क्या है पाटीदार आंदोलन और इसका इतिहास?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
आंदोलन जिसने देखते ही देखते इतना बड़ा रूप लिया था कि सूरत, अहमदाबाद और मेहसाणा में कर्फ्यू लगाने तक की नौबत आ गई थी। हीं टीवी, सोशल मीडिया और दुनिया भर के अखबारों में एक चेहरा खूब सुर्खियों में आया। वो नाम हार्दिक पटेल का था। क्या था पटेल आंदोलन और क्यों पाटीदार समाज ने ये आंदोलन किया था। जो बीजेपी सरकार के लिए एक समय में गले की फांस बन गया था।
तो आइए आज के इस विश्लेषण में आपको पटेल समुदाय के इतिहास से लेकर इसके पूरे टाइमलाइन को तारीख दर तारीख बताते हैं। साल 2015 में गुजरात की सड़कों पर अचानक जनसैलाब उमड़ पड़ा। भीड़ का चेहरा बनकर उभरे हार्दिक पटेल। वो पाटेदार आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। हार्दिक की मांग थी कि पाटीदारों को ओबीसी का दर्जा दिया जाए। उन्हें सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिले। आंदोलन का प्रभाव पूरे गुजरात में देखने को मिला और पूरे राज्य में प्रदर्शन किए गए।
गुजरात में एक बहुत ही मशहूर कहावत है प से पाटीदार और प से पॉवर। गुजरात की सियासत में पाटेदारों की ताकत ये है कि वे जिधर मुड़ते हैं सत्ता का रूख उधर मुड़ जाता है। आबादी में तो ये सिर्फ 15 प्रतिशत हैं। लेकिन 85 प्रतिशत पर भारी पड़ते हैं। गुजरात की सियासत में पाटीदार को किंगमेकर कहा जाता है। 1995 से पहले पाटीदार कांग्रेस के साथ थे तो गुजरात में कांग्रेस की सरकार बनती थी। जब 1995 के बाद वे बीजेपी के साथ आए तो गुजरात में आज तक बीजेपी को कोई टस से मस नहीं कर पाया। पाटीदारों की परंपरा रही है कि वे जिस भी पार्टी के साथ गए, पूरी तरह गए। बिखराव की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। लेकिन करीब दो दशक बाद ऐसा वक्त आया जब पाटीदारों और बीजेपी के बीच सबकुछ ठीक नहीं दिखा।
भाजपा का मजबूत आधार दूर जाता दिखा
बीजेपी के साथ पाटेदारों को जोड़ने में केशुभाई पटेल की बहुत बड़ी भूमिका थी। बीजेपी से अलग होने के बाद उन्होंने पाटेदारों की अस्मिता को बहुत बड़ा मुद्दा बनाया था। साल 2012 के विधानसभा चुनाव में अटकलें लगाई जा रही थी कि अगर पाटेदार केशुभाई पटेल के साथ चले गए तो बीजेपी के लिए मुश्किल हो जाएगी। नतीजे आए तो बीजेपी की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा था। जबकि केशुभाई पटेल की पार्टी को करीब 3.6 प्रतिशत वोट मिले थे और 2 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।
मतलब साफ था कि पटेल समुदाय ने मोदी के नेतृत्व में लड़ रही भाजपा को ही चुना था। लेकिन मोदी के जाने के बाद गुजरात के जो हालात बने उन्हें संभालना आनंदीबेन पटेल के लिए बेहद मुश्किल भरा रहा। बतौर मुख्यमंत्री आनंदीबेन की पहली राजनीतिक परीक्षा पटेल आंदोलन के समय हुई लेकिन इस राजनीतिक परीक्षा में आनंदीबेन फ़ेल साबित हुई और जो पाटीदार समुदाय एक समय भाजपा का मजबूत आधार मन जाता रहा वह भाजपा से दूर जाता दिखा।
खुद पटेल समुदाय से आने वाली आनंदीबेन अपने राज में पटेलों को संतुष्ट करने में नाकाम रहीं। उनके कार्यकाल में हार्दिक पटेल भाजपा के विरोध में बड़ा चेहरा बनकर उभरा। हार्दिक पटेल के आरक्षण आंदोलन को पूरे राज्य में अपार समर्थन मिला।
कौन हैं हार्दिक पटेल
