Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
शास्त्री जी सादगी के प्रतीक थे,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

शास्त्री जी सादगी के प्रतीक थे,कैसे?

शास्त्री जी सादगी के प्रतीक थे,कैसे?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

1966 में ग्यारह जनवरी की रात तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद में पाकिस्तान से युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही घंटों बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का रहस्यमय परिस्थितियों में निधन हो गया था, लेकिन आज कहीं ज्यादा बड़ी त्रासदी यह है कि राजनीति में गांधीवादी मूल्यों से समृद्ध नैतिकता, ईमानदारी और सादगी की वह परंपरा पूरी तरह तिरोहित हो गयी है, शास्त्री जी जिसके मूर्तिमंत प्रतीक थे.

आज वे शायद ही किसी नेता के रोल मॉडल हों. जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, उन्होंने खुद को उसमें पूरी तरह झोंके रखा था. आजादी के बाद वे उत्तर प्रदेश में संसदीय सचिव और पुलिस व परिवहन मंत्री, फिर केंद्र में रेल व गृहमंत्री भी रहे थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद कुछ दिनों तक उन्होंने विदेश मंत्रालय भी अपने पास रखा था. जीवन के किसी भी मोड़ पर उन्होंने अपने नैतिक मूल्यों को कतई मलिन नहीं होने दिया था.

चालीस के दशक में वे जब जेल में बंद थे, तो ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ नामक एक संगठन जेलों में बंद स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों की आर्थिक सहायता किया करता था. इनमें शास्त्री जी का परिवार भी था. एक दिन जेल में परिवार की चिंता से उद्विग्न शास्त्री जी ने जीवनसंगिनी ललिता शास्त्री को पत्र लिख कर पूछा कि उन्हें यथासमय उक्त सोसायटी की मदद मिल रही है या नहीं?

ललिता जी का जवाब आया, ‘पचास रुपये महीने मिल रहे हैं, जबकि घर का काम चालीस रुपये में चल जाता है. बाकी दस रुपये किसी आकस्मिक वक्त की जरूरत के लिए रख लेती हूं.’ शास्त्री जी ने फौरन उक्त सोसायटी को लिखा, ‘मेरे परिवार का काम चालीस रुपये में चल जाता है. इसलिए अगले महीने से आप उसे चालीस रुपये ही भेजा करें.’

गृहमंत्री के रूप में केरल यात्रा के दौरान वे एक दिन जब विश्राम के क्षणों में तिरुवनंतपुरम में कोवलम स्थित समुद्र तट पर बालू पर लेटे हुए थे, कलेक्टर का चपरासी प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का कोई जरूरी पत्र लेकर आया. वह लेटे हुए शास्त्री जी को पहचान नहीं पाया और उन्हीं से पूछने लगा, ‘भाई, गृहमंत्री जी कहां मिलेंगे? मुझे उनसे फौरन मिलना और प्रधानमंत्री जी का अर्जेन्ट पत्र देना है.’

शास्त्री जी ने कहा,‘लाओ, वह पत्र मुझे दे दो. मैं गृहमंत्री को दे दूंगा,’ लेकिन चपरासी ने मना कर दिया. शास्त्री जी उससे नाराज हुए बिना मुस्कुराते हुए उठ कर पास ही स्थित अपने ठहरने के कमरे में गये, कुर्ता-धोती पहनी और बाहर आकर बोले, ‘मैं हूं गृहमंत्री. लाओ, अब प्रधानमंत्री जी का पत्र मुझे दो.’ चपरासी अवाक देखता रह गया.

वाराणसी में उनका घर एक संकरी गली में था. प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिनों बाद उन्हें घर जाना हुआ, तो समस्या थी कि उनकी कार वहां तक कैसे जाए? प्रशासनिक अधिकारियों ने शास्त्री जी को बताये बिना उक्त संकरी गली को चौड़ी करने के लिए कुछ मकानों में तोड़फोड़ का फैसला कर लिया. शास्त्री जी को जैसे ही इसका पता चला, उन्होंने आदेश दिया,‘एक भी घर पर हथौड़ा न चलाया जाए. मैं हमेशा की तरह पैदल घर चला जाऊंगा.’

मंत्री या प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें सार्वजनिक धन की किसी भी तरह की बर्बादी मंजूर नहीं थी. एक बार उनके बेटे सुनील शास्त्री ने उनकी सरकारी कार से चौदह किलोमीटर की यात्रा कर ली, तो उन्होंने सरकारी कोष में उसका खर्च जमा कराया. उन पर निजी कार खरीदने के लिए बहुत दबाव डाला गया, तो पता करने पर उनके बैंक खाते में सिर्फ सात हजार रुपये निकले, जबकि फिएट कार 12,000 रुपये में आती थी.

तब उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से 5,000 रुपये कर्ज लिये. यह कर्ज चुकाने से पहले ही उनका निधन हो गया, तो ललिता जी चार साल बाद तक उसे चुकाती रहीं. वर्ष 1963 में उन्हें कामराज योजना के तहत गृहमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था.

उस समय उनसे मिलने गये वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर के शब्दों में ‘एक शाम मैं शास्त्री के घर पर गया. ड्राइंग रूम को छोड़ कर हर जगह अंधेरा छाया हुआ था. शास्त्री जी वहां अकेले बैठे अखबार पढ़ रहे थे. मैंने उनसे पूछा कि बाहर बत्ती क्यों नहीं जल रही है?’ शास्त्री जी बोले- ‘मैं हर जगह बत्ती जलाना अफोर्ड नहीं कर सकता.’

ताशकंद में उन्हें खादी का साधारण-सा ऊनी कोट पहने देख सोवियत रूस के प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन ने एक ओवरकोट भेंट किया था, ताकि वे भीषण सर्दी का मुकाबला कर सकें, लेकिन अगले दिन उन्होंने देखा कि शास्त्री जी अपना वही पुराना कोट पहने हुए हैं, तो झिझकते हुए पूछा, ‘क्या आपको वह ओवरकोट पसंद नहीं आया?’

शास्त्री जी ने कहा, ‘वह कोट वाकई बहुत गर्म है, लेकिन मैंने उसे अपने दल के एक सदस्य को दे दिया है, क्योंकि वह कोट नहीं ला पाया है.’ इसके बाद कोसिगिन ने कहा था कि हम लोग तो कम्युनिस्ट हैं, लेकिन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ‘सुपर कम्युनिस्ट’ हैं. उन दिनों यह बहुत बड़ा ‘कॉम्प्लीमेंट’ था. शांतिदूत भी उन्हें उन्हीं दिनों कहा गया.

Leave a Reply

error: Content is protected !!