि उसकी सड़कें अच्छी हैं।’ पिछले साढ़े सात साल से भारत के सड़क, परिवहन और राजमार्ग मंत्री के रूप में नितिन गडकरी इसी ध्येय वाक्य के साथ देश में नई सड़क संस्कृति को साकार करने में जुटे हैं।
नितिन गडकरी का दावा है कि अगले ढाई साल में यानी 2024 तक भारत की सड़कें यूरोप और अमेरिका के समान हो जाएंगी। अरुणाचल प्रदेश से गुजरात तक और लद्दाख से केरल तक देश में सड़क संस्कृति में हो रही क्रांति को देखा जा सकता है। गडकरी के कार्यकाल में न सिर्फ हाईवे का कायाकल्प हो रहा है, बल्कि एक्सप्रेसवे कई क्षेत्रों में विकास और समृद्धि की नई रोशनी लेकर आया है।
सागरमाला प्रोजेक्ट समुद्री सीमाओं के बंदरगाहों और शहरों तक हाईस्पीड कनेक्टीविटी पहुंचाने का काम कर रहा है। इसके साथ ही सुपर एक्सप्रेसवे सड़क परिवहन में नई गति और सुरक्षा की कहानी लिखने को तैयार है। अगले एक साल में दिल्ली-मुंबई के रूप में नया सुपर एक्सप्रेसवे हासिल हो जाएगा। गडकरी सिर्फ बेहतरीन सड़कें बनाकर ही भारत में नई सड़क संस्कृति को लाने का काम नहीं कर रहे हैं बल्कि चालकों को टोल टैक्स के पुराने बंधनों से मुक्त करने में भी जुटे हैं।
उनके अनुसार आने वाले सालों में टोल कलेक्शन जीपीएस के सहारे एकत्रित किये जाएंगे, जिसमें किलोमीटर के हिसाब से अपने-आप खाते से टोल कट जाएगा। इसके अलावा गडकरी देश के सभी परिवहन प्रणाली में टिकट की जरूरत खत्म करने की तैयारी में भी जुटे हैं।
ममता बनर्जी : आत्मविश्वास सातवें आसमान पर
वर्ष 2020 तक ममता बनर्जी केवल बंगाल की मुख्यमंत्री थीं और अपने किसी लोक हितकारी फैसले के बजाय अक्सर केंद्र सरकार के प्रति संघीय शासन प्रणाली को चुनौती देने की हद तक अनास्था जताकर, राज्यपाल का अनादर करके या फिर रोहिंग्या मुसलमानों की तरफदारी जैसे घोर विवादास्पद प्रसंगों के लिए चर्चा में रहती थीं।
वर्ष 2021 में बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ममता को बंगाल से उखाड़ फेंकने की बेहद आक्रामक व्यूह-रचना की, किंतु चुनाव परिणाम आने पर ममता पहले से अधिक सशक्त होकर उभरीं। अब ममता भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय फलक पर विपक्ष का नेतृत्व करने का सपना देख रही हैं। जाहिर है, इसके लिए उन्हें कांग्रेस को पीछे धकेलना होगा।
ममता ने यह कवायद शुरू भी कर दी है। वह कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष शैली में कांग्रेस नेतृत्व को प्रभावहीन बताने में संकोच नहीं कर रहीं। बहरहाल, यह साफ दिख रहा है कि बंगाल विधानसभा चुनाव में असाधारण सफलता ने उनके आत्मविश्वास को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है। वह भूली नहीं होंगी कि विधानसभा चुनाव में उन्होंने क्षेत्रीयता का मुद्दा बहुत जोर-शोर से उछाला था, जो अब राष्ट्रीय राजनीति की राह में कांटा बनकर उन्हें चुभ सकता है।
इसके अलावा विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं के प्रति शैली भी उनकी स्वीकार्यता की राह में बड़ी अड़चन है। इसके बावजूद ममता बंगाल की छोटी छतरी से देश के बड़े राजनीतिक विस्तार को समेटने की कवायद में तेजी से जुट गई हैं।
