क्रूरता का साक्षी पोर्ट ब्लेयर स्थित कालापानी का सच.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। यह एक ऐसा पर्व है, जिसमें देश के जाने-अनजाने स्वतंत्रता सेनानियों को याद करते हुए पूरे देश को उनके योगदान से परिचित कराया जाना है। हरियाणा में इसकी शुरुआत भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष एवं पूर्व मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ ने शानदार ढंग से की है। धनखड़ के नेतृत्व में 129 सदस्यों का एक भारी-भरकम प्रतिनिधिमंडल हाल में अंडमान निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर और वाइपर द्वीप में होकर आया है, जहां आजादी के मतवालों का इतिहास दफन है। वहां की मिट्टी को कट्टों में भरकर हरियाणा लाया गया है, जो प्रदेश के हर जिले तक पहुंच रही है।
भाजपा का यह प्रतिनिधिमंडल कालापानी की जेल से ऐसी कहानियां और दस्तावेज लेकर लौटा है, जो आजादी के मतवालों को पहचान दिलाने में कारगर साबित हो सकते हैं। इसे सेल्यूलर जेल भी कहा जाता है। सेल्यूलर जेल जहां स्थित है, वहां चारों तरफ पानी ही पानी है। वहां से कोई कैदी भाग नहीं सकता था। जेल के चारों तरफ पानी ही पानी होने के कारण सेल्यूलर जेल को कालापानी की सजा बोला जाता है।
वहां भारत की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को सजा देकर भेजा जाता था। बेड़ियों में जकड़कर रखा जाता था। कड़ी यातनाएं दी जाती थीं। ऐसे नामों की लंबी सूची है, जिन्हें कालापानी की सजा सुनाई गई और सेल्यूलर जेल में डाला गया। प्रमुख नामों में बटुकेश्वर दत्त, विनायक दामोदर सावरकर, बाबू राव सावरकर, सोहन सिंह, मौलाना अहमदउल्ला, मौलवी अब्दुल रहीम सादिकपुरी, मौलाना फजल-ए-हक खैराबादी, एस चंद्र चटर्जी, डा. दीवान सिंह, योगेंद्र शुक्ला, वमनराव जोशी और गोपाल भाई परमानंद शामिल हैं।
इस सेल्यूलर जेल को बनवाने का विचार अंग्रेजों को 1857 की क्रांति के बाद आया था। इसमें रखे जाने वाले कैदियों से हर रोज 30 पाउंड नारियल और सरसों का तेल पेरने का काम लिया जाता था। यह जेल आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली थी। कैदियों को अलग-अलग सेल में रखे जाने का मकसद यह था कि वे भारत की आजादी को लेकर किसी तरह की कोई योजना न बना सकें। जेल का निर्माण 1896 में शुरू हुआ था, जो 1906 में बनकर तैयार हो गई थी। कालापानी की सजा के तौर पर सेल्यूलर जेल में सबसे पहले 200 विद्रोहियों को लाया गया था। कराची से 736 विद्रोहियों को लाया गया था। बर्मा से भी सेनानियों को सजा सुनाए जाने के बाद यहां कैदी बनाकर रखा गया था।
वर्ष 1858 से लेकर वर्ष 1910 तक बंदी बनाकर कालापानी भेजे जाने वाले सेनानियों के नामों का रिकार्ड खुर्दबुर्द हो चुका है। कालापानी के वाइपर द्वीप पर 1858 में झांसी के 200 सैनिकों को चेन से बांधकर मारा गया। पुरी, नगालैंड और मणिपुर के राजाओं को भी वहां बंदी बनाकर रखा गया, लेकिन इनका इतिहास में कहीं जिक्र नहीं है।
अंग्रेजों ने वर्ष 1910 के बाद स्वतंत्रता के लिए अलग-अलग आंदोलन करने वाले 120 लोगों को बंदी बनाकर कालापानी भेजा था। इनका रिकार्ड अंडमान की सेल्यूलर जेल में फोटो सहित उपलब्ध है, लेकिन इन वीरों की कहानी आजादी के बाद भी देश के सामने नहीं आ पाई। ओमप्रकाश धनखड़ इसके लिए कांग्रेस को दोषी बताते हैं। वाइपर टापू पर दी जाने वाली सजाएं भी बहुत खतरनाक हुआ करती थीं। वहां वाइपर प्रजाति के जहरीले सांप होते थे, जिनके बीच स्वतंत्रता सेनानियों को बांधकर छोड़ दिया जाता था।
सेल्यूलर जेल में एक ऐसा फंदा है, जिसमें एक साथ तीन लोगों को फांसी दी जाती थी। इस फंदे पर एक लोहे का छल्ला भी है, जिससे स्वतंत्रता सेनानियों की दर्दनाक मौत होती थी। इसके अलावा स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले मतवालों से कोल्हू चलवाया जाता था। हाथ बांधकर दीवार से लटका दिया जाता था। उनको कंकर मिला घटिया खाना दिया जाता था। जिस कोठरी में रखा जाता था, स्वतंत्रता सेनानियों को उसी में मल-मूत्र करने को विवश किया जाता था।
इस जेल के इतिहास को खंडित करने की कोशिश भी कई बार हुई। आधी जेल को तुड़वाकर गोविंद बल्लभ पंत अस्पताल बनवा दिया गया, ताकि सैकड़ों शहीदों और इस जेल का इतिहास दब जाए, लेकिन केंद्र में जब जनता पार्टी की सरकार आई तो मोरारजी देसाई ने वर्ष 1979 में इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया।
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने यहां स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर की पट्टी लगाई थी, जिसमें सावरकर के यह बोल लिखे थे कि हमने यह रास्ता भावना में नहीं चुना, हमको पता था कि इसके क्या परिणाम होंगे, लेकिन वाजपेयी की सरकार जाते ही कांग्रेस सरकार ने वीर सावरकर की पट्टी को हटाकर महात्मा गांधी की पट्टी लगवा दी थी, जबकि गांधीजी कभी कालापानी में आए ही नहीं थे।
सेल्यूलर जेल में एक चबूतरा बना हुआ है, जिस पर लिखा है कि यहां फांसी से पहले अंतिम क्रिया की जाती है। भाजपा के प्रतिनिधिमंडल का मानना है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी की फांसी से पहले ही अंतिम क्रिया कर दी जाए। दरअसल वहां कोई क्रिया ही नहीं होती थी और फांसी के बाद सीधे स्वतंत्रता सेनानियों को समुद्र में फेंक दिया जाता था, ताकि उनको अपने देश की मिट्टी भी नसीब न हो सके।
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