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डॉ. द्विवेदी ने संस्कृत में 100 पुस्तकें-ग्रंथ लिखे,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

डॉ. द्विवेदी ने संस्कृत में 100 पुस्तकें-ग्रंथ लिखे,कैसे?

डॉ. द्विवेदी ने संस्कृत में 100 पुस्तकें-ग्रंथ लिखे,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

संस्कृतायेवमे अर्पितम जीवनम, पठ्यते संस्कृतम लिख्यते संस्कृतम। यानि संस्कृत को ही पूरा जीवन समर्पित, पढाई संस्कृत और संस्कृत में ही लेखन। कुछ ऐसे ही हैं शारदा नगर निवासी विद्वान 74 वर्षीय डा. शिवबालक द्विवेदी, जिनके लिए संस्कृत (देवभाषा) ही जीवन है। इन्होंने ही संस्कृत का पहला अखबार प्रकाशित किया तो मुनमुन सेन ने संस्कृत सिखाई।

इतना ही नहीं गायक मन्ना डे से श्लोक गवाए, जो खासा लोकप्रिय हुए। आजादी के बाद बीते 40 साल से देवभाषा और उसके साहित्य को शिखर तक पहुंचाने में उनका अविस्मरणीय सहयोग है। उनके कृतित्व से प्रभावित प्रशंसकों ने उनका नाम प्रतिष्ठित पद्मश्री सम्मान के लिए नामित किया है। उनके नक्श-ए-कदम पर चलकर युवा पीढ़ी भी संस्कृत के प्रचार-प्रसार में जी-जान से जुटी है।

मूलरूप से हरदोई के रहने वाले हैं डॉ. द्विवेदी : डा. द्विवेदी मूलरूप से हरदोई की हरपालपुर तहसील के श्यामपुर गांव के रहने वाले हैं। उनके पिता स्व. पं.बाबूराम द्विवेदी किसान और मां स्व. देवकी द्विवेदी गृहणी थीं, लेकिन दोनों की ही रुचि संस्कृत में थी। वह बताते हैं कि मां ही हमेशा वेद, उपनिषद व संस्कृत के श्लोक सुनाया करती थीं। इसी वजह से उनकी रुचि भी संस्कृत में हो गई और धीरे-धीरे उन्होंने इसे आत्मसात कर लिया।

हरदोई में प्रारंभिक शिक्षा और स्नातक व परास्नातक की पढ़ाई करने के बाद डीएवी कालेज में डा. हरदत्त शास्त्री के निर्देशन में पीएचडी की उपाधि हासिल की और फिर संस्कृत में लेखन व पठन-पाठन शुरू कर दिया। उन्होंने वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से साहित्य शास्त्री की उपाधि भी प्रथम श्रेणी में प्राप्त की।

आज भी जारी है संस्कृत में पठन, पाठन और लेखन : डॉ. द्विवेदी ने बताया कि वह करीब 40 वर्षो से संस्कृत भाषा और साहित्य के उत्थान व प्रसार के लिए कार्य कर रहे हैं। संस्कृत साधना व तपस्या की भाषा है। इसी तपस्या में वह अनवरत लगे हैं। 100 से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिसमें से 30 ग्रंथ शामिल हैं। कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया। उन्होंने अपने निर्देशन में ही 100 से ज्यादा विद्यार्थियों को पीएचडी कराई और 127 लघु शोधपत्र प्रस्तुत किए।

इसी वजह से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी उन्हें सम्मानित किया था। वर्ष 2018 में प्रदेश सरकार ने एक लाख एक हजार रुपये का महर्षि नारद पुरस्कार दिया था। इसके बाद ही उन्होंने साक्षी चेता विद्या भारती शिक्षा केंद्र और वैदिक शोध संस्थान की स्थापना की, जिसे अब उनके बेटे संभाल रहे हैं। स्वास्थ्य ठीक न होने के बावजूद वह संस्कृत में लेखन और पाठन जारी रखे हैं। वह शोधार्थियों को पढ़ाते हैं।

डीएवी में विभागाध्यक्ष, बद्रीविशाल कालेज में रहे प्राचार्य : डा. द्विवेदी ने बताया कि उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय से महाकवि भवभूति के नाटकों में ध्वनि तत्व विषय पर पीएचडी की उपाधि हासिल की थी। शोधकार्य के लिए यूजीसी रिसर्च स्कालरशिप भी मिली। इसके बाद डीएवी कालेज के संस्कृत विभाग के रीडर व विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहे। यहां से वह फर्रुखाबाद स्थित बद्री विशाल स्नातकोत्तर कालेज के प्राचार्य नियुक्त हुए और करीब 10 वर्ष तक वहां भी संस्कृत का प्रचार करते रहे।

मुनमुन सेन को सिखाई संस्कृत, मन्ना डे ने गाए श्लोक : डा. द्विवेदी ने दूरदर्शन और आकाशवाणी पर भी संस्कृत का प्रसार किया। उनकी लिखी कई पुस्तकों और रचनाओं पर भी विद्यार्थी अब शोध कर रहे हैं। डा. द्विवेदी ने बताया कि जब वह मुंबई में थे तो वहां सुचित्रा सेन की बेटी मुनमुन सेन ने उनसे संस्कृत की शिक्षा ली थी। यही नहीं मन्ना डे भी आते थे और उनके लिखे श्लोक गाते थे। वह श्लोक भी काफी प्रसिद्ध हुए थे।

पूर्व प्रधानमंत्री की प्रेरणा से निकाला संस्कृत का पहला अखबार : पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर डा. द्विवेदी से मिलने आते थे। वह बताते हैं कि उनकी प्रेरणा से ही उन्होंने देश में संस्कृत का पहला समाचार पत्र ‘नव प्रभातम’ शुरू किया था। शुरुआत में इसकी काफी मांग थी, लेकिन जैसे-जैसे महाविद्यालय व इंटर कालेजों में संस्कृत के प्रति रुझान घटा, अखबार की प्रतियां कम होती गईं। डा. द्विवेदी ने बताया कि उनकी बेटी और बेटे अब भी पत्र का प्रकाशन कर रहे हैं।

कई पुरस्कारों से हुए सम्मानित : डा. द्विवेदी को संस्कृत व साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्यों के लिए व्याकरण रत्न सम्मान, महर्षि नारद पुरस्कार, संस्कृत साहित्य सेवा सम्मान, कालिदास पुरस्कार, कर्म योगी सम्मान, संस्कृत आशु कवि भारती सम्मान, संस्कृत विशिष्ट पुरस्कार, राजशेखर अवार्ड, राज्य साहित्य पुरस्कार जैसे अनगिनत पुरस्कार मिले हैं। वह बताते हैं कि संस्कृत प्रेमी उनके पास आकर आज भी पुस्तकें पढऩे के लिए ले जाते हैं।

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