राहुल गांधी : नहीं जला अलादीन का चिराग
भाजपा-आरएसएस की विचारधारा और मोदी-शाह की कार्यशैली पसंद न करने वाला वर्ग वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा है कि राहुल गांधी कोई चमत्कार कर दें यद्यपि 2021 में भी ऐसा संभव नहीं हो सका। इसके उलट नेतृत्व के सवाल और मुद्दों पर राहुल गांधी की दुविधा कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ताओं की इस उम्मीद पर धूल बढ़ाती रही कि उनके नेतृत्व में किसी दिन कांग्रेस तन कर खड़ी हो जाएगी।
आरएसएस-भाजपा और केंद्र सरकार की प्रभावी व आक्रामक कार्यशैली के सामने विपक्ष का नेतृत्व करने में राहुल गांधी प्रभावी साबित नहीं हुए। वे अक्सर अपनी सामाजिक, क्षेत्रीय और धार्मिक पहचान को लेकर आत्मविश्वास खोते नजर आए।
उन्हें बार-बार कहना पड़ा कि वह हिंदू हैं। कश्मीर पहुंचकर वे बताते हैं कि वह कश्मीरी हैं, जबकि अक्सर वह अपनी जाति-गोत्र की भी घोषणा करते हैं। अलग-अलग अवसरों पर प्रकट होने वाले उनके विरोधाभासी दृष्टिकोण के कारण कांग्रेस की समन्वित धार्मिक छवि नहीं बन सकी। पार्टी के वरिष्ठतम नेताओं द्वारा गठित जी-23 समूह खुलकर राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाते हुए पार्टी की दुर्गति के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहरा रहा है।
बहरहाल, कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं की तमाम चिंताओं से बेपरवाह राहुल गांधी भी शायद उम्मीद लगाए बैठे हैं कि किसी दिन अलादीन का चिराग जल उठेगा और सब कुछ यकायक बदलकर कांग्रेस के लिए अच्छा हो जाएगा।
एस. जयशंकर : वैश्विक मंच पर धमक
2021 में मोदी सरकार की सोच को आगे बढ़ाते हुए केंद्रीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हर मोर्चे को साधा ही नहीं बल्कि विश्व के सामने यह भी साबित किया कि भारत वसुधैव कुटुंबकम में भी विश्वास करता है और बराबरी में भी। पूर्वी लद्दाख में सीमा विवाद को सुलझाने को लेकर चल रही बातचीत में चीन को यह एहसास कराया गया कि भारत समझौता नहीं करेगा, बल्कि हक की बात करेगा। काबुल पर तालिबान का कब्जा होने के तकरीबन साढ़े चार महीने हो चुके हैं और भारत ने अफगानिस्तान के हालात को लेकर अमेरिका, रूस और यूरोपीय देशों के साथ एक समझ विकसित कर ली है।
भारत की तरफ से जयशंकर ने पहले ही विश्व बिरादरी को चेतावनी दे दी थी कि तालिबान को मान्यता देने में धीरज दिखाया जाना चाहिए, नतीजा यह है कि किसी भी देश ने अभी तक तालिबान को मान्यता नहीं दी है। जयशंकर के नेतृत्व में भारत ने इस साल पहले के मुकाबले और भी स्पष्ट तौर पर कह दिया है कि अब बहुध्रुवीय दुनिया का दौर होगा। एक तरफ अमेरिका के साथ साझा रणनीतिक हितों को लगातार मजबूत बनाना और दूसरा, रूस के साथ रिश्तों को पुराने दौर में लौटाना- यह विदेश मंत्रालय के कुशल नेतृत्व का ही नतीजा है।
