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एकात्म समरस समान लक्ष्य वाला समाज भारत है. - श्रीनारद मीडिया

एकात्म समरस समान लक्ष्य वाला समाज भारत है.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

वर्ष 1950 में देश ने आज के दिन ही अपना संविधान स्वीकार किया था। संविधान स्वीकृति के बाद हम गणतांत्रिक देश बन गए। देश की भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं को ध्यान में रखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने भविष्य में देश के सम्मुख आने वाली चुनौतियों का समाधान करने में सक्षम संविधान देश को दिया। संविधान की प्रस्तावना का प्रारंभ करते हुए उन्होंने ‘हम भारत के लोगÓ कहा। हम भारत के लोग अर्थात अब हम स्वतंत्र, संप्रभुता संपन्न गणतंत्र हैं। अब हम किसी विदेशी सत्ता के अधीन नहीं हैं। हमारा संविधान भी किसी विदेशी सत्ता द्वारा निर्देशित एवं निर्मित नहीं है। यह संविधान हमारे प्रतिनिधियों द्वारा अर्थात हमने ही बनाया है।

‘हम भारत के लोगÓ देश के स्वतंत्र होते समय लगभग 40 करोड़ थे जो अब बढ़कर लगभग 138 करोड़ हो गए हैं। अब हम ही अपने भाग्य के निर्माता हैं। प्राचीन समय से अपने देश में एक कहावत प्रचलित है- यथा राजा तथा प्रजा। स्वतंत्रता से पूर्व हमारे देश में राजतंत्र था। राजपरिवार से राजा चुना जाता था। राजा की नीतियों का अनुसरण प्रजा के करने के कारण ‘यथा राजा तथा प्रजाÓ की यह कहावत प्रचलित हुई होगी।

स्वतंत्रता के पश्चात हमने लोकतंत्र स्वीकृत किया जिसके परिणामस्वरूप जनता के वोट से जनप्रतिनिधि चुने जाने लगे। चुने हुए जनप्रतिनिधियों के संख्या बल से बहुमत प्राप्त दल, सरकार का गठन करता है। इस कारण जैसा चयन हम करेंगे वैसा हमारा प्रतिनिधि होगा। इसलिए कहावत को ऐसे भी कहा जा सकता है कि ‘यथा प्रजा तथा राजाÓ। लिहाजा देशहित का विचार करके मतदान करने वाला समाज गढऩा देश के अग्रणी लोगों का प्रमुख कार्य है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इस कार्य को ‘लोकमन संस्कारÓ कहा है।

जब हम ‘हम भारत के लोगÓ संबोधन करते हैं तब देश की 138 करोड़ जनसंख्या से इसका संदर्भ जुड़ता है। लेकिन 138 करोड़ भारतीयों का मन एवं संस्कार और संस्कार के आधार पर व्यवहार कैसा है, इसका भी विचार करना आवश्यक है। लगभग 32.87 लाख वर्ग किलोमीटर विस्तृत भू-भाग वाले हमारे देश में भागौलिक, जलवायु, मौसम आदि के आधार पर अनेक प्रकार की विविधता के दर्शन होते हैं। खान-पान, वेशभूषा, जन्म, धार्मिक आस्था, शिक्षा एवं आर्थिक आधार अनेक प्रकार की विविधता का निर्माण करते हैं। सतही दृष्टि रखने वाले लोग इन विविधताओं में भेद को देखते हैं।

गुलामी के लंबे अंतराल में हम स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत रहे। इस कारण गतिशील समाज में अपनी समाज रचना के संदर्भ में बार-बार विचार करने की जो आवश्यकता रहती है वह हम नहीं कर सके।

भारत के पास प्राचीन सांस्कृतिक विरासत एवं विश्व को दिशा देने में सक्षम ज्ञान परंपरा है। आर्थिक समृद्धि प्राप्त करने के लिए पर्याप्त कृषि योग्य भूमि, जल एवं वन संपदा तथा प्रचुर श्रम शक्ति उपलब्ध है। इन गुणों के आधार पर हम विश्व की महाशक्ति हो सकते हैं। जो वैश्विक ताकतें भारत को बढ़ती ताकत के रूप में देखना नहीं चाहतीं, वे भी भारत को कमजोर करने के लिए भारतीय समाज में विभेदों को बढ़ाने का सुनियोजित प्रयास कर रही हैं।