पाटीदार आंदोलन का चेहरा बने हार्दिक पटेल गुजरात के वीरमगाम के रहने वाले हैं। बीकॉम की पढ़ाई की है। नेतागिरी से पहले वो अपने पिता के काम में हाथ बंटाते थे। उनके पिता का बोरिंग पंप से पानी बोतलों में भरकर सप्लाई करने का काम था। राजनीतिक विचारधारा की बात करें तो शुरुआती दिनों में उन्होंने सार्वजनिक मंच से कहा था कि वो बाला साहब ठाकरे की विचारधारा से प्रेरित हैं। मतलब वो किंग नहीं किंगमेकर बनने की ख्वाहिश रखते हैं। बाद में उन्होंने कांग्रेस पार्टी ज्वाइन कर ली।
पाटीदार अनामत आंदोलन
25 अगस्त 2015 को गुजरात के अहमदाबाद में पाटीदार समाज के लोगों का सबसे बड़ा आंदोलन देखने को मिला। इसमें हजारों लोगों ने हिस्सा लिया। आंदोलन के बाद कई जगह हिंसा और तनाव की खबरे भी आई। इसके बाद राज्य के कई शहरों में कर्फ्यू लगाना पड़ा। राज्य में हिंसा और आगजनी की कई घटनाए होने के बाद 28 अगस्त 2015 को स्थिति सामान्य हुई लेकिन 19 सितंबर 2015 को एक बार फिर आंदोलन ने हिंसक रुप ले लिया।
इसके बाद सरकार ने जनरल कैटेगिरी के छात्रों के लिए सब्सिडी और स्कॉलरशिप और आर्थिक रुप से कमजोर छात्रों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की घोषणा की। अगस्त 2016 में गुजरात हाईकोर्ट ने इस आरक्षण पर रोक लगा दी।
पाटीदारों का इतिहास
ब्रिटिश शासनकाल के वक्त गुजरात में खेती से धन अर्जित करने के लिए सरकार को कनबी और कोली जैसे दो समुदायों पर आश्रित रहना पड़ता था। दोनों का ही इस क्षेत्र में वर्चस्व हुआ करता था। लेकिन दोनों के काम करने के तरीके में काफी फर्क था। जमीनदारी दौर में दोनों समुदायों ने जमकर योगदान दिया। लेकिन वक्त बदला और तरीके भी।
कनबी एक गांव को पकड़ उसे अच्छी तरह विकसित करते तो वहीं कोली जमीन खरीद वहां खेती करते। कनबी जमीनदारी तक सीमित रह गये और कोली अपना पुश्तैनी काम छोड़ अन्य क्षेत्रों में चले गए। असल में कनबी ही हैं जिन्हें अब पाटीदार कहा जाता है और आधुनिक दौर में उनका सर नेम पटेल है।
आंदोलन का इतिहास
साल 1981 में कांग्रेस की माधवसिंह सोलंकी सरकार ने बख्शी आयोग की सिफारिश पर समाज के पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण नीति लागू कर दी। जिसके लिए सरकार नई कैटेगरी सोशली एंड इक्नॉमिकली बैकवर्ड क्लास के रूप में लेकर आई। प्रदेशभर में इसके विरोध में आंदोलन हुए और 100 से ज्यादा लोगों ने जान गंवाई। 1985 में सीएम सोलंकी ने इस्तीफा दे दिया।
लेकिन दोबारा गुजरात की सियासत की चर्चिट खाम (क्षत्रिय, हरिजन, मुसलमान और आदिवासी) थ्योरी के जरिये सत्ता में वापस आए। इस दौर में इन समुदाय. के दूसरी ओर खड़े पाटेदारों का राजनीतिक वर्चस्व कम होने लगा। सरकार ने आगे चलकर उसी एसईबीसी को ओबीसी के अंतर्गत रख दिया। 2014 आते आते इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले समुदायों की संख्या 81 से बढ़कर 146 हो गई, लेकिन पटेल समुदाय को इसमें शामिल नहीं किया गया।
गुजरात में पाटीदार क्यों हैं किंग मेकर
गुजरात की सियासत में जितनी अहमियत पाटेदारों की है उससे कहीं ज्यादा सरदार वल्लभ भाई पटेल की है। पाटेदार समुदाय से आने वाले सरदार पटेल पाटेदारों की ताकत के प्रतीक हैं। पटेल के कारण ही पाटेदार सालों कांग्रेस से जुड़े रहे। लेकिन 1995 के बाद से पाटेदारों ने बीजेपी का दामन थाम लिया। गुजरात की 182 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 92 सीटें चाहिए।
वोटों के लिहाज से देखें तो पाटेदार गुजरात में 182 में से कुल 60 सीटों पर अपना दबदबा रखते हैं। उत्तर गुजरात में गांधीनगर, बनासकांठा, साबरकांठा, अरवली, मेहसाणा, पाटन जिले और मध्य गुजरात के अहमदाबाद, दाहोद, खेड़ा, आणंद, नर्मदा, पंचमहल, वडोदरा जिले शामिल हैं।
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