भारतीय वैक्सीन को मान्यता दिलाने के साथ ही पश्चिमी देशों को यह भी संदेश दे दिया गया कि भारत उनके साथ वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा उनकी ओर से होगा। नतीजा यह हुआ कि इंग्लैंड, अमेरिका जैसे देशों ने तत्काल अपने यहां आने वाले भारतीयों को समान भाव से प्रवेश देना स्वीकार कर लिया। दरअसल भारत ने यह बता दिया है कि वह दोस्त की तरह सबके साथ खड़ा है, मदद देने और लेने के लिए हाथ बढ़ाए हुए।
अमिताभ बच्चन : आश्वस्त करने वाली आवाज
जब पूरी दुनिया कोविड की दहशत से जूझ रही थी, भारतीयों ने पाया कि अचानक ही सभी मोबाइल कंपनियों के नेटवर्क पर एक विशेष कालर ट्यून एक्टिव हो गई है। आप किसी को भी फोन मिलाएं, काल जुड़ने से पहले एक धीर-गंभीर आवाज कोरोना संक्रमण से बचने और इसके रोकथाम के तौर-तरीके बताती थी। यह आवाज थी सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की,
जिनकी सर्वस्वीकार्यता की वजह से केंद्र सरकार ने उन्हें जन जागरूकता की यह बेहद महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी थी। इसका असर भी हुआ। ‘दो गज दूरी, मास्क है जरूरी’ शीघ्र ही कालर ट्यून से निकलकर लोगों के कार्यकलापों में नजर आने लगा। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से भारत को ज्ञान की शक्ति से परिचित कराने वाले अमिताभ बच्चन ने इससे पहले भी देशवासियों को जन अभियान की शक्ति से परिचित कराया है।
वे इससे पूर्व पोलियो-मुक्त भारत, तपेदिक-मुक्त भारत, बच्चों के टीकाकरण और स्वच्छ भारत अभियान के मुखर प्रचारक रह चुके हैं। 79 वर्ष की आयु में भी काम में लगातार सक्रिय अमिताभ बच्चन कोविड काल में भी खामोश नहीं बैठे। एक तरफ उन्हें मुंबई में कोविड उपचार केंद्र स्थापित करने की मशक्कत करते देखा जा सकता था तो वहीं दूसरी तरफ वे लगातार तनावपूर्ण परिस्थितियों में काम कर रहे कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ाने में लगे रहे। बीते साल की तरह ही, जब कोरोना संक्रमित होने के दो सप्ताह बाद ही वे वापस फुल फार्म में लौट आए थे और जरूरतमंदों को भोजन से लेकर अस्पतालों में आवश्यक सुविधाओं के इंतजाम तक में जुट गए थे।
अदार पूनावाला – कृष्णा एल्ला : महामारी के सुषेण वैद्य
कोविड-19 महामारी को लेकर अगर दुनिया किसी बात पर भारत से रश्क करती है और हम भारतीय उस पर गर्व करते हैं, तो वह है सीरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया। दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन निर्माता इस कंपनी के ही सीईओ हैं 40 साल के अदार पूनावाला। 55 साल पहले स्थापित यह कंपनी आज दुनिया को सालाना वैक्सीन की 1.5 अरब खुराक निर्यात करती है।
दुनिया के कुल बच्चों में 65 फीसद ऐसे हैं जिन्हें दी गई कम से कम एक वैक्सीन सीरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया से तैयार हुई होती है। महामारी के दौरान दुनिया जितनी डरी थी, अदार उतने ही आश्वस्त थे। इतनी बड़ी वैक्सीन निर्माता कंपनी की कमान जिस शख्स के पास हो, उसे डर कहां डिगा पाएगा! अमेरिका की यूनिवर्सिटी आफ वेस्टमिंस्टर से स्नातक करने के बाद 2001 में सीरम से जुड़ाव हुआ, तब कंपनी दुनिया के 35 देशों में वैक्सीन का निर्यात करती थी।
