वर्चुअल रैली क्या होती है? इसका क्या भविष्य है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
कोविड 19 के बढ़ते संक्रमण के बीच वर्ष 2020 में संपन्न संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में राष्ट्रपति पद के तत्कालीन दावेदार और अब मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो विडेन ने जिन वर्चुअल रैलियां और इलेक्शन कैंपेन का सहारा लेकर चुनावी विजय श्री का वरण किया है, अब वही डिजिटल व वर्चुअल तकनीक भारत में वर्ष 2022 में होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी धमाल मचाएगी। हालांकि इसके टेलर तो वर्ष 2020 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव और 2021 में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव में भी देखे जा चुके हैं, जिससे भारतीय राजनैतिक दल भी बेहद उत्साहित हैं।
आपको पता होना चाहिए कि वर्चुअल रैली में रियल टाइम इवेंट के तहत न केवल तरह तरह का आयोजन किया जा रहा है, बल्कि कुछ फेमस ब्रांड और कंपनियां शार्प प्लानिंग एवं टाइमलाइन ट्रैकिंग जैसी महंगी और गुणवत्तापूर्ण सेवाएं भी दे रही हैं, जिसकी मांग भारतीय राजनीतिक दलों के बीच काफी बढ़ी है। ऐसा इसलिए कि इस तरह के अभियान में वीडियो के साथ ही आप ग्राफिक, पोल व अन्य जानकारियों को भी हासिल करके अपनी वस्तुनिष्ठ स्थिति का अवलोकन कर सकते हैं।
वहीं, कुछ ऐसी कंपनियां भी हैं जो आयोजित वर्चुअल रैली के बाद वर्चुअल रैली में हाज़िरी, सम्बन्धित गतिविधियों और मेल आदि से जुड़े आंकड़े और डेटा भी बड़ी मात्रा में मुहैया करवा रही हैं। इसलिए अब हर किसी राजनैतिक दल व उसके रणनीतिकार नेताओं व हार्ड कोर कार्यकर्ताओं के लिए यह जानना ज़रूरी है कि ये रैलियां कैसे होती हैं और इसमें तकनीक के क्या-क्या पहलू अंतर्निहित होते हैं, जो एक हद तक दर्शकों को प्रभावित करने की क्षमता व दक्षता रखते हैं।
# वर्चुअल रैलियों के बारे में कमर कस रहे हैं सभी राजनीतिक दल
बदलती दुनियादारी यानी नई विश्व व्यवस्था के जानकारों का कहना है कि किसी भी क्षेत्र में सफलता का मूल मंत्र अब ज्यादा से ज्यादा डिजिटल पकड़ का होना ही होगा । क्योंकि वैश्विक महामारी कोविड 19 के विभिन्न लहरों के इलाज को लेकर क्या भविष्य होगा, इस बात पर ही यह निर्भर होगा कि इन डिजिटल और वर्चुअल रैलियों का भविष्य क्या होगा। हालांकि, डिजिटलीकरण की तरफ राजनेताओं का आक्रामक रुख तो शुरू हो ही चुका है जो निकट भविष्य में तेज गति से ही बढ़ने वाला है।
यही वजह है कि राजनीतिक पार्टियों की डिजिटल विंग्स भी लगातार नई तकनीकों और विचारों के हिसाब से अपनी अपनी दलगत रणनीतियां बना रही हैं। जिसके चलते सोशल मीडिया पर न केवल बेतहाशा खर्च किया जा रहा है बल्कि सियासी डेटा के विश्लेषण पर भी गहन व सूक्ष्म विचार विमर्श हो रहा है। यही नहीं, राजनीतिक पार्टियां भी अब अपने ग्रामीण कार्यकर्ताओं तक को टेक सैवी बनाने की अथक कोशिश कर रही हैं, जिससे न केवल गैजेट्स बिक रहे हैं बल्कि इनके मरम्मत का कारोबार भी बढ़ रहा है।
# वर्चुअल रैलियों की ये हैं सीमाएं, पहुंच की और खर्च की
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, राजनीतिक पार्टियां निकट भविष्य में अलग अलग थीम और अग्रगामी विचार पर आधारित वर्चुअल रैलियों पर फोकस कर सकती हैं। इन रैलियों को बड़ी बड़ी स्क्रीन वाली टीवी पर प्रसारित किए जाने की योजनाएं भी बन सकती हैं। जहां तक इनकी सीमाओं की बात है तो यह स्पष्ट है कि जहां पहले ये रैलियां एकतरफा संवाद जैसी होती रही हैं और बहुत खर्चीली साबित होती आई हैं।
