श्री गुरु गोविंद सिंह महान लोकनायक और युग प्रवर्तक महापुरुष थे.

श्री गुरु गोविंद सिंह महान लोकनायक और युग प्रवर्तक महापुरुष थे.

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

गुरु गोविंद सिंह जी विश्व इतिहास में अद्वितीय एवं अद्भुत बलिदानी थे. उन्होंने देश की सेवा में अपने पिता, चारों पुत्रों, अपनी माता जी एवं स्वयं का बलिदान दिया, जिसका समकक्ष उदाहरण इतिहास के पन्ने में ढूंढने से भी नहीं मिलता है. उन्होंने अन्याय एवं अत्याचार से जूझने में अपने संपूर्ण वंश का बलिदान कर दिया, पर कभी भी हार नहीं मानी. सजे हुए दीवान में जब बच्चों की माता जी ने पूछा कि बच्चे कहां हैं, तो उनका जवाब था- ‘इन पुत्रन से सीस पर, वार दिये सुत चार, चार मुए तो किया हुआ, जीवत कई हजार.’

अपने जीवन का उद्देश्य व्यक्त करते हुए उन्होंने ‘वचित्र नाटक’ में कहा- ‘धर्म चलावन संत उबारन, दुष्ट सभन को मूल उपारन, यही काज धरा हम जनमं, समझु लेहु साधू सब मनमं.’ धर्म की रक्षा, संत पुरुषों का उद्धार और दुष्टों का सफाया करने के लिए ही मैंने जन्म लिया है. इसलिए गुरु जी के लिए यह एक सामान्य युद्ध नहीं था, अपितु यह धर्म-युद्ध था. अपनी कृति ‘जफरनामा’, जो औरंगजेब को लिखा गया ‘विजय पत्र’ है, में उन्होंने उसकी धर्मांधता, आतंक और अत्याचार का घोर विरोध करते हुए, इस प्रकार उसको लिखा- ‘चूं कार अज हमा हीलते दर गुजश्त, हलाल असत बुरदन बा शमीशीर दसत.’

अर्थात, जब सभी मार्ग, उपाय अवरुद्ध एवं विफल हो जायें, तो अत्याचार और अधर्म के विरुद्ध खड्ग धारण करना सर्वथा उचित है. कहना नहीं होगा कि वे अकारण युद्ध के प्रेमी नहीं थे, वरन धर्म-युद्ध के प्रेमी थे. उनका परम लक्ष्य युद्ध नहीं, युद्ध का अंत था. ये बात भी गौर करने की है कि उनके अनुयायियों में अनेक मुसलमान भी थे, जिन्होंने इस धर्म युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर उनकी सहायता भी की.

‘अकाल पुरुष’ परमात्मा की वंदना करते हुए वे सिर्फ ये वरदान मांगते हैं कि ‘शुभ कार्यों के संपादन में मैं कभी भी पीछे नहीं हटूं और धर्म युद्ध में शत्रुओं का नाश कर निश्चय ही विजय प्राप्त करूं.’ उन्होंने कहा- ‘देह शिवा वर मोहि इहै शुभ करमन ते कबहूं न टरौं, न डरों अरि सो जब जाइ लरों, निशचै कर अपनी जीत करों.’ गुरु गोविंद सिंह जी बाहरी कर्मकांडों की वर्जना करते थे और लोगों को अंधविश्वास की बेड़ियों से मुक्ति पाने की सलाह देते थे.

उनके अनुसार, ईश्वर से सच्चा प्रेम का नाता जोड़ना चाहिए और साथ ही उसकी संतान- मानव मात्र से ऊंच-नीच का भाव त्याग कर प्यार करना चाहिए और उसके प्रति सहृदयता, विनम्रता एवं आपसी भाईचारे का भाव रखना चाहिए.

उन्होंने कहा कि ‘साच कहों सुन लेह सभै, जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पाइओ.’ साथ ही उन्होंने यह भी सलाह दी- ‘वन से सदन सबै कर समझहु, मन ही माहिं उदासा, अलप अहार, सुलप सी निद्रा दया क्षमा तन प्रीति, सील संतोष सदा निरवाहिबो, हवैवो त्रिगुण अतीत.’ भावार्थ- गुरु जी प्राणी मात्र को सहज मार्ग अपनाने का कहने के साथ ही कहते हैं कि तटस्थ उदासीनता का भाव रखते हुए घर को ही जंगल समझें एवं साधुत्व की अनुभूति करें.

अल्प आहार एवं अल्प निद्रा के साथ दया, विनम्रता, क्षमा और संतोष को आत्मसात करें. गुरु जी ने स्पष्ट किया कि बिना धर्म-ज्ञान एवं ईश्वर की भक्ति से जुड़ी बड़ी से बड़ी फौज भी उनकी रक्षा नहीं कर सकती.

प्रसिद्ध आर्य समाजी लाला दौलत राय ने गुरु जी को श्रद्धांजलि देते हुए अपने उद्गार इस तरह व्यक्त किये हैं- ‘श्री गुरु गोविंद सिंह केवल सिख पंथ के गुरु नहीं, वरन विश्व के महान लोक नायक और युग प्रवर्तक महापुरुष थे. उनका व्यक्तित्व असाधारण व बहुमुखी था. वे लोकप्रिय धार्मिक गुरु भी थे और प्रगतिशील समाज सुधारक भी, चतुर राजनीतिज्ञ भी थे और सच्चे देशभक्त भी. कुशल सेनानी भी थे और निर्भीक योद्धा भी, दार्शनिक विद्वान भी थे और ओजस्वी महाकवि भी. राजनीति, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक क्षेत्रों में से किसी एक-दो को चुनकर प्रयत्न करने वाले महापुरुष तो समय-समय पर अनेक हुए हैं,

परंतु उक्त सभी क्षेत्रों में समान रूप से अद्वितीय प्रगति प्राप्त करने वाले श्री गुरु गोविंद सिंह जैसे महान पुरुष विश्व इतिहास में दुर्लभ हैं.’ प्रसिद्ध सूफी कवि किबरीया खां अपने उद्गार इस तरह प्रकट करते हैं- ‘क्या दशमेश पिता तेरी बात करूं जो तूने परोपकार किये, एक खालस खालसा पंथ सजा, जातों के भेद निकाल दिये, इस तेग के बेटे तेग पकड़, दुखियों के काट जंजाल दिये, उस मुलको-वतन की खिदमत में, कहीं बाप दिया कहीं लाल दिए.’

गुरु जी की शिक्षाएं एवं आज के सामाजिक वातावरण पर भी चर्चा जरूरी है. आश्चर्य है कि इतने सदियों के बाद भी भारतीय समाज वर्ण-विभाजन के अभिशाप से पूर्ण-रूपेण मुक्त नहीं हो पाया है. ऊंच-नीच की भावना से ग्रसित होकर हम आज भी अपने व्यवहार में कई प्रकार की यंत्रणाएं देने से नहीं चूकते. कहने की आवश्यकता नहीं कि इससे समाज और देश की जड़ें कमजोर होती हैं और हम एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरने से पीछे रह जायेंगे.

Leave a Reply

error: Content is protected !!