आज कंपनी का परचम 140 देशों में फहराने लगा। इसका 85 फीसद राजस्व विदेश से आता है। 2012 में सीईओ बनने के बाद दुनिया की बड़ी कंपनियों का अधिग्रहण करके इस क्षेत्र में एकछत्र राज का मार्ग प्रशस्त किया। सात साल पहले ओरल पोलियो वैक्सीन तैयार की जो आज कंपनी की सबसे ज्यादा बिकने वाली वैक्सीन है।
कोविड-19 महामारी की शुरुआत में ही ब्रिटिश स्वीडिश फार्मास्यूटिकल्स कंपनी एस्ट्राजेनेका और आक्सफोर्ड के साथ मिलकर कोविशील्ड तैयार की। आज उनकी यह वैक्सीन भारत सहित दुनिया के अमीर और गरीब देशों के लोगों का कवच बन रही है। महामारी में वैक्सीन के संजीवनी देने वाले दूसरे सुषेण वैद्य हैं 52 वर्षीय कृष्णा एल्ला। कोरोना वायरस के खिलाफ दुनिया को अपनी तरह की अनोखी वैक्सीन देने वाली कंपनी भारत बायोटेक के संस्थापक और चेयरमैन इनकी प्राथमिक पहचान है।
इस भारतीय वैज्ञानिक और उद्यमी ने परंपरागत तरीके से मृत वायरस के इस्तेमाल से कोवैक्सीन नामक बूटी तैयार की। 1996 में इनका आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू से बायोटेक नालेज पार्क की स्थापना का अनुरोध इनकी दूरदर्शिता का ही परिणाम है। आज जिनोम वैली के रूप में इसकी महक से दुनिया आह्लादित है। कोरोना से पहले जिस जीका ने अफ्रीकी देशों में कहर मचाया था, उस महामारी को थामने का पहला टीका बनाने का रिकार्ड इनकी ही कंपनी के नाम है।
नीरज चोपड़ा : फेंक जहां तक भाला जाए
भारतीय परिवेश में कहा जाता रहा है, अंत भला तो सब भला। हरियाणा के पानीपत जिले के खंडरा गांव के एक यळ्वा ने इसका मतलब अपने हिसाब से तय कर दिया है, वह भी भाला फेंककर। नीरज चोपड़ा 23 साल के हैं, लेकिन विश्व एथलेटिक्स परिदृश्य पर अमिट छाप छोड़ चुके हैं। 87.58 मीटर के जिस थ्रो के साथ नीरज ने टोक्यो ओलिंपिक में सोने पर निशाना साधा, वह देश के कोने-कोने में मौजूद असीमित प्रतिभा से भरे बच्चों, किशोरों और युवाओं के लिए नया बेंचमार्क बन चुका है।
अक्सर बहस होती रही है कि आखिर विशाल जनसंख्या होने के बावजूद भारतीय खेल जगत चीन की तरह विश्व पटल पर छाप क्यों नहीं छोड़ पाता? इस प्रश्न का उत्तर दिया है नीरज की सफलता ने। स्पष्ट हो गया है कि भारत के खेल मंत्रालय, एथलेटिक्स फेडरेशन और जेएसडब्ल्यू स्पोर्ट्स की तिकड़ी के सामंजस्य, सहयोग और सामूहिक प्रयास से नीरज बनते हैं। आगे भी बन सकते हैं, यही संदेश है नीरज चोपड़ा की सफलता का।
उड़न सिख मिल्खा सिंह और उड़न परी पी.टी. उषा की कहानियों ने स्थापित किया है कि हम उस देश के वासी हैं जहां कच्ची मिट्टी में प्रतिभा के बीज दबे रहते हैं, बस उन्हें खाद-पानी देने की जरूरत है। मिल्खा सिंह और पी.टी. उषा बहुत नजदीकी अंतर से ओलिंपिक पदक विजेता बनने से रह गए थे। अब नीरज चोपड़ा ने आस जगाई है कि अब ट्रैक एंड फील्ड से भी चैंपियन निकलेंगे और विश्व खेलों का इतिहास भारतीय सफलता की कलम से लिखा जाएगा। नीरज ने मोटापा दूर करने के लिए जिस जेवलिन को थामा था, अब वह ओलिंपिक में भारतीय एथलेटिक्स व अन्य स्पर्धाओं के पदक के सूखे को दूर करेगा।
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