वहीं वर्चुअल व डिजिटल रैलियों में दोतरफा संवाद की गुंजाइश तो है, लेकिन इनमें खर्च कम आएगा या पहले की अपेक्षा अधिक, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सम्बन्धित राजनीतिक दल की तैयारी क्या है और किस ऑडिएंस तक वह पहुंचना चाहती है। इस बारे में सही जानकारी पार्टी के सक्षम लोग और पेशेवर कम्पनियों के बीच हुई निगोशिएशन से ही मिल सकती है, जो प्रायः कोई पक्ष नहीं देना चाहेगा, अपनी व्यवसायिक व पेशेवर गोपनीयता के नजरिये से। यह कैसे? इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है।
दरअसल, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की बिहार में वर्ष 2020 में हुई एक वर्चुअल रैली की कीमत कितनी रही, यह जनचर्चा का विषय बन गई? क्योंकि राज्य के 72 हज़ार बूथों के कार्यकर्ताओं तक अमित शाह का संवाद पहुंचाने के लिए हज़ारों की संख्या में एलईडी स्क्रीनों और स्मार्ट टीवी इंस्टॉल कराए गए। तब आरजेडी इससे अवाक रह गई। उसने लगे हाथ आरोप लगाया था कि इस रैली पर सरकार ने 144 करोड़ रुपए खर्च किए। उसने यह सवाल भी दागा था कि क्या छोटी पार्टियां इतना ज्यादा खर्च कर पाएंगी। वाकई यह सोचने वाली बात है।
# अब डिजिटल माध्यमों की तकनीकों का इस्तेमाल होगा चालाकी से
अपने देश में टीवी चैनल दूरदर्शन के साथ ही आल इंडिया रेडियो जैसे राष्ट्रीय समाचार चैनलों का इस्तेमाल सत्ताधारी पार्टी के हाथ में रहेगा और निजी चैनलों, रेडियो एफएम और सामुदायिक रेडियो के ज़रिये अन्य पार्टियां वर्चुअल कैंपेनिंग कर सकती हैं। चूंकि अभी वर्चुअल रैली का खर्च बहुत ज़्यादा होगा, इसलिए संचार माध्यमों के चतुराई भरे इस्तेमाल से किसी भी सियासी दल द्वारा चुनावी बाज़ी जीती जाएगी। वहीं, सबसे सफल जनसम्पर्क तकनीक स्मार्टफोन के ज़रिये भी सियासी पार्टियां करोड़ों लोगों तक पहुंचने की रणनीति बना सकती हैं। क्योंकि इसके सहारे वॉट्सएप सहित मैसेंजर, वीडियो कॉल और मीटिंग एप्स का प्रयोग किया जा सकता है। इसके अलावा, इस पर संचालित सोशल मीडिया के जरिये भी उनतक पहुंचा जा सकता है और अपने डिजिटल अभियानों से उन्हें जोड़ा व जोड़वाया जा सकता है।
# अब नई तकनीकें ही तय करेंगी राजनीतिक दलों का चुनावी भविष्य
अंततः आपको यह मानना ही पड़ेगा कि अब नई तकनीकें ही राजनीतिक दलों का चुनावी भविष्य तय करेंगी। इनमें विभिन्न फीचर्स वाले स्मार्ट फोन, विभिन्न रूपों वाले सोशल मीडिया और प्रचलित माध्यमों से वर्चुअल रैलियों और डिजिटल चुनावी अभियानों की शुरूआत होने के बाद यह बाज़ार और बढ़ेगा और नई तकनीकें या आइडिया आएंगे। जानकारों के मुताबिक, कई तकनीकी कंपनियां राजनीतिक पार्टियों के लिए विशेष रूप से इनोवेटिव तकनीकें या मंच तैयार करेंगी। क्योंकि ये अभी ज़ूम क्लाउड जैसी तकनीकों से वीडियो मीटिंग या संवाद प्रचलित कर पा रहे हैं, लेकिन रैलियों के लिए और बेहतर मंच जुटाने की ज़रूरत बनी हुई है, ताकि रैलियों का खर्च कम हो सके और इनमें जीवंतता महसूस हो सके।
हालांकि भारत में डिजिटल पहुंच को समय के साथ बढ़ाना ही वर्चुअल चुनावी अभियानों का भविष्य तय करेगा। क्योंकि अभी तो यह प्रयोग बड़े तौर पर सिर्फ शहरी वोटरों तक की पहुंच में ही होगा। बहरहाल, राजनीतिक पार्टियों का डिजिटलीकरण आने वाले दिनों में एक बेहतरीन कहानी तो बनने जा रहा है, यह तय है।
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