Breaking

आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे, जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली।

आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे, जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली।

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सआदत हसन मंटो जन्म:11 मई, 1912, समराला, पंजाब; मृत्यु: 18 जनवरी, 1955, लाहौर) कहानीकार और लेखक थे। मंटो फ़िल्म और रेडियो पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद उर्दू और हिन्दी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है। आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे, जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली।

सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक़्त से आगे की ऐसी रचनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।प्रसिद्ध कहानीकार मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था। उनके पिता ग़ुलाम हसन नामी बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था, और मंटो उन्हें बीबीजान कहते थे। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। मंटो ने एंट्रेंस इम्तहान दो बार फेल होने के बाद पास किया। इसकी एक वजह उनका उर्दू में कमज़ोर होना था। मंटो का विवाह सफ़िया से हुआ था। जिनसे मंटो की तीन पुत्री हुई।

मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है उतनी शायद उर्दू और हिन्दी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है। आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली। उन्होंने जीवन में कोई उपन्यास नहीं लिखा।

1932 में मंटो के पिता का देहांत हो गया। भगत सिंह को उससे पहले फाँसी दी जा चुकी थी। मंटो ने अपने कमरे में पिता के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा-“लाल कमरा।

अन्य कृतियाँ

कुछ लेख
  • मैं क्या लिखता हूँ?
  • मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ?
कुछ कहानियाँ

टोबा टेक सिंह, खोल दो, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, कम्युनिज़्म, तमाशा, बू, ठंडा गोश्त, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, काली शलवार

रूस के साम्यवादी साहित्य से प्रभावित

मंटो का रुझान धीरे-धीरे रूसी साहित्य की ओर बढ़ने लगा। जिसका प्रभाव हमें उनके रचनाकर्म में दिखाई देता है। रूसी साम्यवादी साहित्य में उनकी दिलचस्पी बढ़ रही थी। मंटो की मुलाक़ात इन्हीं दिनों अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उन्हें रूसी साहित्य के साथ-साथ फ़्रांसीसी साहित्य भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद मंटो ने विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, आंतोन चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां आदि का अध्ययन किया।

अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही उन्होंने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे “द लास्ट डेज़ ऑफ़ ए कंडेम्ड” का उर्दू में अनुवाद किया, जो “सरगुज़श्त-ए-असीर” शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ। यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका अनुवाद करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उसके दिल के बहुत क़रीब है। अगर मंटो के कहानियों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था।

विक्टर ह्यूगो के इस अनुवाद के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड से ड्रामे “वेरा” का अनुवाद शुरू किया। दो ड्रामों का अनुवाद कर लेने के बाद मंटो ने अब्दुल बारी के ही कहने पर रूसी कहानियों का एक संकलन तैयार किया और उन्हें उर्दू में रूपांतरित करके “रूसी अफ़साने” शीर्षक से प्रकाशित करवाया।

1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, उसका शीर्षक था “आतिशपारे”। अलीगढ़ में मंटो अधिक नहीं ठहर सके और एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गये। वहाँ से वह लाहौर चले गये, जहाँ उन्होंने कुछ दिन “पारस” नाम के एक अख़बार में काम किया और कुछ दिन के लिए “मुसव्विर” नामक साप्ताहिक का संपादन किया। जनवरी, 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरू किया। दिल्ली में मंटो सिर्फ़ 17 महीने रहे, लेकिन यह सफर उनकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था।

यहाँ उनके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए ‘आओ’, ‘मंटो के ड्रामे’, ‘जनाज़े’ तथा ‘तीन औरतें’। उसके विवादास्पद ‘धुआँ’ और समसामियक विषयों पर लिखे गए लेखों का संग्रह ‘मंटो के मज़ामीन’ भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुआ। मंटो जुलाई, 1942 में लाहौर को अलविदा कहकर बंबई पहुँच गये। जनवरी, 1948 तक बंबई में रहे और कुछ पत्रिकाओं का संपादन तथा फ़िल्मों के लिए लेखन का कार्य किया।

1948 के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 161 कहानियाँ संग्रहित हैं। इन कहानियों में सियाह हाशिए, नंगी आवाज़ें, लाइसेंस, खोल दो, टेटवाल का कुत्ता, मम्मी, टोबा टेक सिंह, फुंदने, बिजली पहलवान, बू, ठंडा गोश्त, काली शलवार और हतक जैसी चर्चित कहानियाँ शामिल हैं। जिनमें कहानी बू, काली शलवार, ऊपर-नीचे, दरमियाँ, ठंडा गोश्त, धुआँ पर लंबे मुक़दमे चले। हालाँकि इन मुक़दमों से मंटो मानसिक रूप से परेशान ज़रूर हुए लेकिन उनके तेवर ज्यों के त्यों थे।

मंटो के 19 साल के साहित्यिक जीवन से 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख मिले। तमाम ज़िल्लतें और परेशानियाँ उठाने के बाद 18 जनवरी, 1955 में मंटो ने अपने उन्हीं तेवरों के साथ, इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

Leave a Reply

error: Content is protected !!