मध्य प्रदेश में भी हुआ था ‘जलियांवाला बाग हत्याकांड’.

मध्य प्रदेश में भी हुआ था ‘जलियांवाला बाग हत्याकांड’.

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी पर अमृतसर में अंग्रेज अफसर जनरल डायर ने निहत्थे लोगों पर गोलियां चलवा दी थीं। उस नरसंहार को देश-दुनिया में जलियांवाला बाग हत्याकांड के नाम से जाना जाता है, किंतु इसी तरह का एक नरसंहार मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में भी हुआ था। दुर्भाग्य से न तो इतिहास में कहीं इस नरसंहार का बहुत उल्लेख मिलता है और न ही देश को स्वाधीनता मिलने के बाद सरकारों ने इसे याद रखा।

बलिदानियों को भूल जाने की प्रवृत्ति इतनी गहरी है कि कुछ वर्ष पूर्व जब सिविल सेवा परीक्षा में यह प्रश्न पूछा गया कि ‘मध्य प्रदेश का जलियांवाला बाग किसे कहते हैं?’ तो दुनियाभर की, खासतौर से मुगलकाल और अंग्रेजों से संबंधित तमाम जानकारियां रखने वाले परीक्षार्थी इस प्रश्न से चौंक गए थे, क्योंकि उन्हें इस बारे में कभी पढ़ाया ही नहीं गया। हालांकि बलिदान के उस दुखद दिन को बुंदेलखंड के गांव-गांव में लोगों ने आज भी सीने से लगाए रखा है और प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर उस दिन की याद में मेला लगाकर लोग यहां जुटते हैं।

फैली थी धार्मिक व राष्ट्रप्रेम की भावना: वर्तमान में मध्य प्रदेश के छतरपुर नगर से उत्तर पूर्व की ओर सिंहपुर गांव के समीप स्थित इस स्थान को लेकर जनश्रुति है कि भगवान रामचंद्र जी वनवास के दौरान यहां से गुजरे थे। उर्मिल नदी के बीच में स्थित प्रस्तर खंड पर आज भी उनके चरणों के चिन्ह अंकित हैं। इसी कारण इस जगह का नाम भी चरणपादुका पड़ा।

यहां सैकड़ों वर्षों से प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर मेला लगता है और बुंदेलखंड क्षेत्र का जनमानस बड़े आदर और भक्ति से इन चरण चिन्हों की पूजा करता है। 14 जनवरी, 1931 के दिन भी यहां मेला लगा था। उन दिनों देश में असहयोग आंदोलन का प्रभाव था और लोग गांव-गांव में विदेशी वस्तुओं का त्याग कर रहे थे। अंग्रेजों ने जनता पर तमाम तरह के कर लाद रखे थे। इन सभी मुद्दों और भावनाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए इस क्षेत्र के क्रांतिकारियों ने सभा करने का निर्णय लिया।

सभा के लिए बाकायदा नौगांव ब्रिटिश छावनी पर पदस्थ कर्नल फिशर से अनुमति मांगी गई, लेकिन कर्नल ने अनुमति नहीं दी। तब स्वतंत्रता सेनानियों ने तय किया कि मकर संक्रांति के मेले में बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुटेंगे, इसलिए वहीं पर सभा करके सबको बताया जाए कि कैसे ग्रामीण भी आजादी के आंदोलन में अपना योगदान दे सकते हैं।

नदी का रंग हो गया था लाल: मकर संक्रांति के दिन दूरदराज के गांवों से ग्रामीण मेले में पहुंचे। इसी दौरान स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े क्रांतिकारियों ने लोगों को समझाना शुरू किया कि अंग्रेज किस तरह हमारे देश को लूट रहे हैं और हम पर ही राज कर रहे हैं। क्रांतिकारियों की बात सुनकर जनसमुदाय में अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश पनप रहा था।

सभा में मौजूद लोगों ने एकजुट होकर घोषणा की कि वे अब अंग्रेजों को लगान नहीं देंगे। इसकी सूचना कर्नल फिशर को लगी तो वह आगबबूला हो उठा। वह सैन्य बल के साथ मेला स्थल पहुंचा और ब्रिटिश सैनिकों ने चरणपादुका स्थल को चारों ओर से घेर लिया। फिर कर्नल फिशर ने बिना चेतावनी दिए गोली चलाने का आदेश दे दिया। क्रूर कर्नल के आदेश पर ब्रिटिश सैनिकों ने निहत्थे लोगों पर गोलियों की बौछार कर दी।

लोग बदहवास हो भागते रहे और गोलियां उन्हें निशाना बनाती रहीं। महिलाएं अपने बच्चों को लेकर नदी में कूद पड़ीं और डूबकर बच्चों सहित मारी गईं। इतनी लाशें गिरीं कि नदी का पानी लाल हो गया था।

गुम हो गईं वे अनुगूंजें: सरकारी आंकड़ों में सिर्फ 21 लोगों की मौत दर्ज हुई और 26 लोग गंभीर घायल बताए गए, लेकिन स्थानीय लोग बताते हैं कि उनके बुजुर्गो से बचपन में यह सुना था कि तब 150 से अधिक लोग मारे गए थे और सैकड़ों घायल हुए थे। न जाने कितने तो नदी में डूबकर सदा के लिए गायब हो गए थे, वे कहीं दर्ज ही नहीं हुए। उस दिन चारों तरफ दूर-दूर तक केवल लाशें और घायल ही दिखाई दे रहे थे।

इस नरसंहार ने स्वाधीनता आंदोलन में आग फूंक दी। बुंदेलखंड सहित आसपास के इलाके में लोग आंदोलित हो गए और गांव-गांव में आक्रोश की अनुगूंजें सुनाई देने लगीं। बहुत से युवा माता-पिता के पैर छूकर घर से निकले और क्रांतिकारियों से जा मिले। अंग्रेजों से बदला लेने के लिए इस इलाके में क्रांतिकारियों की ओर से अंग्रेजों पर कई हमले किए गए। इसके बावजूद इतने नृशंस हत्याकांड की गूंज को पूरे देश में फैलने से दबा दिया गया और यह इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गया।

चंद स्मृतियों में जीवित वह बलिदान: 15 अगस्त, 1947 को देश को स्वतंत्रता मिल गई। तब ग्रामीणों और प्रशासन ने मिलकर चरणपादुका बलिदान स्थल पर एक स्मारक बनाया, जहां बाद में लगे एक सरकारी बोर्ड पर आज भी बलिदानी देशभक्तों के नाम अंकित हैं। यहां आज भी प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर मेला लगता है और लोग दूर-दूर से आकर बलिदानियों को याद करते हैं व उनकी स्मृति में दीप जलाते हैं।

भले ही इतिहास के पन्नों में इस ऐतिहासिक बलिदान स्थल को वैसा सम्मान नहीं मिल पाया जिसका यह हकदार था, किंतु आज भी चरणपादुका बलिदान स्थल मध्य भारत में ब्रिटिश अत्याचारों की पराकाष्ठा का दर्दनाक अनुस्मारक बना हुआ है।

Leave a Reply

error: Content is protected !!