एकात्मता को खंडित करने में कुछ मात्रा में इन लोगों ने सफलता भी प्राप्त की है। गुलामी के कालखंड से ही इन शक्तियों ने भारतीय समाज को कमजोर करने के अनेक प्रयास किए। विभेदों को बढ़ाने के लिए अनेक सिद्धांत गढ़े। उत्तर-दक्षिण, आर्य-द्रविड़, आदिवासी-शहरवासी, भारत एक राष्ट्र नहीं, अनेक राष्ट्रों का समूह, जैसे अनेक सिद्धांत इसी अलगाववादी प्रवृत्ति को बढ़ाने की मानसिकता के उदाहरण हैं।

छोटी-छोटी पहचान को आधार बनाकर आंदोलन एवं अलगाव के बीज बोकर संघर्ष खड़ा करने के प्रयास सुनियोजित तरीके से चल रहे हैं। नए-नए सिद्धांतों को गढऩा, ऐतिहासिक घटनाओं को संदर्भ से काटकर नए-नए संदर्भों में प्रस्तुत करना, छोटे-छोटे विषयों को बढ़ाकर हिंसा फैलाना, हिंसा फैलाने वाले संगठनों को बौद्धिक धरातल देकर संरक्षण देना, ऐसे कार्य करने वालों को समाज में मान्यता प्रदान करना यह एक व्यवस्थित संजाल संर्पूण देश में फैला है। गरीबी, पिछड़ापन, पर्यावरण आदि का सहारा लेकर कार्य करने वाली शक्तियों को पहचानना आवश्यक है।

‘हम भारत के लोगÓ जब तक परस्पर इतने विभेदों में बंटे रहेंगे एवं अज्ञानतावश अनेक प्रकार के षड्यंत्रों का शिकार बनते रहेंगे, तब तक संविधान में व्यक्त संकल्पों की पूर्ति संभव नहीं है। अत: हमें विविधता में एकता को आत्मसात करना होगा। अलग-अलग जातियों और प्रांतों में जन्म लेने के बाद भी एवं अलग-अलग पूजा पद्धतियों में आस्था रखने के बाद भी हम एक ही भारत भूमि की संतान हैं।

यह शस्य-श्यामला भूमि हमारी मां है। मां-पुत्र का यह संबंध हमारे मध्य भाईचारा निर्माण करता है। हमारी सभी की एक साझी विरासत है, हमारी संस्कृति हमें जोड़ती है। समाज सुधारक, अलग-अलग गुणों को आधार मानकर उपदेश देने वाले उपदेशक, भारत की सुरक्षा के लिए बलिदान देने वाले सभी महापुरुष हमारे अपने हैं। हम सभी उनकी संतान हैं। प्रसिद्ध समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने इसी आधार पर कहा था कि इस देश को जोडऩे वाले तत्व ‘राम, कृष्ण, शिवÓ हैं। हमको इसी एकात्मता के दर्शन करने होंगे।

जय-पराजय में प्रकट होने वाली प्रतिक्रिया एवं परिणामों को हम सभी ने समान रूप से भोगा है। विश्व में अपने भारत देश को अग्रणी देश बनाना यह लक्ष्य हम सभी 138 करोड़ भारतीयों को एक दिशा में चलने के लिए प्रेरित करेगा।

इस वर्ष देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। गणतंत्र दिवस की शुभ बेला पर इसी विविधता में एकता के दर्शन करते हुए हम अपने संविधान निर्माताओं की आकांक्षा एवं अपने महापुरुषों की इच्छा को पूर्ण करने का संकल्प लें। तभी हम ‘हम भारत के लोगÓ कहलाने के सच्चे अधिकारी होंगे।

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